Explainer: कांग्रेस नेता ने कहा- पारित विधेयक संवैधानिक रूप से ‘संदिग्ध’, आखिर बिल को लेकर क्यों छिड़ा विवाद?
पूर्व केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा कि अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के बाद 10 दिन की अवधि का इस्तेमाल विधेयकों को पारित कराने के लिए नहीं किया जा सकता है. लोकसभा सदस्य ने यह बात तब कही जब दिल्ली सेवा अध्यादेश के स्थान पर संसद में एक विधेयक पेश किया जाना है.
Monsoon Session 2023 : कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने रविवार को दावा किया कि लोकसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव को मंजूर किए जाने के बाद पारित हुए सभी विधेयक ‘संवैधानिक रूप से संदिग्ध’ हैं. मनीष तिवारी ने जोर देकर कहा कि कोई भी विधायी कामकाज प्रस्ताव के परिणाम सामने आने के बाद ही होना चाहिए, ना कि इससे पहले. पूर्व केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा कि अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के बाद 10 दिन की अवधि का इस्तेमाल विधेयकों को पारित कराने के लिए नहीं किया जा सकता है. लोकसभा सदस्य ने यह बात तब कही जब दिल्ली सेवा अध्यादेश के स्थान पर संसद में एक विधेयक पेश किया जाना है.
‘संसदीय परंपराओं का पूरी तरह से उल्लंघन’
उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि एक बार अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में पेश कर दिया जाए, तो उसके बाद कोई विधेयक अथवा संसद के समक्ष लाया गया कोई भी कामकाज ‘नैतिकता, औचित्य और संसदीय परंपराओं का पूरी तरह से उल्लंघन है.’ मनीष तिवारी ने दावा किया कि लोकसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव को मंजूर किए जाने के बाद राज्यसभा अथवा लोकसभा से पारित सभी विधेयकों की वैधता की पड़ताल कानून द्वारा की जानी चाहिए और यह पता लगाया जाना चाहिए कि ये कानूनी तरीके से पारित किए गए हैं अथवा नहीं.
विधायी कामकाज ‘संवैधानिक रूप से संदिग्ध’
उन्होंने दावा किया कि अविश्वास प्रस्ताव को मंजूर किए जाने के बाद सभी विधायी कामकाज ‘संवैधानिक रूप से संदिग्ध’ हैं. मणिपुर के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी से संसद के भीतर जवाब मांग रहे विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ (इंडिया) की ओर से कांग्रेस ने इस रणनीति के साथ यह कदम उठाया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सदन में बोलने के लिए बाध्य किया जा सके. मनीष तिवारी ने कहा, ‘मणिपुर में जो हुआ और जो वहां लगातार हो रहा है वह निंदनीय है. राज्य में भाजपा की सरकार है, केंद्र में भाजपा की सरकार है, इसलिए किसी को तो जिम्मेदारी लेनी होगी.’
‘अविश्वास प्रस्ताव लाने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं बचा’
कांग्रेस नेता ने कहा कि विपक्ष यह उम्मीद कर रहा था कि प्रधानमंत्री मणिपुर के ‘बेहद खतरनाक हालात’ पर संसद के दोनों सदनों में स्वत: संज्ञान लेते हुए बयान देंगे और उस पर चर्चा होगी. उन्होंने कहा, लेकिन दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री ने मानसून सत्र के शुरू होने से पहले बेहद ‘सतही बयान’ दिया. कांग्रेस नेता ने कहा, ‘इसके बाद पीठासीन अधिकारी ने लगातार पेश किए गए स्थगन प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया. इसलिए संयुक्त विपक्ष के पास यह अविश्वास प्रस्ताव लाने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं बचा था…’
प्रधानमंत्री मोदी के जवाब को लेकर क्या उम्मीदें ?
