II विवेकानंद सिंह की रिपोर्ट II
हर वर्ष 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस के रूप में मनाया जाता है. अपने देश में यह समय गर्मी के मौसम की शुरुआत के रूप में जानी जाती रही है, लेकिन अक्सर लोग आपको यह कहते मिल जाते होंगे कि मई-जून जैसी गर्मी तो अभी से ही पड़ने लगी है. हम सभी यह महसूस कर रहे हैं कि हमारी जीवनदायी धरती के तापमान में धीरे-धीरे वृद्धि होती जा रही है. इसे ही हम ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कहते हैं.
विविध ग्रीनहाउस गैस और मीथेन
आमतौर पर हम यह जानते हैं कि ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और जल वाष्प आदि) के अंधाधुंध उत्सर्जन की वजह से हम और हमारी धरती ग्लोबल वार्मिंग रूपी इस चुनौती का सामना करने को विवश है. यह बात पूरी तरह सच भी है, लेकिन इनमें से मीथेन एक ऐसी ग्रीनहाउस गैस है, जो कम मात्रा में होने के बावजूद पृथ्वी के तापमान को अधिक प्रभावित करती है. मीथेन का उत्सर्जन लगभग 40 प्रतिशत प्राकृतिक स्रोतों से और लगभग 60 प्रतिशत मानव निर्मित स्रोतों से होता है, जिसमें पशुधन, खेती, चावल, बायोमास जलाना आदि शामिल हैं. हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारा जारी स्टेट ऑफ द ग्लोबल क्लाइमेट रिपोर्ट, 2022 में कहा गया है कि 2015 से लेकर 2023 यानी आठ वर्ष अब तक के सबसे गर्म साल रहे हैं. ऐसे में अगर अब भी हम सचेत न हुए तो पृथ्वी पर जीवन धीरे-धीरे और कष्टकारी होता चला जायेगा.
मीथेन उत्सर्जन पर कम रहता है ध्यान
मीथेन (CH4) एक अदृश्य गैस है. यह एक हाइड्रोकार्बन है, जो प्राकृतिक गैसों का एक प्रमुख घटक है. वायुमंडल में मीथेन को कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में आप एक अधिक मोटे कंबल के रूप में मान सकते हैं, जो अपेक्षाकृत कम समय में पृथ्वी को ज्यादा गर्म करने में सक्षम है. पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी में इसका तत्काल प्रभाव पड़ता है. हालांकि, जहां कार्बन डाइऑक्साइड सैकड़ों वर्षों तक वायुमंडल में रहती है, वहीं अच्छी बात है कि मीथेन गैस लगभग 10 से 20 वर्ष के बीच तक ही वायुमंडल में रहती है. ऐसे में मीथेन उत्सर्जन की दर को यदि कम करने की दिशा में ठोस कदम उठाये जाएं, तो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को भी कम किया जा सकता है. आमतौर पर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों की तुलना में मीथेन उत्सर्जन को कम करने पर न के बराबर ध्यान दिया जाता रहा है, जबकि वैज्ञानिक शोधों से स्पष्ट है कि 20 वर्षों तक वायुमंडल में रहने के दौरान मीथेन की चादर धरती की गर्मी को रोकने के मामले में कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में लगभग 80 से 85 गुना अधिक शक्तिशाली है.
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प्रतिज्ञा के अनुपात में प्रयासों की दिखती कमी
वर्ष 2021 में ग्लासगो जलवायु सम्मेलन, सीओपी-26 में लगभग 100 देश मीथेन गैस के उत्सर्जन को कम करने की स्वैच्छिक प्रतिज्ञा में एक साथ आये थे, जिसे वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा के रूप में बताया भी गया था. इसका उद्देश्य वर्ष 2020 के स्तर से वर्ष 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को कम-से-कम 30 प्रतिशत कम करना है. हालांकि, यूनाइटेड नेशन्स एनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूएनइपी) की एक रिपोर्ट बताती है कि मीथेन गैस की उत्सर्जन दर 2020 के मुकाबले 2030 तक 5 से 13 प्रतिशत तक बढ़ जायेगी. नासा ने भी अपने उपकरण अर्थ सरफेस मिनरल डस्ट सोर्स इन्वेस्टिगेशन (एमिट) का उपयोग करते हुए दुनिया भर में 50 से अधिक स्थानों की पहचान की है, जो मीथेन का सबसे अधिक उत्सर्जन करते हैं. नासा के अनुसार, मध्य एशिया, मिडिल ईस्ट के देश और दक्षिण-पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका में अब तक 50 से अधिक मीथेन गैस के सबसे बड़े उत्सर्जकों की पहचान की गयी है. इनमें से ज्यादातर जीवाश्म ईंधन, अपशिष्ट या कृषि क्षेत्रों से जुड़े हैं.
कैसे कम किया जा सकता है मीथेन का उत्सर्जन
यूएन की रिपोर्ट भी इस ओर इशारा कर रहे हैं कि वर्ष 1980 की तुलना में मानव निर्मित मीथेन का उत्सर्जन तेजी से बढ़ा है, जो कि औद्योगीकरण की शुरुआत से अब तक हुई तापमान वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में 30 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार है. आंकड़ों के अनुसार, कुल मीथेन उत्सर्जन में जीवाश्म ईंधन क्षेत्र 35 प्रतिशत तक जिम्मेदार है. इस क्षेत्र मीथेन उत्सर्जन की दर को कम किये जाने की जरूरत है. सीवेज सिस्टम में सुधार करके भी मीथेन उत्सर्जन में कटौती की जा सकती है. यूएन की रिपोर्ट के अनुसार, चुनौती यह है कि मीथेन गैस उत्सर्जन में कटौती करने की संभावनाएं अलग-अलग देशों और क्षेत्रों के अनुसार अलग-अलग हैं.
ग्लोबल वार्मिंग में भारत का भी बड़ा योगदान
बीते दिनों नेचर जर्नल में प्रकाशित यूरोप व अमेरिका के वैज्ञानिकों के एक शोध में ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देने वाले शीर्ष 10 देशों में भारत का स्थान पांचवां है. तापमान में 0.28 डिग्री सेल्सियस (17.3%) वृद्धि के कारण यूएसए (अमेरिका) सूची में पहले स्थान पर है, वहीं चीन दूसरे (12.3% वृद्धि), रूस तीसरे स्थान पर (6.1% वृद्धि) और ब्राजील (4.9% की वृद्धि) के साथ चौथे स्थान पर है. रिपोर्ट में भारत वर्ष 2005 के 10वें स्थान से छलांग लगाते हुए पांचवें स्थान पर पहुंच गया है, जो कि चिंताजनक है. वर्ष 1850 से 2021 तक तापमान में 0.08 डिग्री सेल्सियस (4.8%) वृद्धि के साथ ग्लोबल वार्मिंग के लिए भारत जिम्मेदार है. बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग के पीछे दुनिया के अधिकांश देशों में बढ़ता भूमि उपयोग और घटते वन क्षेत्र का सबसे अहम योगदान है. ऐसे में आम नागरिकों से यही उम्मीद की जाती है कि आप अधिक-से-अधिक पौधे लगाएं. जंगलों को कटने से बचाएं, ताकि हमारी धरती ही हमें स्वर्ग सी लगे.