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कोटा : पैरेंट्‌स समझें जीवन अनमोल है, पढ़ाई कभी भी हो सकती है, लेकिन बच्चा अगर डिप्रेशन में गया तो फिर…

आखिर वो बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं जो भविष्य के सुनहरे सपने अपनी आंखों में सजाकर कोटा गए थे. कोई डाॅक्टर बनना चाहता था तो कोई इंजीनियर. फिर इन बच्चों के साथ आखिर ऐसा क्या हुआ कि परिवार वालों को भी भनक नहीं लगी और फिर एक दिन वे अपने बच्चों की लाश को कांधा देते दिखते हैं.

राजस्थान के कोटा शहर में मंगलवार रात को रांची की ऋचा सिन्हा ने अपने हाॅस्टल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. वह लड़की मात्र 16 साल की थी. कोटा शहर में किशोरों द्वारा आत्महत्या की यह 25वीं घटना इस साल सामने आई है. कभी प्रतियोगी परीक्षाओं में छात्र-छात्राओं के बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा कोटा आज किशोरों की आत्महत्या के लिए जाना जा रहा है. कोटा शहर की परिस्थितियां काफी अलग हो गई है, जो काफी हद तक अलार्मिंग और डराने वाली है. इस साल कोटा से कुल 25 छात्र-छात्राओं के आत्महत्या की सूचना सामने आई है. आत्महत्या करने वाले ये तमाम बच्चे वहां नीट या जेईई मेंस की तैयारी के लिए गए थे.

डिप्रेशन की वजह क्या है?

जब कोई बच्चा या बच्ची आत्महत्या करता है, तो परिवार वाले और प्रशासन हरकत में आते हैं, लेकिन यहां सवाल यह है कि आखिर वो बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं जो भविष्य के सुनहरे सपने अपनी आंखों में सजाकर कोटा गए थे. कोई डाॅक्टर बनना चाहता था तो कोई इंजीनियर. फिर इन बच्चों के साथ आखिर ऐसा क्या हुआ कि परिवार वालों को भी भनक नहीं लगी और फिर एक दिन वे अपने बच्चों की लाश को कांधा देते दिखते हैं. जानकारों का कहना है कि बच्चा डिप्रेशन में था. आखिर 16 -17 साल की उम्र में एेसी कौन सी चिंता रहती है, जिसके दबाव में बच्चा डिप्रेशन में चला जाता है, यह जानने के लिए हमने रांची के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डाॅ पवन वर्णवाल से बातचीत की. इस बातचीत में जो जानकारी सामने आई, वो ना सिर्फ चौंकाने वाली है, बल्कि पूरे समाज पर सवालिया निशान खड़े करती है.

सुख की चाह में करते हैं सुसाइड

डाॅ पवन वर्णवाल का कहना है कि आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह है डिप्रेशन. कोई भी इंसान जब आत्महत्या करता है तो उसके पीछे वजह होता है डिप्रेशन. कोई भी इंसान तब सुसाइड करता है, जब उसे यह महसूस होता है कि उसके जीवन में अब कुछ नहीं बचा. उसके लिए तमाम रास्ते बंद हो चुके हैं. इन परिस्थितियों में सुख की चाह में वे आत्महत्या का रास्ता अपनाते हैं, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि आत्महत्या से उनके दुखों का अंत हो जाएगा.

आत्महत्या के ख्याल मन में आते रहते हैं

जहां तक बात सुसाइड करने की प्रवृत्ति की है, तो मैं यह बताना चाहता हूं कि कोई भी इंसान एक दिन में आत्महत्या नहीं करता है. आत्महत्या की सफल कोशिश से पहले उसके मन में कई बार इस तरह के ख्याल आते हैं. वह आत्महत्या के बारे में लगातार सोचता रहता है. बहुत संभव है कि वह आत्महत्या की असफल कोशिश भी कर चुका हो. कहने का अर्थ यह है कि आत्महत्या एक दिन में किया जाने काम नहीं है कि किसी व्यक्ति ने अभी सोचा और अभी जाकर आत्महत्या कर ली. वह इसके लिए महीनों से प्लानिंग करता है और उसके पश्चात वह अंतिम निर्णय करता है. निश्चित तौर पर उसे ऐसा प्रतीत होता है कि अब कोई रास्ता नहीं बचा है, तब वह आत्महत्या करता है.


