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National News : Pride of Bharat : स्वतंत्रता संग्राम के उन गुमनाम वीरों की गाथा, जिनसे डरते थे अंग्रेज

15 अगस्त, 1947 के दिन ही भारत स्वतंत्र हुआ था. ऐसे में देश के स्वाधीनता संग्राम के उन वीरों के बारे में जानना महत्वपूर्ण है, जो गुमनामी में ही रह गये.

National News : हमारे देश को स्वतंत्रता भले ही 15 अगस्त, 1947 को मिली, पर इसके लिए लंबे समय तक आंदोलन चला. जब अंग्रेजों की चूलें हिल गयीं, वे समझ गये कि अब उनके लिए भारत पर राज करना आसान नहीं होगा, तब उन्होंने देश को स्वतंत्र करने का निर्णय लिया. इसी एक दिन की चाहत में हजारों भारतीयों ने अपने सीने पर गोलियां खायी और जानें गंवायी. न उन्होंने अपने प्राणों की परवाह की, न अपने घर-परिवार की चिंता ही की. उनके लिए देश ही सर्वोपरि था. आजादी के ऐसे ही कई दीवाने थे, जिनका बलिदान नेपथ्य में ही रह गया, उनकी न तो कभी चर्चा हुई, न ही इसकी आवश्यकता ही समझी गयी. स्वतंत्रता दिवस को समर्पित इस विशेष आलेख के जरिये हम जानते हैं स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही कुछ गुमनाम नायक-नायिकाओं के बारे में…

बिश्नी देवी साह

बिश्नी देवी साह का जन्म 12 अक्तूूबर, 1902 को वर्तमान उत्तराखंड के बागेश्वर में हुआ था. कहा जाता है कि वे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं. तेरह वर्ष की उम्र में उनकी शादी कर दी गयी और दुर्भाग्यवश सोलह वर्ष की उम्र में वे विधवा हो गयीं. विधवा होने के कारण उन्हें ससुराल और मायके, दोनों जगहों से बहिष्कृत कर दिया गया. इसके बाद उन्होंने अपना जीवन स्वतंत्रता संग्राम और अन्य सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया. उन्होंने अल्मोड़ा के नंदा देवी मंदिर में काफी समय बिताया, जहां उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित बैठकों में सक्रिय रूप से भाग लिया. जेल में बंद प्रदर्शनकारियों के परिवारों के लिए गुप्त रूप से धन इकट्ठा किया. वर्ष 1930 की 25 मई को उन्होंने दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत के साथ मिलकर अल्मोड़ा नगरपालिका पर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराया. इससे पूर्व स्वयंसेवकों के एक जुलूस, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं, को गोरखा सैनिकों द्वारा रोक लिया गया था और उन पर हमला किया गया, जिसमें मोहनलाल जोशी और शांतिलाल त्रिवेदी जैसे नेता घायल हो गये थे. तब बिश्नी देवी, दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत ने नगरपालिका पर ध्वजारोहण का संकल्प लिया था. वर्ष 1930 में ही बिश्नी देवी को गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल में बंद कर दिया गया. पर जेल की भयावह परिस्थितियां भी उनके हौसले को नहीं तोड़ पायीं. जेल से छूटने के बाद उन्होंने घर-घर जाकर चरखा बेचा और महिलाओं को चरखा चलाना भी सिखाया. अल्मोड़ा में जब हरगोविंद पंत के नेतृत्व में कांग्रेस समिति का गठन किया गया, तब उन्हें समिति की महिला प्रबंधक के रूप में चुना गया. हालांकि, 1931 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया. जेल से रिहा होने के बाद एक बार फिर वे स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गयीं. वर्ष 1972 में उनका निधन हो गया.

