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Explainer : कमला और महातिर ने भारत को किया है निराश तो ऋषि से बांधे उम्मीद? जानें क्या कहते हैं एक्सपर्ट

विदेशी सरकारों में भारतवंशियों के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद अमेरिका में कमला हैरिस और मलेशिया में महातिर मोहम्मद ने भारत को निराश किया है. ऐसे में क्या ब्रिटेन में ऋषि सुनक से उम्मीद की जा सकती है?

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 14, 2022 11:12 AM

नई दिल्ली : ब्रिटेन में प्रधानमंत्री के चयन की प्रक्रिया जारी है. इसमें भारतीय मूल के ऋषि सुनक और अटॉर्नी जनरल सुएला ब्रेवरमैन आगे चल रहे हैं. पहले राउंड के चुनाव में ऋषि सुनक ने जीत हासिल कर ली है. ब्रिटेन में ऋषि सुनक और अटॉर्नी जनरल सुएला ब्रेवरमैन में से कोई भी प्रधानमंत्री बनाए जाते हैं, तो यह भारत के लिए सुखद होगा. केवल ब्रिटेन ही नहीं, अमेरिका, त्रिनिदाद एवं टोबैगो, फिजी, सूरीनाम और मॉरिशस समेत विदेशी सरकारों में भी भारतवंशियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है. मगर, सोचने वाली बात यह भी है कि विदेशी सरकारों में भारतवंशियों के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद अमेरिका में कमला हैरिस और मलेशिया में महातिर मोहम्मद ने भारत को निराश किया है. ऐसे में क्या ब्रिटेन में ऋषि सुनक से उम्मीद की जा सकती है? आइए जानते हैं कि एक्सपर्ट क्या कहते हैं…

वाजपेयी सरकार ने शुरू की थी प्रवासी भारतीय दिवस

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के कार्यकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू ने प्रवासी भारतीयों पर अंग्रेजी के अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख लिखा है. इसमें उन्होंने विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों की तीन संभावित भूमिकाओं की चर्चा की है. अपने लेख में उन्होंने लिखा है कि कि करीब दो दशक पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भारतीय प्रवासी समुदाय पर उच्चस्तरीय कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार किया. इसके बाद हर साल ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ मनाने का फैसला किया गया. इस कमेटी के अध्यक्ष एलएम सिंघवी थे. इसके पीछे उद्देश्य प्रवासी भारतीय समुदाय की रचनात्मक आर्थिक, राजनीतिक और जनहितैषी भूमिकाओं की सराहना के साथ उनके योगदान को मान्यता देना था.

ब्रिटेन की राजनीतिक हालात से खुशी है, तो चिंता भी

उन्होंने लिखा है कि सात समंदर पार विदेश में निवास कर रहे प्रवासी भारतीयों की आर्थिक और परोपकारी भूमिकाओं का लगातार सरकारों ने स्वागत किया है. यह राजनीतिक भूमिका है, जो उत्साह और नाराजगी पैदा करती है. यह राजनीतिक भूमिका घर ही नहीं, मेजबान देशों में भी चिंता का विषय बनता जा रहा है. संजय बारू लिखते हैं कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि इस समय भारतीय अधिकारी उम्मीद कर रहे हैं कि ब्राउन स्किन वाले किसी दक्षिण एशियाई के बजाय बोरिस की तरह का कोई शख्स ब्रिटिश प्रधानमंत्री चुना जाएगा.

अमेरिका और कनाडा से भारत ले रहा सबक

डॉ मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू आगे लिखते हैं कि ऋषि सुनक भारतीय मूल के हैं और एक देशभक्त भारतीय के दामाद हैं, लेकिन लिज ट्रुस जैसा कोई शख्स रेस में आगे निकल सकता है. डोसा प्रेमी की तुलना में फिश-एन-चिप ट्रू-ब्लू ब्रिट (पूरी तरह वफादार ब्रिटिश) के माध्यम से यूके से डील करना आसान है. अमेरिका और कनाडा के साथ डीलिंग करते समय यही सबक मिला है.

वहां भारतवंशी अपना ऑडियंस देखते हैं

जब प्रधानमंत्री मोदी ने विदेश में अपने मेगा शो के दौरान प्रवासी भारतीय समुदाय के राजनीतिक हस्तियों की चर्चा की तो उम्मीद की गई कि अपने देश में रहने वाले लोग विदेश में रहने वाले भारतीयों की सफलता और उन्हें मिले सम्मान से उत्साहित होंगे। लेकिन प्रवासी भारतीयों की राजनीति पर कुछ आपको प्यार करेंगे, कुछ लोग प्यार नहीं करेंगे। वैसे भी, कोई मामला देख लीजिए विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के राजनेताओं को अपने घरेलू ऑडियंस को खुश करना होता है, किसी भारतीय को नहीं.

भारतीय हित को लेकर संवेदनशील नहीं हैं कमला हैरिस

संजय बारू ने लिखा है कि अमेरिका के उप-राष्ट्रपति के रूप में कमला हैरिस को घर पर अपने मतदाताओं के लिए बोलना पड़ता है, भले ही इससे भारतीय नाराज क्यों न हो जाएं. इसे इस तरह से समझिए कि हैरिस के भारत से संबंधित किसी भी तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप की हमेशा दो तरीके से व्याख्या की जाएगी यानी अमेरिका और भारत में अलग-अलग. राष्ट्रपति जो बाइडन हमेशा अमेरिकी हितों को बढ़ावा देते रहे हैं, जबकि भारतीय उम्मीद करते हैं कि हैरिस को भारतीयों को लेकर संवेदनशील होना चाहिए. लंदन में हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों को लेकर नई दिल्ली में इसी तरह की चिंता देखी जा सकती है.

