केरल, देश का ऐसा पहला राज्य बनने जा रहा है, जहां पर कोरोनावायरस कोविड-19 के इलाज के लिए प्लाज्मा थेरेपी का क्लीनिकल ट्रायल किया जाएगा. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने कोविड-19 मरीजों के इलाज के लिए केरल सरकार की ओर से सुझायी गयी कॉन्व्लेसेन्ट प्लाज्मा थेरेपी को मंजूरी दे दी है. अगर केरल का प्रयोग सफल हो गया तो कमाल हो जाएगा क्योंकि दुनिया के किसी भी देश में कोरोना को थामने के लिए कोई दवा ईजाद नहीं हुआ है. तिरुअनंतपुरम स्थित श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीच्यूट फॉर मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी के अपनी तरह के इस पहले प्रोजेक्ट को आईसीएमआर ने सहमति दे दी है.
अधिकारियों ने बताया कि केंद्र सरकार के विज्ञान और तकनीकी विभाग के अंतर्गत आने वाला यह विभाग भारतीय दवा नियंत्रक और आचार समिति की अनुमति मिलने के बाद इस महीने के अंत से ट्रायल शुरू कर सकता है. आईसीएमआर से मंजूरी मिलने के बाद अब केरल का स्वास्थ्य मंत्रालय ड्रग्स कंट्रोलर-जनरल ऑफ इंडिया की मंजूरी का इंतजार कर रहा है. चीन और दक्षिण कोरिया में इस इलाज का इस्तेमाल हो रहा है. डॉक्टरों के मुताबिक, क्लीनिकल ट्रायल के लिए एलिजा टेस्ट किट की जरूरत है जिसके ऑर्डर दिए जा चुके हैं.
इसे साधारण तरीक़े से समझा जाए तो ये इलाज इस धारणा पर आधारित है कि वे मरीज जो किसी संक्रमण से उबर जाते हैं उनके शरीर में संक्रमण को बेअसर करने वाले प्रतिरोधी ऐंटीबॉडीज विकसित हो जाते हैं. इन ऐंटीबॉडीज की मदद से कोविड-19 रोगी के रक्त में मौजूद वायरस को खत्म किया जा सकता है. क्रिटिकल केयर स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के मुताबिक, किसी मरीज के शरीर से ऐंटीबॉडीज उसके ठीक होने के 14 दिन बाद ही लिए जा सकते हैं और उस रोगी का कोविड-19 का एक बार नहीं, बल्कि दो बार टेस्ट किया जाना चाहिए. ठीक हो चुके मरीज का एलिजा (एन्जाइम लिन्क्ड इम्युनोसॉर्बेन्ट ऐसे) टेस्ट किया जाता है जिससे उसके शरीर में ऐंटीबॉडीज की मात्रा का पता लगता है. लेकिन ठीक हो चुके मरीज के शरीर से रक्त लेने से पहले राष्ट्रीय मानकों के तहत उसकी शुद्धता की भी जांच की जाएगी.
पहला ये कि कोविड-19 का अब तक कोई इलाज उपलब्ध नहीं है. दूसरा ये कि संक्रामक रोगों के इलाज के लिए सदियों से प्लाज्मा वाला इलाज होता रहा है. इससे पहले सार्स, मर्स और एचवनएनवन जैसी महामारियों के इलाज में भी प्लाज्मा थेरेपी का ही इस्तेमाल हुआ था. तीसरा ये कि इलाज थोड़ा सस्ता है. इस इलाज में दो से ढाई हज़ार रुपए से ज्यादा नहीं लगेगा क्योंकि ये इलाज सरकारी अस्पताल में उपलब्ध होगा.
ठीक हो चुके रोगी के शरीर से ऐस्पेरेसिस विधि से खून निकाला जाएगा जिसमें खून से प्लाज्मा या प्लेटलेट्स जैसे अवयवों को निकालकर बाकी खून को फिर से उसी रोगी के शरीर में वापस डाल दिया जाता है. डॉक्टरों के मुताबिक, ऐंटीबॉडीज केवल प्लाज्मा में मौजूद होते हैं. डोनर के शरीर से लगभग 800 मिलीलीटर प्लाज्मा लिया जाता है. इसमें से रोगी को लगभग 200 मिलीलीटर खून चढ़ाने की ज़रूरत होती है. यानी एक डोनर के प्लाज्मा का चार रोगियों में इस्तेमाल हो सकता है.
श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीच्यूट फॉर मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉक्टरों के मुताबिक, ऐसे लोग जिन्हें बुख़ार, कफ और सांस लेने में थोड़ी दिक्कत हो रही है, उन्हें प्लाज्मा देने की जरूरत नहीं है. इसे केवल उन्हीं रोगियों को दिया जाना चाहिए जिनकी हालत बिगड़ रही है और पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं ले पाने की वजह से जिनकी स्थिति गंभीर हो सकती है. वो साथ ही कहते हैं कि एहतियात के तौर पर इसे स्वास्थ्यकर्मियों को भी दिया जा सकता है. इलाज के असर के बारे में वो कहते हैं, अभी तक जो टेस्ट हुए हैं उनसे लगता है कि 48 से 72 घंटे में सुधार शुरु हो सकता है.