National Doctors Day : ये डॉक्टर्स ही जगाते हैं उम्मीद, देश जीतेगा, कोरोना हारेगा
पूरी दुनिया कोविड-19 से जूझ रही है. ऐसे में जिन पर हम सबकी उम्मीदें टिकी हैं, वे हैं डॉक्टर्स. आप जब लॉकडाउन में अपने घरों में सुरक्षित हैं, तो डॉक्टर मरीजों की देखभाल में दिन-रात एक किये हुए हैं.
पूरी दुनिया कोविड-19 से जूझ रही है. ऐसे में जिन पर हम सबकी उम्मीदें टिकी हैं, वे हैं डॉक्टर्स. आप जब लॉकडाउन में अपने घरों में सुरक्षित हैं, तो डॉक्टर मरीजों की देखभाल में दिन-रात एक किये हुए हैं. ऐसे ही कुछ डॉक्टर्स को यहां जानिए, जो भले नेम-फेम से दूर हैं, मगर अपनी सेवा भाव और समर्पण से अपने समुदाय को गौरवान्वित कर रहे हैं, जिसके लिए यह पेशा चुना था. ऐसे तमाम डॉक्टरों को देश सैल्यूट करता है.
बच्चे दूर से पूछते हैं- ‘मम्मा तुम कब घर आओगी’
कोविड-19 टीम में साथ काम करने के दौरान डॉ जाकिया सैयद और डॉ तृप्ती कटदरे की गहरी दोस्ती हो गयी. डॉ तृप्ती इंदौर के पास शिप्रा में स्वास्थ्य केंद्र में मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं, जबकि डॉ जाकिया 40 किमी दूर कम्पेल में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की प्रभारी हैं. इन्हें बेस्ट पीएचसी इंचार्ज का अवार्ड मिल चुका है.
ये दोनों उस टीम में शामिल थीं, जिसमें संदिग्ध लोगों की जांच करने गयी मेडिकल टीम पर इंदौर में पथराव हुआ था. यह हमला भी इनके मजबूत इरादों को नहीं तोड़ पाया. हमले के बाद डॉ जाकिया का कहना था- ”ऐसे हमलों से हमें डर नहीं और ना ही आगे डरनेवाले हैं.” उनका यह साहस काम आया और जब वे दोबारा उसी इलाके में जांच करने पहुंचीं, तो लोगों ने जोरदार स्वागत किया. इसके बाद डॉक्टरों को हिंसा से बचानेवाला एक नया कानून बना. इन्होंने अपने परिवार को छोड़कर होटल में शरण ले लिया, ताकि घरवाले उनसे संक्रमित न हो जायें.
उसी दौरान डॉ तृप्ति अपने पति को उनके जन्मदिन पर विश करना चाहती थीं, मगर घर के बाहर से ही विश करके संतोष करना पड़ा. उन्हें 5 व 9 साल के दो बच्चे हैं, जिन्हें देखे हुए कई-कई दिन बीत जाते थे. बावजूद इसके वह घर के दरवाजे के बाहर खड़ी रहतीं. वहीं एक कप चाय पीकर अपने काम पर लौट जातीं. तब टुकुर-टुकुर ताकते हुए बच्चे बार-बार पूछते- मम्मा तुम कब घर आओगी?
वहीं, डॉ जाकिया रमजान के उपवास के बावजूद काम पर जातीं और शाम को डॉ तृप्ती के साथ ही रोजा तोड़तीं. डॉ जाकिया का मानना है कि अब लोग उन्हें व्हाइट यूनिफार्म वाला सैनिक बुलाने लगे हैं.
गर्भावस्था में भी करती रहीं आदिवासी मरीजों की सेवा
यह कहानी एक ऐसी महिला डॉक्टर की है, जिसने गर्भ में पल रहे बच्चे की चिंता छोड़ मानवता के लिए अपनी सेवाएं दीं. डॉ एस झांसी ने खुद आठ महीने की प्रेग्नेंट होते हुए भी अपने चिकित्सीय पेशे के लिए जोखिम लिया जबकि उनके पास मातृत्व अवकाश लेने का विकल्प था. इस फैसले में उनके परिवार का भरपूर सहयोग रहा.