सुशीला दीदी

‘सुशीला दीदी’ के नाम से मशहूर सुशीला मोहन, भारत की महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं. पांच मार्च, 1905 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत में जन्मी सुशीला दीदी की शिक्षा जालंधर के आर्य महिला कॉलेज में हुई थी, जहां से वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुईं. हिंदी साहित्य पर एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए देहरादून जाने के क्रम में वे लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्रों के संपर्क में आयीं, जो क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न थे. बाद में वे भगवती चरण वोहरा और उनकी पत्नी दुर्गा देवी से मिलीं और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गयीं. काकोरी कांड के बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी की फांसी के बाद वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थायी कार्यकर्ता बनीं. उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और कलकत्ता चली गयीं. वर्ष 1927 की 17 दिसंबर को जॉन सांडर्स की हत्या के बाद जब भगत सिंह कलकत्ता पहुंचे, तब सुशीला दीदी ने ही उनके ठहरने की व्यवस्था की. कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से भाग लिया. उन्होंने भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के मुकदमे लड़ने के लिए धन इकट्ठा करने के लिए भगत सिंह रक्षा समिति का गठन किया. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी और चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु के बाद सुशीला दीदी ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की कमान संभाली. पर पंजाब सरकार के सचिव सर हेनरी किर्क की हत्या की उनकी योजना विफल होने के बाद अन्य क्रांतिकारियों सहित उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. वर्ष 1932 में, सुशीला दीदी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में भाग लिया, जिसे ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था. इसके लिए उन्हें पुन: गिरफ्तार किया गया और छह महीने की जेल हुई. भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान, उन्हें और उनके पति को जेल हुई. वर्ष 1963 के 13 जनवरी को उनका निधन हो गया.

प्रीतिलता वाद्देदार

पांच मई, 1911 को चटगांव (वर्तमान बांग्लादेश) में जन्मी, प्रीतिलता वाद्देदार क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के लिए अस्त्र-शस्त्र उठाने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं. कॉलेज के समय में ही वे क्रांतकिारी समूह, दीपाली संघ में सम्मिलित हो गयी थीं. बाद में, जब वे उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता गयीं, तो सूर्य सेन के संपर्क में आयीं. अप्रैल 1930 के चटगांव शस्त्रागार छापे के बाद, जब सूर्य सेन और उनके सहयोगियों में से कई पकड़ लिये गये गये और भूमिगत हो गये, तब प्रीतिलता को महिलाओं को संगठित करने, जेल में बंद क्रांतिकारियों से भेष बदलकर जानकारी एकत्रित करने, क्रांतिकारी पर्चे बांटने और गुप्त रूप से बम की पेटियां एकत्र करने का काम सौंपा गया. उन्होंने, कुशलतापूर्वक सभी काम किये. वर्ष 1932 की 23 सितंबर की रात को उन्होंने पहाड़तली यूरोपीयन क्लब पर हमला करने वाले क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया. इस दौरान भीषण गोलीबारी में उनके पैर में गोली लग गयी और वे भाग नहीं सकीं. आत्मसमर्पण करने के बजाय, वे साइनाइड की गोली खाकर शहीद हो गयीं.

पार्वती गिरी

पार्वती गिरी का जन्म 19 जनवरी, 1926 को ओडिशा के बरगढ़ जिले के समलाईपदार गांव में हुआ था. तब यह गांव राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था. ब्रिटिश शासन के विरोध की रणनीति तैयार करने के लिए होने वाली बैठकों में पार्वती अक्सर अपने चाचा रामचंद्र गिरी के साथ शामिल होती थीं. यहीं से उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने की प्रेरणा मिली. महज 11 वर्ष की उम्र में पार्वती ने स्कूल छोड़ दिया और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की स्थानीय सभा के साथ काम करना शुरू कर दिया. वर्ष 1940 में, जब सत्याग्रह शुरू हुआ, तो उन्होंने सभाओं का आयोजन करना शुरू किया और गांधी जी के खादी आंदोलन में भाग लेने के लिए गांवों में लोगों को प्रेरित किया. अपनी छोटी उम्र के बावजूद वे भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुईं. हाथ में तिरंगा लिये, उन्होंने ब्रिटिश विरोधी नारे लगाते हुए रैलियों में भाग लिया और ब्रिटिश सत्ता के प्रति अपना प्रबल विरोध दिखाया. एक बार पार्वती और तीन अन्य लड़के बरगढ़ में एसडीओ के कार्यालय पहुंचे. वे न्यायाधीश की तरह एसडीओ की कुर्सी पर बैठ गयीं एसडीओ को कार्यालय में प्रवेश करते देख उन्होंने अन्य लड़कों को आदेश दिया कि वे एक अपराधी की तरह उसे रस्सी से बांधकर उनके सामने लाएं. इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया. उन्होंने स्वतंत्रता के बाद लोगों के कल्याण के लिए भी काम किया. वर्ष 1995 की 17 अगस्त को उनका निधन हो गया.

