नयी दिल्ली : इतिहासकार और अर्थशास्त्री रामचंद्र गुहा का कहना है कि कोरोना वायरस से निपटने के लिए लागू लॉकडाउन के कारण लाखों गरीब लोग जिस संकट से जूझ रहे हैं, वह भारत में बंटवारे के बाद ‘सबसे बड़ी मानव निर्मित त्रासदी’ है.
उन्होंने कहा कि देश के अन्य लोगों पर भी इस संकट के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक परिणाम देखने को मिलेंगे. गुहा ने कहा कि यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन लागू करने से पहले प्रवासी श्रमिकों को अपने घर लौटने के लिए एक सप्ताह का समय दिया होता तो इस त्रासदी को टाला या कम किया जा सकता था.
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उन्होंने ‘पीटीआई भाषा’ को दिए साक्षात्कार में कहा, ‘यह संभवत: बंटवारे जितना बुरा नहीं है. उस समय भयावह साम्प्रदायिक हिंसा भी थी. फिर भी यह बंटवारे के बाद भारत में सबसे बड़ी मानव निर्मित त्रासदी है.’ देश में 25 मार्च को लागू किए गए लॉकडाउन को तीन बार बढ़ाया जा चुका है.
‘रिडीमिंग द रिपब्लिक’ और ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ जैसी किताबों के लेखक गुहा ने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री ने जो फैसला किया, वह उन्होंने कैसे किया. क्या उन्होंने जानकार अधिकारियों से विचार-विमर्श किया या कैबिनेट मंत्रियों से सलाह ली? या उन्होंने एकतरफा फैसला किया?’ उन्होंने कहा कि यदि अब भी प्रधानमंत्री विपक्ष में मौजूद लोगों सहित विभिन्न जानकार लोगों से सलाह लेने का नजरिया अपनाते हैं तो हालात में ‘थोड़ा’ सुधार किया जा सकता है.
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गुहा ने कहा, ‘लेकिन मुझे आशंका है कि वह ऐसा नहीं करेंगे. उनके कैबिनेट मंत्री केंद्र के पैदा किए संकट से बचने के लिए राज्यों पर जिम्मेदारी डालने में व्यस्त हैं.’ लॉकडाउन लागू होने के बाद लाखों प्रवासी श्रमिक सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर स्थित अपने गृहराज्यों के लिए पैदल या साइकिलों से ही निकल पड़े थे और यह सिलसिला लॉकडाउन लागू होने के दो महीने बाद भी जारी है.
गुहा ने कहा कि इस त्रासदी के तीन आयाम हैं-सार्वजनिक स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था एवं समाज. उन्होंने कहा, ‘यदि प्रवासियों को मध्य मार्च में घर जाने की अनुमति दी जाती, उस समय कोविड के कुछ ही मामले थे, तो वे सुरक्षित अपने समुदायों में मिल जाते. अब उनमें से इतने अधिक लोग संक्रमित हो गए हैं कि वे बीमारी का वाहक बन गए हैं.
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गुहा ने कहा, ‘अर्थव्यवस्था वैश्विक महामारी से पहले ही संकट में थी और अब यह ध्वस्त होने की कगार पर है.’ उन्होंने कहा, ‘सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आयाम भी अहम हैं. जो प्रवासी श्रमिक इतनी मुश्किलों के बाद अंतत: घर पहुंचे हैं, वे काम की तलाश में अब शहरों और कारखानों में नहीं लौटना चाहेंगे.