Joshimath Crisis: उत्तराखंड का ऐतिहासिक शहर जोशीमठ 6150 फीट की ऊंचाई पर बसा एक प्रमुख धार्मिक स्थल है. यह आदि गुरु शंकराचार्य की तपोभूमि और बद्रीनाथ का प्रवेश द्वार भी है. पर बड़े अफसोस की बात है कि यह शहर दरक रहा है. यहां के अनेक घरों, मंदिरों, होटलों और सड़कों में बड़ी-बड़ी दरारें आ चुकी हैं, जो बताती हैं कि यह हिमालयी शहर बड़ी त्रासदी की जद में आ चुका है. किसी भी पल अनहोनी की आशंका से यहां के निवासी शहर छोड़कर दूसरी जगह जाने लगे हैं. जो अभी नहीं जा पाये हैं, वे इस हाड़ कंपाने वाली ठंड में बाहर सोने को मजबूर हैं. यदि अभी भी इस स्थिति को नियंत्रित नहीं किया गया तो नैनीताल, धारचूला, मसूरी समेत उत्तराखंड के अनेक शहरों का भविष्य भी इसी गति को प्राप्त हो सकता है.
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मानवजनित गतिविधियां : केवल प्राकृतिक कारक ही नहीं, बल्कि मानवजनित गतिविधियां भी जोशीमठ के धंसाव का कारण हैं. वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के निदेशक कलाचंद सेन की मानें, तो ‘होटल और रेस्तरां हर जगह बढ़ गये हैं. आबादी का दबाव और पर्यटकों की भीड़ भी कई गुना बढ़ गयी है.’ जोशीमठ पर ऐसी आपदा के लिए ये कारण भी जिम्मेदार हैं.
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ऊर्जा संबंधी परियोजनाएं : भूवैज्ञानिकों के अनुसार, एनटीपीसी के निर्माणाधीन तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना को अगर बंद नहीं किया गया तो इस क्षेत्र में जोखिम की संभावना बढ़ सकती है. यह संयंत्र चमोली जिले में धौलीगंगा नदी पर है. इस संयंत्र से सालाना 2.5 टेरा वॉट ऑवर बिजली उत्पादन का अनुमान है.
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पानी की निकासी : इस तरह की घटना तब घटती है जब महीन तलछट जैसी चट्टानों से बड़ी मात्रा में भूजल निकाला जाता है. ज्ञात हो कि चट्टानें सघन इसलिए होती हैं क्योंकि जल आंशिक तौर पर जमीन को ऊपर उठाये रखता है और इसे स्थिरता प्रदान करता है. पर जब बड़ी मात्रा में यहां से भूजल की निकासी होती है तब चट्टानें अपने आप गिरने लगती हैं.
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भूकंपीय क्षेत्र-5 में स्थित होना : जोशीमठ के दरकने का एक अन्य कारण इसका भूकंपीय क्षेत्र-5 में स्थित होना है. यह क्षेत्र भूकंप को लेकर सर्वाधिक संवेदनशील माना जाता है. नियमित तौर पर चट्टानों के टूटने और पानी के रिसाव की समस्या ने चट्टानों के आपस में जुड़े रहने की क्षमता (कोहेसिव स्ट्रेंथ) को कमजोर किया है.
हिमालय में एक बार फिर (जोशीमठ में) जो घटना घटी है, वह इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि इसकी संवेदनशीलता को समझने का समय आ चुका है. दूसरी बात है कि इस घटना के कोई एक कारण नहीं, बल्कि इसके कई कारण हैं. पूरा हिमालय एक मलबे पर बसा है और जोशीमठ भी उसी का एक हिस्सा है. हिमालय की प्रवृत्ति है कि नदियां हमेशा टो काटती हैं, उससे लगातार धंसाव की एक प्रवृत्ति पैदा होती है. जोशीमठ में भी ऐसा ही हुआ. यह भी सत्य है कि जोशीमठ पहले एक गांव हुआ करता था, जो बाद में एक छोटा कस्बा और फिर एक पहाड़ी शहर बनना शुरू हुआ. लेकिन इस दौरान शहरी होने की जो शर्तें होती हैं- जैसे बेहतर ड्रेनेज सिस्टम और एक बेहतर आधार, जिसे एक पहाड़ी शहर के लिए जरूरी समझा जाना चाहिए- हमने उन सबको अनदेखा किया.
इसके साथ ही, विकास के लिए महत्वपूर्ण बहुत सारी योजनाओं की भी शुरुआत की गयी, पर हमने उनके पारिस्थितिकी पहलू पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. स्थानीय स्तर पर भी चूक हुई. लोगों ने अपने घरों, मकानों या व्यापारिक भवनों को बनाना शुरू किया और उसमें भी इस संवेदनशीलता को नहीं समझा गया. जोशीमठ पर आयी इस त्रासदी के लिए ये सभी कारण जिम्मेदार हैं. पर इस घटना से या केदारनाथ या रैणी गांव की घटना से हमें जो सबसे बड़ा सबक लेना है, वह यह कि हमारी विकासीय योजनाएं पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से भी संजीदा होनी चाहिए. यह एक बड़ी प्रक्रिया है. यह सच है कि पहाड़ भी विकास की बाट जोहते रहे हैं और इसी कारण हमने उत्तराखंड राज्य भी मांगा था. पर सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि विकास की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए और किस विधि से विकास होना चाहिए, क्योंकि इसे लेकर हमेशा से चूक होती रही है. और जोशीमठ ने यही एक बड़ा सबक दिया है कि जब यहां का विकास, विकास की प्रक्रिया और विधि पारिस्थितिकी को जोड़कर देखी जायेगी, तभी हम एक बेहतर व स्थायी विकास की तरफ बढ़ पायेंगे.