बैकुंठ शुक्ल

बैकुंठ शुक्ल का जन्म 15 मई, 1910 को बिहार के तत्कालीन मुजफ्फरपुर जिला (वर्तमान वैशाली) के जलालपुर गांव में हुआ था. वे स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से थे. उनके चाचा, योगेंद्र शुक्ल ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचएसआरए) के संस्थापकों में से एक थे. वर्ष 1930 के दशक की शुरुआत में वे किशोरी प्रसन्न सिंह और उनकी पत्नी सुनीता देवी से मिले, जो नमक सत्याग्रह आंदोलन के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे. उनसे प्रभावित होकर वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये. इसी वर्ष सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया. पटना कैंप जेल में रहने के दौरान उनकी मुलाकात विभूति भूषण दास गुप्ता से हुई और वे उनसे प्रभावित हुए. इस बीच किशोरी प्रसन्न सिंह और सुनीता देवी की विचारधारा में बदलाव आया और वे एचएसआरए में शामिल हो गये. कहते हैं कि सुनीता देवी ने बैकुंठ को क्रांतिकारियों से मिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. परिणामस्वरूप स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर बैकुंठ का दृष्टिकोण काफी बदल गया. उनका मानना था कि आजादी ‘बिना समझौता किये, एक क्रांतिकारी संघर्ष’ द्वारा ही हासिल की जा सकती है. उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के क्रांतिकारी विचारों और मतों का समर्थन किया. इन तीनों की फांसी से वे क्रोध में थे और इसका बदला लेने के लिए बेताब थे. एचएसआरए ने तीनों साहसी क्रांतिकारियों की मौत का बदला लेने का काम बैकुंठ शुक्ल को सौंपा. नौ नवंबर, 1932 को बैकुंठ शुक्ल और उनके साथी चंद्रमा सिंह ने फणींद्रनाथ घोष को गोली मार दी, जिसकी गवाही के कारण भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी हुई थी. हालांकि गोली मारने के बाद वे दोनों भाग गये थे, पर अंततः पकड़े गये. वर्ष 1934 की 14 मई को गया केंद्रीय कारागार में दोनों को फांसी दे दी गयी. जब बैकुंठ को फांसी के तख्ते की ओर ले जाया जा रहा था, तो वे गा रहे थे- ‘हासि हासि परब फांसी/मां देखबे भारतबासी/बिदाय दे मां फिरे आसि.’