आत्महत्या और मानसिक स्थिति

कोटा में इस साल जिस तरह की घटनाएं सामने आई हैं, उनमें ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं जो एक साल या कुछ महीनों पहले कोटा जाकर नीट या जेईई मेंस की तैयारी कर रहे थे. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या इतने कम समय में भी किसी किशोर या किशोरी की मानसिक स्थिति एेसी हो जाती है कि वह आत्महत्या कर ले? इसका जवाब देते हुए डाॅ पवन वर्णवाल कहते हैं कि जो भी छात्र या छात्रा आत्महत्या करते हैं, उसके पीछे वजह एक दिन में नहीं बनती है. आप देखेंगे कि वह बच्चा जब अपने घर में था तब भी परिस्थितियां कुछ ऐसी रही होंगी कि बच्चा डिप्रेशन में चला जाता है. उसके दिमाग में कईऐसी बातें चलती रहती हैं. जहां तक बात समय का है तो आपके लिए यह जानना जरूरी है कि पांच-छह महीने का समय किसी भी व्यक्ति को परेशान करने के लिए पर्याप्त है. वह इतने कम समय में अपनी परिस्थितियों से परेशान हो सकता है. उनकी पर्सनालिटी ही कुछ अलग होती है, उनके अंदर दबाव झेलने की क्षमता कम होती है और यही वजह है कि कुछ महीनों में ही वे सुसाइड जैसा कदम उठा लेते हैं.

सुसाइड की वजह

कोई भी इंसान सुसाइड यूं ही नहीं करता है, उसके पीछे पूरी हिस्ट्री होती है. अगर हम उन बच्चों की जानकारी लेंगे तो हमें पता चलेगा कि बच्चों के हालात शुरू से ही ऐसे रहें कि बच्चा सुसाइड जैसा कदम उठा लेता है. इनमें सबसे प्रमुख है-उनके परिवार का वातावरण. अकसर एेसा होता है कि बच्चे के परिवार का माहौल बहुत ही तनावपूर्ण होता है, जिसकी वजह से बच्चा खुश नहीं रहता है और हमेशा स्ट्रेस में रहता है. दूसरा प्रमुख कारण है परिवार का स्ट्रक्चर. अगर बच्चे के परिवार के स्ट्रक्चर में समस्या होगी तो उसका असर बच्चे पर भी पड़ेगा. कई बार फैमिली में सुसाइड का हिस्ट्री होता है. तीसरी वजह है बच्चे पर पढ़ाई का अत्यधिक बोझ और चौथी और अहम वजह है प्रेम प्रसंग. किशोरावस्था में बच्चे का दिमाग मैच्योर नहीं होता है. एेसे में जब बच्चा प्रेम प्रसंग में असफल होता है या उसका साथी किसी और के साथ चला जाता है तो उसके लिए जीना मुश्किल हो जाता है.

पैरेंट्‌स की अपेक्षाएं बच्चों पर डालती है निगेटिव प्रभाव

पांचवीं और अहम वजह है पैरेंट्‌स की अपेक्षाएं. हर माता-पिता यह चाहते हैं कि उनका बच्चा अपने जीवन में सफल हो और एक बेहतर जीवन जीए. लेकिन कई बार माता-पिता की अपेक्षाएं बच्चों पर भारी पड़ती हैं. मसलन अगर बच्चे को विज्ञान में रुचि नहीं है तो वो कैसे इंजीनियरिंग या मेडकल की पढ़ाई करेगा? ऐसे में जब बच्चा मां-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कोचिंग में दाखिल ले लेता है और उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाता है, तो वो भयंकर रूप से डिप्रेशन में चला जाता है और कई बार आत्महत्या की कोशिश करता है. बच्चे पर सामाजिक-आर्थिक स्थिति का प्रभाव भी पड़ता है. अगर बच्चा यह देखता है कि उसके माता-पिता काफी संघर्ष कर उसे पढ़ा रहे हैं और वह उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है तो वो परेशान रहने लगता है और फिर वह डिप्रेशन में चला जाता है.बच्चे का दिमाग बहुत लचीला होता है, कोई भी मां-बाप अपने बच्चों पर जान-बूझकर दबाव नहीं डालते,लेकिन बच्चा इन सारी चीजों को समझ नहीं पाता है और वह परेशान हो जाता है. उसके दिमाग में निगेटिव चीजें चलने लगती हैं.