इस अविश्वास प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री मोदी के जवाब को लेकर क्या उम्मीदें हैं, यह पूछे जाने पर पंजाब के आनंदपुर साहिब से सांसद ने कहा कि प्रस्ताव में कहा गया है कि, ‘यह सदन मंत्रिपरिषद के प्रति विश्वास के अभाव को व्यक्त करता है और उस विश्वास की मांग का कारण पिछले एक सप्ताह से सार्वजनिक तौर पर बताया जा रहा है.’ उन्होंने कहा, ‘तो उन परिस्थितियों में अगर प्रधानमंत्री मणिपुर पर प्रतिक्रिया नहीं देने का चुनाव करते हैं तो यह उपहास का विषय होगा.’ भाजपा का तर्क है कि पूर्वोत्तर में अतीत में हुई हिंसा की घटनाओं पर मंत्रियों ने जवाब दिया है प्रधानमंत्री ने नहीं,इस पर तिवारी ने कहा कि मोदी सरकार को विपक्षी सांसदों के स्थगन प्रस्ताव मंजूर करने चाहिए थे.
दिल्ली सेवा अध्यादेश
उन्होंने कहा, ‘हम हर दिन स्थगन प्रस्ताव पेश कर रहे थे. सरकार को उन्हें स्वीकार करना चाहिए था जिन पर मंत्री जवाब दे सकते थे. सरकार ने उन्हें स्वीकार नहीं करने का चयन किया.’ यह पूछे जाने पर कि क्या दिल्ली सेवा अध्यादेश के स्थान पर विधेयक अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा और मतदान के बाद लाया जाना चाहिए, मनीष तिवारी ने कहा ‘यहां तक कि एमएन कौल और एसएल शकधर (द्वारा लिखी गई पुस्तक), जिसका मैंने जिक्र किया है, में स्पष्ट किया गया है कि एक बार अध्यक्ष अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है,तो किसी अन्य विधायी कामकाज को प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए.’
जुलाई 1966 का जिक्र किया
मनीष तिवारी ने जिक्र किया कि जुलाई 1966 में जब सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था तब तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने इस तथ्य को स्वीकार किया था कि एक बार ऐसा प्रस्ताव सदन के सामने आने के बाद कोई अन्य महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया जाना चाहिए. इस बारे में पूछे जाने पर कि अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के 10 दिन के भीतर चर्चा कराने के नियम के बावजूद विपक्ष इस पर तत्काल चर्चा की मांग कर रहा था, उन्होंने कहा कि इसके पीछे यह कारण था कि जब मंत्रिपरिषद के प्रति विश्वास के अभाव को व्यक्त किया जा रहा है, तो इस बात का क्या औचित्य है कि सरकार विधेयक पेश कर रही है और उन्हें सदन से पारित करा रही है.
केंद्र के एक नए संशोधन विधेयक में प्रस्तावित किया गया है कि राष्ट्रपति भारतीय प्रबंध संस्थानों (आईआईएम) के विजिटर होंगे और उन्हें उनके कामकाज का ऑडिट करने, जांच का आदेश देने और निदेशक नियुक्त करने के साथ-साथ उन्हें हटाने का अधिकार होगा, जिससे इस प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान की “स्वायत्तता” को लेकर बहस शुरू हो गई है. मणिपुर हिंसा पर विपक्षी सदस्यों के हंगामे के बीच आईआईएम अधिनियम 2017 में संशोधन से संबंधित एक विधेयक पिछले शुक्रवार को लोकसभा में पेश किया गया था.
कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) यथासंभव सख्त नियंत्रण बनाए रखना चाहता है और “वैचारिक शुद्धता” सुनिश्चित करना चाहता है, जबकि आईआईएम केवल जवाबदेही तय करने के बजाय संशोधन से स्वायत्तता छिन जाने को लेकर चिंतित हैं. कांग्रेस महासचिव एवं सांसद जयराम रमेश ने कहा, ‘आईआईएम को 2017 में अधिक स्वायत्तता दी गई थी और इस कानून को संसद में व्यापक समर्थन मिला था. हालांकि, छह साल बाद मोदी सरकार ने खुद जो पेश किया था, उसे उलट रही है. स्पष्ट रूप से, स्वायत्तता इस सरकार को नापसन्द है.’