वान्चीनाथन अय्यर

वान्चीनाथन अय्यर का जन्म 1886 में शेनकोट्टई में हुआ था. उनका मानना था कि सशस्त्र संघर्ष से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है. जब वे त्रावणकोर में कार्यरत थे, तब वीओ चिदंबरम पिल्लई, नीलकांत ब्रह्मचारी, सुब्रमण्य शिव और सुब्रमण्य भारती से उनकी आकस्मिक मुलाकात हुई. समय के साथ, वे सब उनके मार्गदर्शक बन गये. वे सभी ‘भारत मठ संगम’ नामक संगठन का हिस्सा थे, जिसकी स्थापना अंग्रेजों से छुटकारा पाने और स्थानीय लोगों के बीच राष्ट्रवाद की भावना बढ़ाने के उद्देश्य से की गयी थी. यहां वान्चीनाथन, विनायक दामोदर सावरकर के साथी वीवीएस अय्यर से मिले, जो एक क्रांतिकारी थे और सशस्त्र संघर्ष से स्वतंत्रता प्राप्त करने में विश्वास रखते थे. उन दिनों अंग्रेज भारत पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए जनता के बीच लोकप्रिय स्वदेशी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं को बंदी बना रहे थे. वर्ष 1911 में रॉबर्ट विलियम ऐश, जो तिरुनेलवेलि जिले का कलेक्टर था, उसने वीओ चिदंबरम पिल्लई और सुब्रमण्य शिव जैसे स्वतंत्रता सेनानियों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया. दोनों को जेल में यातनाएं दी गयीं. इसने वान्चीनाथन को गुस्से से भर दिया और उन्होंने ऐश को मारने का फैसला किया. वर्ष 1911 के 17 जून को, मणियाचि मेल रेलगाड़ी में उन्होंने ऐश को गोली मार दी. ऐश को मारने के बाद वान्ची वहां से भाग गये, पर बाद में वे मृत पाये गये. उन्होंने अपने मुंह में गोली मारकर अपनी जान ले ली थी. ब्रिटिश राज के दौरान दक्षिण भारत में किसी ब्रिटिश अधिकारी की यह पहली बड़ी राजनीतिक हत्या थी.

मेजर दुर्गा मल्ल

गोरखा समुदाय के मेजर दुर्गा मल्ल की कहानी अद्भुत है. महज 31 वर्ष की उम्र में उन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. एक जुलाई, 1913 को देहरादून के डोईवाला गांव में उनका जन्म हुआ था. दुर्गा मल्ल गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानियों से इस हद तक प्रेरित थे कि जब गांधीजी ने 1930 में दांडी मार्च का आरंभ किया, तब मल्ल ने स्थानीय अंग्रेज विरोधी गतिविधियों में भाग लिया. वे अक्सर रात में अपने दोस्तों के साथ स्वतंत्रता संग्राम के पोस्टर चिपकाने के लिए गोरखा बटालियन क्षेत्र में प्रवेश करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के जुलूसों में शामिल हुआ करते थे. गांधीजी के दृष्टिकोण से उनमें देशभक्ति की भावना उत्पन्न हुई और वे एक स्वतंत्र भारत की कल्पना करने लगे. वर्ष 1931 में केवल 18 वर्ष की उम्र में वे गोरखा राइफल्स के 2/1 बटालियन में भर्ती हो गये. वर्ष 1942 में उन्होंने गोरखा राइफल्स छोड़ नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय सेना (आइएनए) का गठन किया. आइएनए के निर्माण में दुर्गा मल्ल ने प्रमुख भूमिका निभायी थी. यहां उन्हें अक्सर बर्मा की सीमा के पहाड़ी इलाकों में रणनीतिक महत्व के क्षेत्रों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए गुप्त अभियान पर जाना पड़ता था. वर्ष 1944 के 27 मार्च को जब वे दुश्मन के शिविर के बारे में जानकारी एकत्र कर रहे थे, तब पकड़े गये. जब मेजर दुर्गा मल्ल को अधिकारियों द्वारा राजद्रोह का आरोप स्वीकार करने के लिए कहा गया, तब उन्होंने कहा कि इससे अच्छा वे फांसी पर चढ़ना पसंद करेंगे. वर्ष 1944 के 25 अगस्त को उन्हें फांसी दे दी गयी. फांसी पर चढ़ने से पहले उनके अंतिम कुछ शब्द थे, ‘मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा/भारत आजाद होगा…’

इन सबके अतिरिक्त, महाबीरी देवी, करतार सिंह सराभा, चित्तू पांडेय, हैपोउ जादोनांग, अबादी बेगम, तीलू रौतेली, अल्लूरी सीताराम राजू, तिरुपर कुमारन, अक्कम्मा चेरियन, अनंत लक्ष्मण कन्हेरे, का फान नोंगलाइट, यू तिरोम सिंग सियम समेत तमाम ऐसे नाम हैं जिनके बलिदान के कारण आज हम भारत की स्वतंत्रता का उत्सव मना पा रहे हैं.

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