बच्चा हो जाता है अकेला

पढ़ाई के लिए घर से दूर जाने वाले कुछ बच्चों का कहना है कि वे दिनभर पढ़ाई से भरी दिनचर्या, कदम-कदम पर प्रतिस्पर्धा, बेहतर करने के नियमित दबाव और परिजनों की उम्मीदों के बोझ तले दबकर खुद को अक्सर अकेला पाते हैं और अपनी भावनाओं को साझा करने के लिए उनके साथ कोई भी शख्स मौजूद नहीं होता है. कई बार उनके माता-पिता उनसे यह कहते हैं कि ज्यादा दोस्ती मत करो ये तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य से भटका देंगे, एेसे में बच्चा पूरी तरह अकेला हो जाता है. कोचिंग संस्थानों में दोस्ती का कोई सिद्धांत नहीं होता है, वहां सिर्फ कंपीटिटर होते हैं. आपके बगल में बैठे हर छात्र को एक अतिरिक्त प्रतिस्पर्धी के रूप में देखा जाता है, जिससे आपको मुकाबला करना है. स्कूल और कॉलेज जैसा नहीं है, कोई भी यहां नोट्स आपके साथ साझा नहीं करता क्योंकि हर कोई आपको एक खतरे के तौर पर देखता है जो पसंदीदा कॉलेज की आपकी सीट छीन सकता है. इन परिस्थितियों में बच्चे परेशान रहते हैं और जो इन चीजों को बर्दाश्त नहीं कर पाते वे डिप्रेशन में चले जाते हैं.

बच्चों को समझें और उन्हें समय दें अभिभावक

बच्चों के दिमाग पर किसी तरह का दबाव ना हो और वे अच्छे से अपना जीवन जी सकें, इसकी शुरुआत परिवार से ही होती है. बच्चों को उसके माता-पिता से अधिक कोई नहीं समझता है. इसलिए यह जरूरी है कि माता-पिता अपने बच्चों को समय दें. उनकी जरूरतों को समझें, उनसे अपेक्षा रखें, लेकिन उनकी क्षमता के अनुसार. अगर अभिभावक अपने बच्चे को बाहर पढ़ने भेजते हैं तो उनकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. उन्हें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे को अकेलापन ना महसूस हो. बच्चे से नजदीकी बनाकर रखें. उनसे फोन पर बात करें, उनसे मिलने जाएं, ताकि बच्चे को लगे कि परिवार का पूरा सपोर्ट उनके साथ है, वे अकेले नहीं है, तभी वे अपनी बात परिवार में शेयर करेंगे और अलग-थलग नही रहेंगे. कोचिंग संस्थान की भी यह जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को समझें उनपर ध्यान दें. अगर कोई बच्चा परेशान है तो उसकी समस्या का निराकरण करें और अगर ऐसा होता नजर नहीं आता है तो उसके परिजनों से बात करें और बच्चे का तुरंत इलाज कराएं. उसकी काउंसिलिंग कराएं. बच्चों के दोस्तों और टीचर से बात करें, ताकि बच्चे को उचित और समय पर इलाज मिल सके. डाॅ पवन वर्णवाल का कहना है कि अगर अभिभावकों को यह लगता है कि उनके बच्चे में किसी भी तरह के निगेटिव कारक दिख रहे हैं तो उन्हें तुरंत अपने बच्चे का इलाज कराना चाहिए और अगर कोई फायदा नहीं होता है, तो उन्हें अपने बच्चे को कोचिंग से वापस ले आना चाहिए, क्योंकि लाइफ सेविंग सबसे जरूरी है. पढ़ाई तो कभी भी कहीं भी हो सकती है, लेकिन जीवन अनमोल है.

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