प्रेग्नेंसी के दौरान रोजाना 30 किमी की यात्रा कर वह विजयनगरम जिले (आंध्र प्रदेश) में स्थित देवुपल्ली सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र जाती रहीं. वहां 30 गांवों के मरीज इलाज के लिए आते हैं. 33 वर्षीया झांसी पीएचसी में मेडिकल ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं. वह कहती हैं- ”आसपास के गांवों में प्राइवेट क्लिनिक नहीं है, इसलिए यहां के लोग केवल पीएचसी पर ही निर्भर हैं.
मैं पिछले डेढ़ साल से यहां काम कर रही हूं और लोग हमारी स्वास्थ्य सेवाओं पर भरोसा करते हैं.” लॉकडाउन में परिवहन व्यवस्था नहीं होने के बाद भी वह आदिवासी इलाकों के गांवों में घर-घर जाकर रोगियों का इलाज करती रहीं. इनके पति डॉ प्रसांथ भी एक चिकित्सक हैं. वह कहते हैं कि मेरे पति इस तरह की गंभीर परिस्थितियों में भी मेरा सपोर्ट करते हैं.
केवल उनके सपोर्ट से ही मैं ड्यूटी पूरा कर पा रही हूं. वर्तमान हालात में लोग डॉक्टरों को भगवान का रूप मानते हैं. इस गंभीर समय में सेवा करना मेरा कर्तव्य है. इन्होंने 2009 में मंगलागिरी में एनआरआई मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पास की. इनके पति कहते हैं कि डॉक्टर के रूप में हमें किसी भी परिस्थिति में रोगियों का इलाज करना होगा और मुझे खुशी है कि मेरी पत्नी उम्मीदों पर खरा उतर रही हैं.
हर दिन, हर पल मुझे होता है एक असाधारण अनुभव
डॉ स्नेहा पटना की रहने वाली हैं और वह पिछले 6 माह से घर नहीं गयी हैं. 26 वर्षीया डॉ स्नेहा के शाह कोलकाता में आरजी कर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर के रूप कार्यरत हैं. वह कहती हैं कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी घर नहीं जायेंगी, क्योंकि परिवार वालों को संक्रमित होने का डर ज्यादा है. दिन-रात रोगियों से घिरी रहती हूं, इसलिए घरवाले मुझे लेकर चिंतित रहते हैं. वे कहती हैं- ”हम डॉक्टर हैं और लोगों की सेवा करना हमारा कर्तव्य है.
हां, पीपीई किट लंबे समय तक पहने रहना काफी मुश्किल भरा होता है. इसे पहनकर वॉशरूम में नहीं जा सकते, पानी नहीं पी सकते, भोजन नहीं कर सकते, सो नहीं सकते और गर्मी के कारण तो शरीर पसीने से भींग जाता है. इस दौरान अस्पताल में आनेवाले अन्य मरीजों, खासकर डिलीवरी केसेज को हैंडल करना ज्यादा चैलेंजिंग होता है, क्योंकि मां के साथ नवजात की जान को ज्यादा खतरा होता है.
डॉ स्नेहा आगे कहती हैं- ”एक असाधारण अनुभव मैं हर दिन, हर मिनट महसूस करती हूं. जब ये मरीज अलग-थलग और अकेले होते हैं, तो हम डॉक्टर इन मरीजों और उनके परिवारों के बीच जुड़ाव पैदा करते हैं. हम उन्हें अपडेट करते हैं और उनके सुख-दुख में खड़े रहते हैं.”