चमोली जिला प्रशासन की ओर से जारी बुलेटिन के अनुसार, अब तक जोशीमठ के 723 घरों में दरारें आ चुकी हैं, जबकि 86 घरों को डेंजर जोन में चिह्नित किया गया है. इस आपदा के कारण 3,000 परिवार प्रभावित हुए हैं. राज्य के मुख्यमंत्री, पुष्कर सिंह धामी ने कहा है कि प्रभावित 3,000 परिवारों के लिए 45 करोड़ की राशि स्वीकृत की गयी है और पुनर्वास नीति तैयार की जा रही है.
जद में है उत्तराखंड
जोशीमठ में इस समय जो आपदा आयी है, वह बताती है कि उत्तराखंड का यह हिमालयी खंड कितना नाजुक है. जोशीमठ में हो रहे भू-धंसान से यह भी पता चलता है कि मानवीय हस्तक्षेप किस तरह उत्तराखंड और भारत के एक बड़े हिस्से के लिए विनाशकारी परिणाम पैदा कर सकता है. इस राज्य में आने वाली असामान्य मौसमी घटनाएं पहले से ही इस तरह की आपदा की बढ़ती प्रवृत्ति के बारे में संकेत दे रही हैं. असामान्य मौसमी घटनाओं के कारण ही यहां जंगल में आग की घटनाएं (वसंत ऋतु में), हिमस्खलन, आकस्मिक बाढ़ और भूस्खलन की आवृत्ति और आकार में लगातार वृद्धि दर्ज हो रही है.
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हिमालय के हालिया अध्ययन से संकेत मिलता है कि मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन की वजह से 1951 से 2014 की अवधि के दौरान प्रति दशक 0.2 डिग्री सेल्सियस की दर से विश्च की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला और तिब्बत के पठार गर्म हुए हैं.
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उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्र (चार किलोमीटर से अधिक ऊंचाई वाले) लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की दर से गर्म हुए हैं. उच्च ऊंचाई वाले काराकोरम हिमालयी क्षेत्र को छोड़कर, हिमालयी क्षेत्र के कई हिस्सों में हाल के दशकों में हिमनदीय वर्तन (ग्लेशियर रिट्रीट (हिमपात की तुलना में हिमनद की बर्फ का तेजी से पिघलना)) की घटना और सर्दियों में होने वाली बर्फबारी में महत्वपूर्ण गिरावट दर्ज हुई है.
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इक्कीसवीं सदी के अंत तक इस क्षेत्र के 2.6 से 4.6 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने का जो अनुमान जताया गया है, वह हिमपात और हिमनदीय वर्तन को और बढ़ायेगा. जिसका इस क्षेत्र के जल और कृषि क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव देखने को मिलेगा.
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हिमालय के उत्तराखंड वाले भाग में लगभग 900 हिमनद हैं, जिनके दायरे में यहां के भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 2,857 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र आते हैं. इस राज्य के हिमालयी क्षेत्र में घटते हिमनदों ने 2,500 मीटर से ऊपर के क्षेत्रों में भारी तलछट छोड़े हैं. आशंका यह भी है कि जैसे ही जलवायु गर्म होगी असामान्य मौसम की घटनाओं के कारण ये तलछट विनाशकारी बाढ़ का कारण बन जायेंगे.
जोशीमठ के घरों में सबसे पहले 1960 के दशक में दरारें देखने में आयी थीं. जो इस बात का पहला प्रमाण थी कि यहां के पहाड़ों में टूटन आरंभ हो गयी है और उसी समय यह महसूस किया गया कि यह जगह यहां के निवासियों के लिए खतरनाक है. देखते-देखते स्थिति इतनी तेजी से बिगड़ी कि शहर के धंसने के कारणों की पड़ताल के लिए तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने गढ़वाल मंडल के तब के कमिश्नर एमसी मिश्रा की अध्यक्षता में मिश्रा समिति का गठन किया.
इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सात मई, 1976 को पेश की. रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि ‘जोशीमठ रेत और पत्थरों का जमाव है और यह मुख्य चट्टान नहीं है, इसी कारण यह जगह बस्ती बसाने योग्य नहीं है. विस्फोट होने, भारी परिवहन की आवजाही आदि के कारण होने वाले कंपन से यहां के प्राकृतिक कारकों में असंतुलन पैदा हो जायेगा.’ इस शहर को बचाने के लिए इस रिपोर्ट में अनेक सुझाव भी दिये गये थे. अपने सुझाव के तहत समिति ने यहां के शिलाखंडों के विस्फोट पर तत्काल रोक की आवश्यकता जतायी थी. जबकि अन्य सिफारिशों में बारिश के पानी के रिसाव को रोकने के लिए शहर में एक पक्की जल निकासी प्रणाली विकसित करना, ढलानों पर खुदाई से बचना और निर्माण सामग्री को पांच किलोमीटर के आसपास के क्षेत्र में एकत्र कर रखना व भूस्खलन को रोकने के लिए पेड़ों को काटने पर प्रतिबंध लगाना शामिल था.
कुछ दिनों के अंतराल में सौ घरों के दरकने के बाद जब लोगों का इस जगह से पलायन शुरू हुआ, तब चमोली जिला प्रशासन ने इस क्षेत्र को भू-धंसाव क्षेत्र घोषित किया. घरों को छोड़ने को मजबूर लोगों के लिए सरकार ने अंतरिम राहत पैकेज की घोषणा की है. सैटेलाइट तस्वीरों से पता चलता है कि 27 दिसंबर, 2022 से आठ जनवरी, 2023 के बीच 12 दिनों के भीतर जोशीमठ 5.4 सेमी तक धंस चुका है, जबकि अप्रैल से नवंबर, 2022 के बीच इस शहर में 8.9 सेमी तक धंसाव दर्ज किया गया है. यह स्थिति बताती है कि हाल के दिनों में यह शहर बहुत तेजी से नीचे की ओर खिसका है.
रुद्रप्रयाग जनपद के मरोड़ा गांव के लोग भी इन दिनों दहशत में हैं. इस गांव के घरों में भी बड़ी-बड़ी दरारें आ चुकी हैं. जिसका कारण ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन को माना जा रहा है. पौड़ी में भी कई घरों में दरारें आने सेे यहां के लोगों में अफरा-तफरी मची है.
उत्तरकाशी के गांवों पर खतरा
उत्तरकाशी में यमुनोत्री नेशनल हाईवे के ऊपर मौजूद वाडिया गांव पर भी धंसने का खतरा मंडरा रहा है. वर्ष 2013 में आयी आपदा के दौरान यमुना नदी में आये उफान से इस गांव के नीचे कटाव होने लगा था. धीरे-धीरे गांव के घरों में दरारें आने लगीं. इतना ही नहीं, यहां के मस्ताड़ी गांव में भी भू-धंसाव हो रहा है और लोगों के घरों में दरारें आ चुकी हैं. खेत और रास्ते भी लगातार धंस रहे हैं.
जोशीमठ में हो रहे भू-धंसाव पर इन दिनों पूरे देश की निगाहें टिकी हैं, पर यहां से मात्र 82 किलोमीटर दूर कर्णप्रयाग के घरों और सड़कों में पड़ी दरारों पर अभी तक शायद ही किसी का ध्यान गया है. कर्णप्रयाग के दो दर्जन से अधिक घरों की दीवारों में भी दरारें पड़ी हुई हैं, जो पहली बार लगभग एक दशक पहले देखने में आयी थीं. ये दरारें इतनी बड़ी हैं कि इन घरों में रहना खतरे से खाली नहीं है. इसी कारण यहां के लोग घर छोड़ने को मजबूर हो गये हैं. यहां के निवासियों की मानें, तो 2013 में इस इलाके में एक मंडी बनी, उसके बाद से घरों की दीवारों और फर्श पर दरारें दिखनी शुरू हो गयीं. घरों की छतें तक झुकने लगीं. क्षेत्र के निवासियों ने इस परिस्थिति के लिए मंडी के साथ अन्य निर्माण कार्यों को भी जिम्मेदार ठहराया है.
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टिहरी के अटाली गांव में भी लोगों के खेतों और मकानों में दरारें आने लगी हैं. ग्रामीणों की मानें, तो इसका कारण ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन की सुरंग के निर्माण के लिए हो रहे विस्फोट हैं.
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नैनीताल भी अछूता नहीं’: सेंटर फॉर इकोलॉजिकल डेवलपमेंट एंड रिसर्च की मानें, तो पहाड़ी शहर नैनीताल भी जोशीमठ की राह बढ़ रहा है. आबादी के बढ़ने, पर्यटकों की आवाजाही और निर्माण कार्यों के कारण इस शहर पर भू-धंसाव का खतरा मंडरा रहा है.
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पिथौरागढ़ के कई गांवों पर संकट: कुमाऊं क्षेत्र के पिथौरागढ़ जिले में भी नैनीताल की तरह भू-धंसाव के कई मामले सामने आये हैं, विशेषकर भूकंप क्षेत्र-5 में स्थित मुनस्यारी और धारचूला में. धारचूला ब्लॉक के गर्ब्यांग गांव, मुनस्यारी ब्लॉक के तल्ला धूमर और उम्ली-भंडारी गांव के घरों में भी दरारें आ चुकी हैं.
प्रस्तुति: आरती श्रीवास्तव/अभिजीत