लोकसभा चुनाव का नतीजा कई मायनों में अभूतपूर्व रहा. उम्मीद के मुताबिक भाजपा को तीसरी बार स्पष्ट जनादेश हासिल नहीं हो पाया. हालांकि एनडीए बहुमत हासिल करने में कामयाब रही. लेकिन 400 पार का नारा कहीं पीछे छूट गया और इंडिया गठबंधन ने एनडीए को कड़ा टक्कर दिया. तमाम उम्मीदों के बावजूद भाजपा को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हो पाया. उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक उम्मीद थी, वहां पार्टी पिछली बार के मुकाबले लगभग 30 सीटें कम जीतती हुई दिख रही है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन के नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है कि विपक्ष का संविधान बदलने, बेरोजगारी और महंगाई का नैरेटिव भाजपा पर भारी पड़ा. इसके अलावा सपा ने टिकट बंटवारे में बेहतर रणनीति अपनायी. सपा पर आरोप लगता रहा था कि वह सिर्फ एक जाति को तरजीह देती है, लेकिन इस बार सपा ने पिछड़े वर्ग की दूसरी जातियों को भी टिकट बंटवारे में प्राथमिकता दी. वहीं भाजपा ने ऐसे कई उम्मीदवारों को टिकट दिया, जिनके खिलाफ जनता में नाराजगी थी. भाजपा ने चुनाव के दौरान बड़ी रैलियों को प्राथमिकता दी, जबकि सपा और कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर आम लोगों तक पहुंचने का काम किया.
राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन ने पलटी बाजी
पिछले लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में भाजपा को बड़ी कामयाबी हासिल हुई थी. इस बार राजस्थान में कांग्रेस को 11, हरियाणा में पांच और महाराष्ट्र में बड़ी कामयाबी हासिल हुई. इन राज्यों में इंडिया गठबंधन को मिली जीत के कारण ही भाजपा अकेले बहुमत हासिल करने से पीछे रह गयी. महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में हुए बिखराव के कारण सहानुभूति वोट उद्धव ठाकरे और शरद पवार को मिला. लोगों में यह बात गयी कि इसके पीछे भाजपा का ही हाथ रहा है. उद्धव ठाकरे जिस तरह से सीएम की कुर्सी से हटे उससे भी उनके प्रति लोगों में सहानुभूति थी. पिछली बार महाराष्ट्र में भाजपा गठबंधन को 42 सीटों पर जीत हासिल मिली थी. राजस्थान में वसुंधरा राजे की नाराजगी पार्टी पर भारी पड़ी. जब से उन्हें सीएम नहीं बनाया गया और राज्य के स्थानीय नेताओं ने उनके साथ जो बर्ताव किया उससे भी वसुंधरा और उनके समर्थकों में नाराजगी दिखी, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है.
प्रधानमंत्री मोदी पर अधिक निर्भरता
भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा. जबकि कई राज्यों में भाजपा के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं था. स्थानीय चेहरे की कमी और मोदी पर अत्यधिक निर्भरता का खामियाजा भी भाजपा को उठाना पड़ा. इसके अलावा भाजपा की जीत को लेकर अति आत्मविश्वास भी हार का कारण बनी.भाजपा के कार्यकर्ताओं ने जीत को गारंटी मानकर मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा नहीं लिया. साथ ही विपक्षी दलों की कई लोकलुभावन वादों का भी असर भी आम जनता खासकर महिलाओं पर पड़ा. भाजपा के कार्यकर्ता इतने आत्ममुग्ध हो चुके थे कि उन्हें लगता था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही पार्टी चुनाव जीत जायेगी. जबकि स्थानीय कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की अपने सांसदों से भी कुछ अपेक्षाएं होती है, जिसपर भाजपा के कई सांसद खरे नहीं उतरे और उसका खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ा.