प्रवासी भारतीयों से भारत को राष्ट्रीय हित के प्रोत्साहन की उम्मीद

संजय बारू लिखते हैं कि तीन अलग-अलग तरह की राजनीतिक भूमिकाएं हैं, जो भारतीय प्रवासी संभावित रूप से निभा सकते हैं. पहला, विदेश में रहने वाले भारतीय भारत के राष्ट्रीय हितों को प्रोत्साहित कर सकते हैं. यह अमेरिका में 1993 और 2008 के बीच देखा जा चुका है, जब भारतीय अमेरिकियों की राजनीतिक सक्रियता के चलते भारत के राष्ट्रीय हितों के प्रति अमेरिकी संसदीय समर्थन बढ़ता गया. कश्मीर और परमाणु कार्यक्रम से जुड़े मुद्दों पर भारत के लिए सपोर्ट साल दर साल बढ़ता गया और भारतीय अमेरिकियों ने भारत समर्थक लॉबीज की फंडिंग की. इसके चलते आखिर में अमेरिका-भारत असैन्य परमाणु ऊर्जा समझौते के लिए अमेरिका का पूरा सपोर्ट मिला.

मॉरिशस की तरह भूमिका निभा सकते हैं प्रवासी भारतीय

बारू आगे लिखते हैं कि दूसरी राजनीतिक भूमिका जो प्रवासी भारतीय निभा सकते हैं, जब वास्तव में वे अपने मेजबान देशों की सरकार में शामिल हों. इसी वजह से मॉरिशस में भारतीय मूल के लोगों ने इस द्वीपीय देश को भारत का एक महत्वपूर्ण सामरिक साझेदार बनाने में अहम भूमिका निभाई.

मलेशिया में महातिर मोहम्मद ने किया निराश

तीसरे प्रकार की भूमिका भारतीय अधिकारियों को परेशान करती है. वह है, जब प्रवासी भारतीय जरूरत से ज्यादा और कभी-कभी जुनूनी होकर भारत विरोधी हो जाते हैं. मलेशिया का उदाहरण ले लीजिए. भारत के मलेशिया के साथ अच्छे संबंध रहे, जब नजीब अब्दुल रजाक जैसे असली मलय शख्स प्रधानमंत्री थे. वहीं, भारतीय मूल के महातिर मोहम्मद हमेशा जटिल व्यक्ति रहे.

25 देशों की सरकारों में 200 अधिक भारतवंशियों का वर्चस्व

उन्होंने लिखा है कि यह कोई छोटी बात नहीं है कि दुनिया के 25 देशों की राजनीतिक सत्ता में शीर्ष पदों पर भारतीय मूल के 200 से ज्यादा लोग काबिज हैं. इनमें से 10 सरकारों के प्रमुख ही भारतीय मूल के हैं. इस सूची में पुर्तगाल के पीएम एंटोनियो कोस्टा का नाम भी शामिल है. इनमें से कई भारत के तनाव मुक्त मित्र हैं, लेकिन कुछ के लिए भारतीय राजनयिकों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है.

भाषा, धर्म और जाति के नाम पर आपस में बंटे हैं भारतीय प्रवासी

संजय बारू आगे लिखते हैं कि यह सच्चाई है कि देश हो या विदेश, भारतीय समुदाय विविध प्रकार का है। 2019 के हाउडी मोदी ह्यूस्टन इवेंट के लिए सैकड़ों भारतीय अमेरिकी सामुदायिक संगठनों ने फंडिंग की थी. यह समुदाय क्षेत्रीय, भाषायी, धार्मिक और जाति के आधार पर बंटा हुआ है और उनकी राजनीति विभिन्न तरीकों से आगे बढ़ती है, जो अमेरिका-भारत संबंधों को प्रभावित करती है.

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द्विपक्षीय संबंधों की भूमिका पर भारत का ध्यान

द्विपक्षीय संबंधों को आकार देने में प्रवासी भारतीयों की भूमिका पर भारत का ध्यान लगातार बढ़ा है. विकसित देश में प्रवासी भारतीयों की सक्रियता के कारण भारत में मानवाधिकार उल्लंघन की चिंता बढ़ जाती है. कोई भी भारतीय राजनेता जो विदेश में बसे भारतीय मूल के लोगों का ध्यान खींचना चाहता है, उसे उनकी चिंताओं का भी समाधान करना होगा जो कुछ नेताओं के लिए उत्साही नहीं हैं, बल्कि दिल से अपने मूल देश के व्यापक हितों को तवज्जो देते हैं.

कनाडा से भी भारत को मिला है सबक

संजय बारू ने लिखा है कि राजनीतिक रूप से सक्रिय प्रवासी भारतीय समुदायों में कनाडा स्थित ग्रुप ने नई दिल्ली को ज्यादा चिंता में डाला है. एक दिन कनाडा में भारतीय मूल का शख्स प्रधानमंत्री भी हो सकता है. अमेरिका में भारतीय मूल का राजनेता हेड ऑफ स्टेट बनने से थोड़ी ही दूर है. आयरलैंड और पुर्तगाल जैसे देशों में भारतीय मूल के राष्ट्राध्यक्ष नई दिल्ली को चिंता नहीं देते हैं. लंदन का मामला इससे बिल्कुल अलग है.

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