Living Planet Report 2020 : संकट में है जीवों का अस्तित्व, पांच दशक में 68 प्रतिशत जैव-विविधता नष्ट
मानवीय गतिविधियों और विकास की अंधी दौड़ ने पृथ्वी पर हजारों-लाखों वर्षों से मौजूद अनगिनत जीव-जंतुओं के जीवन को संकट में डाल दिया है. हाल में वर्ल्ड वाइड फंड फाॅर नेचर द्वारा जारी लिविंग प्लैनेट-2020 रिपोर्ट 68 प्रतिशत जैव-विविधता के नष्ट होने का दावा करती है, जो भविष्य के भयावह संकट की मुनादी है.
भारत में भी जैव-विविधता के समक्ष गंभीर संकट है. यहां के वनों में रहनेवाले 12 प्रतिशत स्तनधारी और तीन प्रतिशत पक्षियों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. जबकि, 19 प्रतिशत उभयचर गंभीर खतरे में हैं. यहां के 14 से 20 नदी बेसिन पहले से ही दबाव में हैं, वहीं वर्ष 2030 तक पानी की मांग दोगुनी हो जाने की संभावना है. इससे मीठे जल में रहनेवाले जीवों पर बहुत ज्यादा जोखिम मंडरा रहा है. बीते चार दशकों में, यहां की एक तिहाई दलदली भूमि भी समाप्त हो गयी है. कुल मिलाकर, भारत की स्थिति बहुत भयावह है.
लैटिन अमेरिका और कैरेबियन, क्षेत्र में सर्वाधिक गिरावट : लिविंग प्लैनेट इंडेक्स लगभग 21,000 स्तनधारियों, पक्षियों, मछलियों, सरीसृपों और उभयचरों पर नजर रखता है. बीते पांच दशकों में क्षेत्रीय आधार पर इन जीवों के विनष्ट होने की संख्या में व्यापक अंतर देखा गया है. जीवों की विभिन्न प्रजातियों की संख्या में 94 प्रतिशत की सर्वाधिक गिरावट लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र में देखने को मिली है. एशिया-पैसिफिक में 45 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है. वहीं अफ्रीका की 65, उत्तरी अमेरिका की 33 व यूरोप और मध्य एशिया की 24 प्रतिशत प्रजातियों पर विलुप्त होने का संकट उत्पन्न हो गया है.
मीठे पानी के प्रजातियों पर गंभीर संकट : मीठे पानी में रहनेवाले जीवों पर विलुप्त होने का गंभीर खतरा मंडरा रहा है. बीते पांच दशकों में, इन जलीय जीवों की संख्या में औसतन 84 प्रतिशत की कमी आयी है, जो 1970 के बाद से प्रतिवर्ष चार प्रतिशत के बराबर है. मीठे पानी में रहनेवाले जीवों में सबसे ज्यादा कमी उभयचरों, सरीसृपों और मछलियों की संख्या में आयी है. लगभग तीन में से एक प्रजाति पर विलुप्ति का खतरा है. इसका कारण नदियों में प्रदूषण, उनकी धारा को मोड़ना, अत्यधिक दोहन, बालू खनन आदि कारणों से जीवों के आवास में कमी आयी है, जिससे अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है.
कीट-पतंगे भी नहीं हैं सुरक्षित : मानवीय गतिविधियों के कारण बाघ, पांडा और पोलर बीयर जैसी प्रजातियों की संख्या में तो कमी आयी है. साथ ही लाखों छोटे जीव-जंतुओं पर विनष्ट होने का खतरा आ गया है. धरती के भीतर और पेड़-पौधों पर रहनेवाले जीव, कीट-पतंगे, जो धरती पर जीवन के लिए बहुत सहायक हैं, उनका जीवन भी अब सुरक्षित नहीं रह गया है. जैव-विविधता का नष्ट होना खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है.
85 प्रतिशत आर्द्रभूमि खत्म : औद्योगिक विकास से वनों, घास के मैदानों, दलदली भूमि और दूसरे अन्य महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के नष्ट होने की गति तेज हुई है. धरती की 75 प्रतिशत बर्फ रहित भूमि में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ गया है, महासागर प्रदूषित हो गये हैं और 85 प्रतिशत से अधिक आर्द्र यानी दलदली भूमि खत्म हो चुकी है. पारिस्थितिकी तंत्र के इस विनाश से 10 लाख प्रजातियों, जिनमें पांच लाख पशु व पौधे और पांच लाख कीटों के विलुप्त होने का डर है. लेकिन, यदि हम प्रकृति का संरक्षण और उसकी पुनर्स्थापना करते हैं, तो इनमें से कई जीवों को बचाया जा सकता है.
