Lok Sabha Elections: 2024 के चुनाव का क्या रिजल्ट होगा? अगर हम परसेप्शन और आंकड़ों पर गौर करें, तो कुछ तथ्य हमारे समाने आते हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि कौन-सी पार्टी मजबूत स्थिति में है. हकीकत बयां करने के लिए अगर आंकड़ों पर भरोसा करेंगे तो गलती कम होगी, क्योंकि परसेप्शन कई बार गलत साबित हो चुका है, जबकि डेटा सही होता है. ये बातें प्रोफेसर संजय कुमार (चुनाव विश्लेषक. सह निदेशक लोकनीति ,सीएसडीएस) ने गुरुवार को प्रभात खबर संवाद 2024 में कही.
चुनाव का विश्लेषण परसेप्शन पर ना करें
प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा कि चुनाव और उसके परिणामों का विश्लेषण कभी भी परसेप्शन के आधार पर नहीं करना चाहिए. परसेप्शन कई बार आंकड़ों के विपरीत होते हैं, इसलिए अगर आप चुनाव का विश्लेषण कर रहे हैं, तो हमेशा आंकड़ों पर भरोसा करें.
उदाहरण से बताया चुनाव परिणामों का हाल
उन्होंने कुछ आंकड़ों का जिक्र करते हुए अपनी बातों को पुख्ता किया और बताया कि 2018 के मध्य प्रदेश चुनाव में कांग्रेस ने दावा किया कि नोटा की वजह से उनके प्रत्याशी चुनाव हारे, जबकि सच्चाई इससे इतर थी.
2020 बिहार विधानसभा चुनाव भी है एक उदाहरण
इसी तरह एक उदाहरण 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव है, जहां यह दावा किया जा रहा था कि जदयू को उन सीट पर जीत दिला दी गई, जहां मार्जिन बहुत कम था, जबकि सच्चाई इससे इतर थी. 1000 से कम वोट से जीत का जहां मार्जिन था, इस तरह की चार सीटें यूपीए के खाते में थीं, जबकि एनडीए के खाते में ऐसी सीट पांच थीं.
तृणमूल को मिली 36 सीट पर जीत
वहीं, 2021 के बंगाल चुनाव में कहा गया कि बीजेपी को दलितों का साथ नहीं मिला और वे तृणमूल कांग्रेस के साथ गए हैं, जबकि आंकड़ों की मानें तो प्रदेश में 88 अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व सीटें हैं, जिनमें से 36 पर टीएमसी और 32 पर बीजेपी को जीत मिली. वोट शेयर की बात करें तो बीजेपी को 55 प्रतिशत और तृणमूल को 36 प्रतिशत वोट मिले.
‘इंडिया’ गठबंधन एनडीए को देगा चुनौती?
प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा कि अपने देश में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब आप यह देखेंगे कि परसेप्शन पर आंकड़े भारी पड़ गए. अब जबकि लोकसभा चुनाव की तारीख कुछ ही दिनों में घोषित हो सकती है, दो-तीन सवाल सबके मन में हैं और जिनपर चर्चा भी जोर-शोर से हो रही है. पहला सवाल यह है कि क्या ‘इंडिया’ गठबंधन एनडीए को चुनौती देने की स्थिति में है? दूसरा यह कि वाजपेयी सरकार भी बहुत लोकप्रिय थी, लेकिन वह 2004 का चुनाव हार गई थी.
Lok Sabha Elections 2024: क्यों हो रही है 2004 और 2024 के चुनाव की तुलना
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि 2004 और 2024 के लोकसभा चुनाव की तुलना इसलिए हो रही है कि कुछ परिस्थितियां एक सी हैं. मसलन वाजपेयी जी बहुत ही लोकप्रिय नेता थे. उसी तरह नरेंद्र मोदी भी बहुत लोकप्रिय नेता हैं. उस वक्त भी इस तरह की धारणा थी कि बीजेपी को कोई हरा नहीं सकता और आज भी इसी तरह की धारणा है. उस वक्त भी सत्ता में बीजेपी थी और इस साल भी बीजेपी है. विपक्ष में कांग्रेस थी और आज भी कांग्रेस है.
2024 का चुनाव क्यों है अलग?
