प्रारभ्यते न खलु विघ्न- भयेन् नीचै:,
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्या:,
विघ्नै: पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना:,
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ।
उज्जैन के राजपाट से मोहभंग होने के बाद महाराज भर्तृहरि के इस श्लोक में तीन प्रकार के मनुष्यों का जिक्र किया गया है, जिसमें प्रथम स्तर पर निम्नकोटि के लोगों का जिक्र है, जो किसी काम में व्यवधान पड़ने की बात सोचकर कार्य प्रारंभ नहीं करते, जबकि मध्यम श्रेणी के लोग कार्य आरंभ तो कर देते हैं, लेकिन जरा-सा विघ्न आने पर बीच में ही छोड़ बैठते हैं, लेकिन उत्तम श्रेणी के लोग विघ्नों के बार-बार उपस्थित होने पर भी कार्य अधूरा नहीं छोड़ते, उसे पूर्ण करके ही रहते हैं. इसके लिए उन्हें चाहे कितना भी संघर्ष न करना पड़े.
इस धरती पर मनुष्य से लेकर देवता तक वहीं पूज्य हुए, जिन्होंने समस्याओं से मुंह न मोड़कर, बल्कि उसके समाधान तक प्रयत्न किया. भारतीय जनमानस में त्रेतायुग के महानायक भगवान राम का उदाहरण लिया जाये, तो स्पष्ट होता है कि जब पिता ने अयोध्या की राजगद्दी की जगह वनवास दे दिया तो श्रीराम विचलित नहीं हुए. वे यह जानते थे कि वनवास में राजमहल जैसी सुविधाएं नहीं मिलेंगी.
रामयुग में असहयोग आंदोलन…
दरअसल, भगवान राम धरती पर शांतिदूत के रूप में अवतरित हुए थे. अहिंसा उनका सबसे बड़ा अस्त्र-शस्त्र था. अहिंसा का मतलब अनावश्यक किसी को प्रताड़ित करना नहीं होता है, लेकिन लोकहित में अन्यायी तथा अत्याचारी को तो दंड देना ही पड़ता है. श्रीराम को वनवास दिया गया तब अयोध्या की प्रजा उद्वेलित हो गयी. श्रीराम इसका लाभ उठा सकते थे और जनता को विद्रोह के लिए कह सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कदम नहीं उठाने का ही संदेश दिया. वे वन चले गये. प्रजा दुखी थी. लिहाजा प्रजा ने अन्न-जल त्याग दिया. यदि इस पर गौर किया जाये, तो अयोध्या की जनता का यह असहयोग आंदोलन ही था. इस आंदोलन को राजा दशरथ झेल नहीं सके.
बापू को राम के जीवन से गहरी प्रेरणा मिली
ऐसा ही रास्ता स्वतंत्रता संग्राम के महानायक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अख्तियार किया. उन्हें उक्त प्रसंग से ही गहरी प्रेरणा मिली. इसका प्रयोग भारत में ही नहीं, बल्कि इसके पूर्व अफ्रीका में भी जनता के उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने में किया. अफ्रीका तो वे एक व्यापारी के मुकदमे के सिलसिले में गये थे, लेकिन वहां भेदभाव की नीति देखकर चाहते तो वे खामोश रह जाते, लेकिन महात्मा गांधी को श्रीराम के आदर्श बार-बार प्रेरित करते रहे और अफ्रीका से लेकर भारत तक में उन्होंने वह काम किया, जिसकी परिकल्पना आम इंसान के वश का नहीं. उन्हें ‘स्वतंत्रता का फकीर’ कहा गया.
अद्भुत प्रतिभा के जन्मजात गुणों से युक्त थे गांधी जी
शांतिपूर्ण माहौल बनाये रखने की प्रेरणा गांधी जी को मिथिला नरेश जनक जी द्वारा आहूत ‘सीता स्वयंवर’ से मिली. शिव के महा-प्रतापी अस्त्र को उठाने की शर्त से आगे निकल कर श्रीराम ने उसे तोड़कर नष्ट कर दिया. श्रीराम को शिव का धनुष बहुत ही मारक और घातक प्रतीत हुआ. वर्तमान दौर में उसकी तुलना परमाणु बम से ही की जा सकती है. श्रीराम जनक जी की भावना समझ गये थे कि जनक जी इस घातक अस्त्र को सुरक्षित दृष्टि से विस्फोट कराना चाहते हैं. इन मनोभावों को समझ कर श्रीराम ने जब उसे तोड़ दिया, तो पूरी प्रकृति हिल गयी थी. इस अस्त्र के प्रति लगाव रखने वाले परशुराम तक दौड़े चले आये, लेकिन द्विपक्षीय वार्ता के बाद परशुराम ने धनुष-भंग का समर्थन किया.
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अद्भुत प्रतिभा के जन्मजात गुणों से युक्त महात्मा गांधी के पूरे आंदोलन पर गहरायी से विचार किया जाये, तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे जगद्गुरु शंकराचार्य के ‘हर जीव में परमात्मा’ के भी भाव से वे प्रभावित थे. जीव-हत्या के वे पक्षधर नहीं थे. इसके अलावा समाधि के देवता भगवान शंकर की तरह गांधी जी अपमान, उपेक्षा, उत्पीड़न तथा हर तरह की यातना के विष को खुद पीने के लिए हमेशा पहली पंक्ति में रहे.
जीवन के आखिरी क्षणों में भी मुख पर राम ही थे!
ऐसे ही ढेरों सद्गुणों के चलते भगवान श्रीराम ने अपने काल के महा शक्तिशाली रावण को पराजित किया. अति भौतिक साधनों तथा सैन्यबलों से युक्त रावण इसीलिए पराजित हो गया, क्योंकि उसके हिस्से में बद्दुआएं अधिक थीं जबकि श्रीराम के प्रति आदर तथा लगाव था. यही रास्ता गांधी जी ने भी अपनाया. यहां तक कि जीवन के आखिरी क्षणों में भी उन्होंने अहिंसा का साथ नहीं छोड़ा, उनके मुख से जो अंतिम शब्द निकले, वो थे- ‘हे राम’! प्रभु श्रीराम के आदर्शों पर चलने वाले महात्मा गांधी को आज पूरी धरती पर सम्मान उनके न रहने पर भी दिया जा रहा है और दिया जाता रहेगा.
– सलिल पांडेय, मिर्जापुर
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