लोकसभा चुनाव में वामदलों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. मौजूदा समय में केरल में सिर्फ वामदलों की सरकार है. लेकिन इस चुनाव में माकपा और भाकपा सिर्फ एक सीट पर सिमटती दिख रही है. जबकि तीन दशक तक पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज वामदल एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो पाये है. यही हाल त्रिपुरा जैसे राज्य में भी है. वाम दल तमिलनाडु में इंडिया गठबंधन के तहत चार सीट और राजस्थान में कांग्रेस के सहयोग से सीकर सीट जीतने में कामयाब हुए है. केरल में माकपा सिर्फ एक सीट जीत सकी, लेकिन जीत का मार्जिन काफी कम रहा, जबकि चुनाव में वामदलों के कई दिग्गज नेता और केरल सरकार के कई मंत्री चुनाव मैदान में थे. लेकिन सभी को हार का मुंह देखना पड़ा
वामदलों के गढ़ में भाजपा खाता खोलने में रही सफल :
केरल में वामदलों को 32.5 फीसदी, कांग्रेस को 35 फीसदी और एनडीए को 16.5 फीसदी मत मिला. पहली बार केरल में भाजपा खाता खोलने में सफल रही है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के सहयोगी के तौर पर लड़े वामदल सिर्फ पांच फीसदी मत ही हासिल कर सके. विधानसभा की तरह लोकसभा में भी पश्चिम बंगाल में वामदलों का कोई उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका. जबकि इस बार पश्चिम बंगाल में पार्टी की ओर से युवाओं को मौका दिया गया था, लेकिन पार्टी की रणनीति काम नहीं कर सकी और राज्य की अधिकांश सीटों पर वाम दल के उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे. पार्टी ने राज्य की 42 में से 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था और कांग्रेस 12 सीटों पर. वहीं त्रिपुरा में भी पार्टी दोनों सीटों पर चुनाव हार गयी.
माले ने जगायी उम्मीद की किरण :
बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में वाम दल का प्रभाव रहा है. बिहार के कई नेता केंद्र में मंत्री तक रहे और अच्छा काम करके भी दिखाया, लेकिन इन प्रदेशों में अब वामदलों की स्थिति नगण्य रह गयी है. बिहार में भाकपा माले ने लोकसभा में दो सीटों पर जीत दर्ज कर अपने कैडरों के बीच यह भरोसा देने में कामयाब रही है पार्टी यदि जमीन पर मेहनत करे, तो अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को बचाने में कामयाब हो सकती है. आखिरी जीत माले को 1999 में भागलपुर से मिली थी. तब से वह लोकसभा चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को लेकर तरस गयी थी. इस चुनाव में गठबंधन के तहत माले को तीन सीट मिली थी, जिसमें वह नालंदा में दूसरे स्थान पर रही, जबकि आरा में उसने वर्तमान केंद्रीय मंत्री आरके सिंह को और काराकाट में पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा को हराकर अपनी खोई प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सकी है. 1989 में रामेश्वर प्रसाद ने आरा सीट से जीत दर्ज की थी. इसी जीत ने पहली बार पार्टी को संसद की राह दिखायी थी, तब वे इंडियन पीपुल्स फ्रंट के उम्मीदवार के तौर पर जीते थे. बाद में इस फ्रंट का नाम भाकपा माले हो गया. यह चुनाव परिणाम माले के लिये अपने जनाधार को बढ़ाने का अवसर साबित हो सकता है.
गौरतलब है कि वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में वाम दलों के 62 उम्मीदवार चुनाव जीते थे और यूपीए सरकार बनाने में वामदलों का अहम योगदान था. लेकिन चुनाव दर चुनाव जनाधार वाले राज्यों में वाम दलों का आधार सिकुड़ता जा रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण वामदल अपने पुराने कैडर को भूल रही है, जबकि नये वोटरों से खुद को कनेक्ट नहीं कर पा रही है. वामदलों का आज भी परंपरागत तरीके से चुनाव लड़ना और और अपने कैडर वोट को उपेक्षित रखना हार का एक बड़ा कारण माना जा रहा है.