प्राकृतिक पूंजी में 40% की कमी : हमारी वैश्विक खाद्य प्रणाली में पूर्व की तुलना में अधिक बदलाव आ रहा है. हमारी अर्थव्यवस्था प्रकृति में अंतर्निहित है, इसे जानने के बाद ही हम जैव-विविधता की रक्षा और वृद्धि कर सकते हैं. हमें पौधे, मिट्टी, खनिज जैसी प्राकृतिक पूंजी के मूल्य को पहचानना होगा. किसी देश को समृद्ध बनाने में वहां की प्राकृतिक और मानवीय पूंजी (सड़कें, कौशल) महत्वपूर्ण होती है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के आंकड़े बताते हैं कि 1990 के दशक से प्रति व्यक्ति, प्राकृतिक पूंजी के वैश्विक भंडार में 40 प्रतिशत की कमी आयी है. जबकि, उत्पादित और मानव पूंजी में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
शहरीकरण ने 50 वर्षाें में बदल दी दुनिया : बीते 50 वर्षाें में वैश्विक व्यापार, उपभोग और जनसंख्या वृद्धि के साथ तेज गति से शहरीकरण ने दुनिया को बदल दिया है. वर्ष 1970 तक, मनुष्यों द्वारा प्राकृतिक पूंजी की मांग पृथ्वी के पुनरुज्जीवन दर की तुलना में छोटी थी. लेकिन 21वीं सदी में, अपने भोजन और ईंधन के लिए हम धरती की जैव क्षमता का अत्यधिक उपभोग कर रहे हैं, (कम-से-कम 56 प्रतिशत). इन गतिविधियों के कारण प्रकृति का बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा है. जलवायु परिवर्तन उसमें और तेजी ला रहा है.
बड़े प्राणियों को अधिक खतरा : पूरी दुनिया में बड़े शारीरिक आकार वाले प्राणियों यानी मेगाफौगा के अस्तित्व पर, छोटे प्राणियों की तुलना में ज्यादा खतरा है. ये पर्यावरण में होनेवाले परिवर्तनों के साथ खुद को बहुत कम बदल पाते हैं, क्योंकि आवास के लिए इन्हें जटिल और बड़ी जगह की जरूरत होती है. इनमें प्रजनन प्रक्रिया देर से शुरू होती है और इनकी संतति की संख्या भी कम होती है. मीठे जल में मेगाफौना यानी बड़े आकार के प्राणियों की वृद्धि 30 किलो तक अधिक होती है, जैसे स्टर्जन और मेकांग जाएंट कैटफिश, नदी में रहनेवाली डाॅल्फिन, हिप्पाॅस, वीवर्स, ओटर आदि.
इन प्राणियों के अत्यधिक शिकार और मानवजनित गतिविधियों के कारण इनकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है. मेकांग नदी बेसिन में मछली के शिकार के कारण सन 2000 से 2015 के बीच इनकी संख्या में 78 प्रतिशत तक की कमी आयी है. बांध के निर्माण से भी बड़ी मछलियां ज्यादा प्रभावित होती हैं. इससे प्रवास मार्ग के साथ-साथ अंडा देने और भोजन तलाशने के स्थान अवरुद्ध हो जाते हैं. मीठे जल की प्रजातियों की रक्षा के लिए सीमा-पार सहयोग की आवश्यकता है.
दुनियाभर में गरीब होंगे सबसे अधिक प्रभावित : जैव-विविधता मानव समाज की नींव है. संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों से अनुरोध किया है कि वे जैव-विविधता और लुप्त होने की कगार पर पहुंची प्रजातियों को बचाने का प्रयास करें. विश्व के लगभग 84.4 करोड़ लोगों के पास स्वच्छ पानी की सुविधा नहीं है. दुनियाभर के 80 प्रतिशत लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, जिनमें से अधिकतर आजीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं. जैव-विविधता में कमी आना मानव जीवन के लिए खतरनाक है.
खासकर हाशिये पर जी रहे लोगों को यह सबसे अधिक प्रभावित करेगा. जैव-विविधता स्वच्छ हवा, पानी, मिट्टी और खाद्य उत्पादन को बढ़ावा देती है और स्थिर जलवायु का निर्माण करती है, जो मानव जीवन के लिए अनिवार्य है. इस जैविक जाल की आवश्यकता उन्हें सबसे अधिक महसूस होती है, जिन्हें पीने के पानी के लिए जमीन तक खोदनी पड़ती है.