मरीज की जान बचाने को उतार दी प्रोटेक्टिव किट
डॉ जाहिद अब्दुल माजिद 8 मई को कोरोना पॉजिटिव एक मरीज को एम्स, दिल्ली के ट्रॉमा सेंटर में ले जाने पहुंचे. एंबुलेंस में मरीज ऑक्सीजन सपोर्ट पर था, जिसकी हालत बेहद नाजुक थी. डॉक्टर ने पाया कि उसे सांस लेने में दिक्कत हो रही है और वह छटपटा रहा है. संदेह हुआ कि ऑक्सीजन पाइप निकल गया है. बिना देर किये फेस शील्ड और चश्मा उतार कर इसे सही किया.
ऐसा करना खतरनाक हो सकता है, लेकिन दूसरा उपाय नहीं था. एम्स के डॉक्टर्स के मुताबिक, जरा भी देर होती तो मरीज की जान जा सकती थी. इसके बाद डॉ माजिद का भी कोविड-19 टेस्ट हुआ और उन्हें 14 दिनों के लिए कोरेंटिन किया गया. कश्मीर के अनंतनाग जिले के रहनेवाले डॉ जाहिद अब्दुल माजिद फिर से कोविड-19 के मरीजों की सेवा में जुट गये हैं.
परिवार की सुरक्षा के लिए कार को बना लिया घर
कोविड-19 संक्रमितों का इलाज कर रहे कई डॉक्टर व स्वास्थ्यकर्मी परिवार से दूर ही रह रहे हैं, ताकि संक्रमण उनके घर में न प्रवेश कर जाये. भोपाल के जेपी अस्पताल में कार्यरत डॉ सचिन नायक ने अपनी कार को ही घर बना लिया. जेपी अस्पताल के डॉक्टर्स कोरोना पीड़ितों के सैंपल लेने जा रहे थे. ऐसे में डॉ सचिन ने कार में ही जरूरत की सारी चीजें रखे लीं और करीब सप्ताहभर तक उस कार में रहे.
उन्होंने कार में कई किताबें भी रख ली थीं. रात होने पर वे कार में ही किसी तरह सो जाते थे. डॉ सचिन के मुताबिक, घर में उनका तीन साल का छोटा बच्चा है. उन सभी को कोरोना वायरस के संक्रमण से दूर रखने के लिए उन्होंने कार में रहना शुरू कर दिया, ताकि उनके घर तक संक्रमण नहीं पहुंचे. हालांकि, इस तस्वीर के वायरल होने के बाद वहां की सरकार ने डॉक्टर्स के ठहरने के लिए अलग से व्यवस्था की.
महामारी के बीच कर्तव्य निभाने स्वदेश लौटीं
दुनियाभर में कोरोना वायरस के संक्रमण फैलने से तीन माह पहले मुंबई की डॉ दिव्या सिंह पति के साथ अफ्रीका के जिबूती शहर शिफ्ट हुई थीं. मगर महामारी के बीच अपनी आरामदायक जिंदगी को छोड़ मार्च में मुंबई लौट आयीं. मुंबई के एक ग्रुप के साथ वर्ली और धारावी के स्लम एरिया में महामारी निगरानी टीम का हिस्सा बन गयीं. वह इंफ्लुएंजा जैसे लक्षणों वाले मरीजों के घर-घर जाकर पहचान करने लगीं.
आगे कोविड-19 के केस बढ़ने पर बीएमसी के अस्थाई बुखार क्लिनिक से जुड़ कर लगातार काम कर रही हैं. इस दौरान पीपीई किट पहनने में असुविधा न हो, इसलिए अपने बालों को भी कटवा कर कैंसर के लिए काम करनेवाले एनजीओ को दान कर दिया. डॉ दिव्या के मुताबिक, ”यह ऐसा समय है, जब देश को अधिक-से-अधिक डॉक्टर्स की जरूरत है. ऐसे में कोरोना से जंग में पीछे हटने का सवाल ही नहीं.”
post by : Pritish Sahay