लेकिन इन आंकड़ों से इतर भी कुछ आंकड़ें हैं जो 2004 और 2024 के आंकड़े को अलग करते हैं. 2004 के चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी काफी लोकप्रिय नेता थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता उतनी नहीं थी जितनी नरेंद्र मोदी की है. नरेंद्र मोदी को 43 प्रतिशत जनता पीएम के रूप देखना चाहती है, जबकि वाजपेयी जी को 38 प्रतिशत जनता पीएम के रूप में देखना चाहती थी. सोनिया को 26 प्रतिशत जनता पीएम के रूप में देखना चाहती थी, जबकि राहुल को 27 प्रतिशत जनता पीएम के रूप में देखना चाहती है. कांग्रेस के पास 2004 में 114 सीट थी जबकि आज 52 सीट है, जबकि बीजेपी के पास आज 303 सीट है, जबकि उस वक्त 182 थी. 2004 में इंडिया गठबंधन की सरकार 14 राज्यों में थी जबकि आज नौ राज्यों में है. वहीं बीजेपी की आज 18 राज्यों में सरकार है जबकि उस वक्त 6 राज्यों में थी. वोट प्रतिशत बीजेपी का आज 37.36 है, जबकि 2004 में 23.75 प्रतिशत था. यानी बीजेपी के जनाधार पर अगर गौर करें तो हमें भारी फर्क नजर आता है. कांग्रेस ने जिस तरह अपने जनाधार को खोया है, उसे पाटना बहुत मुश्किल है.
ये आंकड़ें बीजेपी के पक्ष में
कुछ और आंकड़ें हैं जो बीजेपी के पक्ष में जाते हैं. मसलन 1999 में 16 प्रतिशत बीजेपी के साथ थे जो आज 36 प्रतिशत हो गए हैं. ग्रामीण इलाकों में पहले बीजेपी को 22 प्रतिशत समर्थन था अब 38 प्रतिशत है. ओबीसी का समर्थन पहले 20 प्रतिशत था अब 44 प्रतिशत है. एसटी का समर्थन पहले 22 प्रतिशत था, जो अब 44 प्रतिशत है. वहीं एससी अब बीजेपी के साथ 33 प्रतिशत है, जो 1999 में 14 प्रतिशत है. कुल वोट शेयर 1999 में 24 प्रतिशत था, जबकि 2019 में 37 प्रतिशत था.
एक्जिट पोल सच के करीब होता है
संजय कुमार ने ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल की सत्यता पर बात करते हुए कहा कि एक्जिट पोल के सच होने की संभावना सबसे अधिक है, बावजूद इसके कई बार यह फेल हो जाता है. वजह यह है कि कोई भी पोल वोट के प्रतिशत के आधार पर अपना अनुमान बताता है, जबकि अपने देश में वोट प्रतिशत और जीते हुए सीट में काफी अंतर होता है. उदाहरण के लिए यूपी इलेक्शन पर ध्यान दें तो 1996 में बीजेपी को 33 प्रतिशत वोट मिले थे और उसे 160 सीट मिला था, जबकि 2012 में समाजवादी पार्टी को 29 प्रतिशत वोट पर 224 सीट मिले थे. वहीं 2014 में बीएसपी को 20 प्रतिशत वोट मिलने के बाद भी एक भी सीट नहीं मिली. ओपिनियन पोल जिस वक्त किया जाता है, वह उसी वक्त के ट्रेंड को बताता है अगर एक महीने पहले किया पोल है तो वह अब परिस्थितियों के अनुसार सटीक नहीं भी हो सकता है.
हिंदुत्व का नहीं, राष्ट्रवाद का चुनाव
संजय कुमार ने कहा कि मेरा यह मानना है कि 2014 और 2019 के चुनाव को मैं हिंदुत्व का चुनाव नहीं मानता हूं. यह चुनाव विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर लड़े गए थे, जबकि 2024 का चुनाव भी राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ा जाएगा, लेकिन इसमें हिंदुत्व बहुत बड़ा फैक्टर होगा.
चुनाव सुधार जरूरी
देश में चुनाव सुधार पर बात करते हुए संजय कुमार ने कहा कि इसकी सख्त जरूरत है. चुनाव में पारदर्शिता की जरूरत है. सबसे पहले तो यह जरूरी है कि हम दलबदल करने वालों को रोकें. मसलन अगर कोई उम्मीदवार छह माह पहले किसी खास पार्टी के सिंबल पर चुनाव लड़कर आता है, तो उसे छह माह बाद दूसरी पार्टी के सिंबल पर चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि चाहे वो दो तिहाई लोगों के साथ ही पार्टी छोड़कर गए हों, लेकिन यह उचित प्रतीत नहीं होता है.
दक्षिण के लोग अपने राज्य और भाषा से ज्यादा जुड़े हैं
दक्षिण और उत्तर भारत की राजनीति पर चर्चा करते हुए संजय कुमार ने कहा कि दक्षिण के लोग अपनी भाषा, राज्य और संस्कृति से ज्यादा जुड़े होते हैं, इसलिए वे बीजेपी और कांग्रेस जैसी पार्टियों से बहुत कनेक्ट नहीं हो पाते हैं. तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश को हम देखें तो वहां यही स्थिति है.