जीव और जैव-विविधता के बीच ‘स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा’ का संबंध है. जिसे हाल ही में आयी लिविंग प्लैनेट की रिपोर्ट ने भी रेखांकित किया है. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की शीर्ष वैज्ञानिक रेबेका शॉ का कहना है कि प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर प्रजातियों को जैव-विविधता में हुई हानि सबसे ज्यादा प्रभावित करेगी. जलवायु परिवर्तन ने गरीब आबादी को सबसे अधिक प्रभावित किया है.
मनुष्य का स्वास्थ्य होगा प्रभावित : रिपोर्ट को लेकर रेबेका शॉ का कहना है, ‘पशु हमारे पर्यावरणीय तंत्र की रीढ़ हैं तथा उनकी संख्या में आयी गिरावट इस बात का संकेत है कि हमारे ग्रह तथा मानवता के दीर्घकालिक स्वास्थ्य का ह्रास हो रहा है.’ पौधे, जानवरों की तुलना में तेजी से विलुप्त हो रहे हैं, साथ ही मिट्टी की गुणवत्ता में भी तेजी से गिरावट आ रही है. सबसे अधिक गिरावट अमेरिका के उष्ण-कटिबंधीय उप-भागों में दर्ज की गयी है.
मानव गतिविधियां जिम्मेदार : पिछली एक सदी में, अमेजन की लगभग 20 प्रतिशत सतही जमीन विलुप्त हो गयी है. जंगलों को जलाया जा रहा है, पालतू पशुओं को जंगल में चरने के लिए छोड़ा जा रहा है, जंगलों को काटकर पक्की सड़कें बनायी जा रही हैं, खनिजों और जीवाश्म-ईंधनों की निकासी के लिए विस्फोट किये जा रहे हैं, जिस कारण वातावरण प्रदूषित हो रहा है. यह सब कुछ प्रमुख कारण हैं, जिनके कारण जैव-विविधता नष्ट हुई है.
जैव-विविधता नष्ट होने से बढ़ा विस्थापन : अमेजन समेत कई अन्य वन क्षेत्रों में रहनेवाले सैकड़ों समुदाय तेजी से विस्थापित हो रहे हैं. कांगो बेसिन में भी वनों की तेजी से कटाई हो रही है. इससे 8 करोड़ लोगों की आजीविका खतरे में है. ये लोग भोजन और पानी के लिए इन वनों पर निर्भर हैं. बोर्नियो वर्षावन से भी स्वदेशी प्रजातियां विस्थापित हो रही हैं. यदि हम वेटलैंड्स को देखें, जो कि खारे पानी और मीठे पानी का संलयन है और पृथ्वी का सबसे उपजाऊ और दुर्लभ पारिस्थितिकी तंत्र है. रिपोर्ट के अनुसार, साल 1700 के बाद मानव गतिविधि के कारण 85 प्रतिशत से भी अधिक वेटलैंड्स नष्ट हो गये हैं. इससे मानव-जीवन सीधे तौर पर प्रभावित हुआ है.
पांच दशक में 68 प्रतिशत जैव-विविधता नष्ट
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वर्ल्ड वाइड फंड फाॅर नेचर ने लिविंग प्लैनेट-2020 रिपोर्ट जारी की है. जैव-विविधता के उभरते संकट को लेकर यह चिंतित करनेवाली है.
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बीते पांच दशकों में (1970 से लेकर 2016 तक), वैश्विक स्तर पर स्तनधारियों, पक्षियों, उभयचरों, सरीसृपों और मछलियों की औसतन 68 प्रतिशत प्रजातियां नष्ट हो गयीं.
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बीते पांच दशक में, प्रत्येक 10 जैव-विविध प्रजातियों में से सात का विनाश हो गया.
सर्वनाश की ओर बढ़ती दुनिया : पिछले कुछ वर्षों में आयी पर्यावरण संबंधी कई रिपोर्टों में, मानव जीवन के अनुकूल पर्यावरण में आयी लगातार गिरावट को रेखांकित किया गया है. कुछ ही वर्षों में, समुद्रों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा मछलियों से ज्यादा हो जायेगी. उपजाऊ जमीन तेजी से बंजर होती जा रही है. समुद्र में अम्ल की मात्रा तेजी से बढ़ रही है तथा ध्रुवीय क्षेत्रों में गर्म हवाएं बहुत तेजी से बढ़ रही हैं.
लिविंग प्लेनेट की रिपोर्ट के अनुसार, मानव के पास अभी भी समय है कि वह इस चुनौती से पार पा सकता है. मानव और प्रकृति के बीच जो जुड़ाव मनुष्य के आर्थिक फायदों के कारण टूट गया है, यदि मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम कर दें, तो धरती अपने को पुनर्जीवित कर सकती है.
Post by : Pritish Sahay