उन्होंने कहा, ‘पीएमओ अब गुणवत्ता, विचार की स्वतंत्रता और कार्यक्रमों के संचालन में लचीलेपन के सभी विचारों को दरकिनार करते हुए यथासंभव सख्त नियंत्रण बनाए रखना और वैचारिक ‘शुद्धता’ सुनिश्चित करना चाहता है.’ भारतीय प्रबंध संस्थान (संशोधन) विधेयक, 2023 के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति प्रत्येक संस्थान के विजिटर होंगे. विधेयक में कहा गया है, ‘विजिटर किसी भी संस्थान के काम और प्रगति की समीक्षा करने, उसके मामलों की जांच करने और विज़िटर द्वारा निर्देशित तरीके से रिपोर्ट करने के लिए एक या एक से अधिक व्यक्तियों को नियुक्त कर सकते हैं. बोर्ड विजिटर को उस संस्थान के खिलाफ उचित समझे जाने वाली जांच की सिफारिश भी कर सकता है, जो अधिनियम के प्रावधानों और उद्देश्यों के अनुसार काम नहीं कर रहा है.’
आईआईएम इस बात को लेकर चिंतित हैं कि क्या यह विधेयक जवाबदेही तय करने के नाम पर उनकी स्वायत्तता को कम कर देगा. एक शीर्ष आईआईएम के निदेशक ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा, ‘जवाबदेही तय करने के अन्य तरीके भी हो सकते हैं. यह स्वायत्तता पर सीधा हमला होगा. प्रबंधन संस्थान के कामकाज को नियंत्रित करने वाले एक स्वतंत्र बोर्ड की अवधारणा एक वैश्विक मॉडल है, जो हर जगह सफल रही है… यह भारत में भी काम कर सकती है.’ एक अन्य आईआईएम के निदेशक ने भी इसी बात को दोहराते हुए कहा कि आईआईएम में विजिटर की अवधारणा पेश करना ‘सरकार के लिए सीधे नियंत्रण स्थापित करने का एक तरीका है.’
हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि आईआईएम सार्वजनिक संस्थान हैं और विधेयक यह सुनिश्चित करेगा कि वे निजी “जागीर” में तब्दील न हो जाएं. कौशल विकास मंत्रालय में नीति विश्लेषक अतुल कुमार ने कहा, ‘आईआईएम सार्वजनिक संस्थान हैं, जो भारत के लोगों के प्रति (संसद के माध्यम से) जवाबदेह हैं. उन्हें निजी जागीर नहीं बनना चाहिए. विधेयक में निदेशकों और बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को लेकर जो प्रावधान किए गए हैं, उन पर कड़ी नजर रखी जानी चाहिए.’
आईआईएम में विजिटर की अवधारणा का उल्लेख पहली बार 2015 में मौजूदा कानून के मसौदे में किया गया था. हालांकि, आईआईएम ने यह कहते हुए इसका विरोध किया था कि यह “उनकी स्वायत्त शक्तियों पर प्रश्नचिह्न लगाएगा”, बाद में इसे विधेयक से हटा दिया गया था. भारत के राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आईआईटी के विजिटर होते हैं और उनके कुलपतियों तथा निदेशकों की नियुक्ति करते हैं.
जनवरी 2018 में लागू हुए आईआईएम अधिनियम के तहत इन प्रबंधन संस्थानों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई थी. इसके तहत प्रत्येक संस्थान के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में 19 सदस्य होते हैं, जिनमें केंद्र और राज्य सरकारों से केवल एक-एक प्रतिनिधि शामिल होते हैं. बोर्ड अपने शेष 17 सदस्यों को प्रतिष्ठित व्यक्तियों, संकाय सदस्यों और पूर्व छात्रों में से नामित करता है. बोर्ड नए निदेशकों और अध्यक्षों की नियुक्ति के लिए खोज समिति भी नियुक्त करता है और यदि वह खोज समिति की सिफारिशों से सहमत होता है, तो नियुक्तियां करता है.