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आयुर्वेद में इस्तेमाल की जाने वाली जड़ी-बूटियों में खोजी जा रही है कोरोना की नई दवा, जानिए क्या कहती है रिपोर्ट

कोरोना महामारी का 15 महीने से अधिक समय से से पूरी दुनिया में हड़कंप मचाने के बाद वैज्ञानिकों को अभी भी इस खतरनाक वायरस का मुकाबला करने के लिए एक कारगर दवा की खोज करना बाकी है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 5, 2021 9:39 AM

नई दिल्ली : पूरी दुनिया जब सार्स-कोव-2 (SARS-CoV-2 ) के खिलाफ एक प्रभावी दवा की तलाश में है, तब उसके पास आयुर्वेद में व्यापक तरीके से इस्तेमाल की जाने वाली जड़ी-बूटियों में ही उम्मीद की आखिरी किरण दिखाई देती है. हरियाणा के मानेसर स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर (एनबीआरसी) के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि मुलेठी ( जिसे संस्कृत में यष्टिमधु कहा जाता है) सार्स-कोव-2 के खिलाफ कारगर दवा साबित हो सकती है. इसका कारण यह है कि मुलेठी रोग की गंभीरता को कम करने के साथ ही वायरस को एक-दूसरे में वायरल होने की क्षमता को भी कम करता है.

कोरोना की कारगर दवा की तलाश अब भी जारी

कोरोना महामारी का 15 महीने से अधिक समय से से पूरी दुनिया में हड़कंप मचाने के बाद वैज्ञानिकों को अभी भी इस खतरनाक वायरस का मुकाबला करने के लिए एक कारगर दवा की खोज करना बाकी है. हालांकि, इस दौरान भारत समेत दुनिया के कई देशों ने कोरोना का टीका तैयार कर लिया है और लोगों को कोरोना का टीका लगाया भी जा रहा है. अकेले भारत में सात करोड़ से अधिक लोगों को कोरोना का टीका लगाया जा चुका है, लेकिन कोरोना का इलाज करने वाले डॉक्टर फिलहाल मरीजों को ठीक करने के लिए प्रचलित मुट्ठी भर दवाओं का ही इस्तेमाल करते हैं.

एनबीआरसी की टीम लगातार कर रही है शोध

डेक्कन हेराल्ड में छपे एक लेख के अनुसार, एनबीआरसी की टीम ने देश में पिछले साल लॉकडाउन लगने के साथ ही जैव प्रौद्योगिकी विभाग के साथ मिलकर कोरोना की नई दवा की तलाश शुरू कर दी थी. जब यह खोज अपने विपरीत गुणों के कारण ग्लाइसीरिजिन तक पहुंचकर अटक गई, तो शोधकर्ताओं ने सार्स-कोव-2 के खिलाफ इसकी क्षमता की जांच करने के लिए कई प्रयोग भी किए.

इस दौरान वैज्ञानिकों ने मानव फेफड़ों की कोशिकाओं में खास प्रकार के वायरल प्रोटीन का इस्तेमाल किया. इसका नतीजा यह निकला कि ये वायरल प्रोटीन ने कोशिकाओं में सूजन पैदा कर दी, लेकिन ग्लाइसीरिजिन के इस्तेमाल से कोशिकाओं की सूजन में कमी आ जाती है.

मुलेठी पर चल रहा रिसर्च

डेक्कन हेराल्ड को एनबीआरसी के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक एलोरा सेन ने बताया कि साइटोकिन (गंभीर कोविड-19 मामलों से उत्पन्न एक गंभीर प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया) ग्लाइसीरिजिन संक्रमण की गंभीरता को कम कर सकता है.

इसके बाद जब सेन ने अपने साथी शोधकर्ताओं पृथ्वी गौड़ा, श्रुति पैट्रिक, शंकर दत्त, राजेश जोशी और कुमार कुमावत के साथ अणु का विश्लेषण किया, तो उन्होंने पाया कि साइटोकिन तूफान को रोकने के अलावा ग्लाइसीरिजिन भी वायरल प्रतिकृति को 90 फीसदी तक कम कर देता है. जबकि, मुलेठी (यष्टिमधु) फेफड़ों की बीमारियों के लिए व्यापक रूप से कारगर है. आयुर्वेद में मुलेठी पुरानी बुखार और श्वसन पथ की सूजन में ग्लाइसीरिजिन का इस्तेमाल पुरानी हेपेटाइटिस बी और सी के उपचार में किया जाता है.

सार्स-कोव-2 की चिकित्सा का विकल्प उपलब्ध करा सकता है आयुर्वेद

उन्होंने कहा कि इसकी सुरक्षा प्रोफ़ाइल और सहनशीलता को देखते हुए यह सार्स-कोव-2 संक्रमण के रोगियों में एक व्यवहार्य चिकित्सीय विकल्प उपलब्ध करा सकता है. टीम अब प्रीक्लिनिकल स्टेज में शोध को आगे बढ़ाने के लिए अन्य भागीदारों की तलाश कर रही है. इस साइटोकिन के बारे में इंटरनेशनल साइटोकिन और इंटरफेरॉन सोसायटी की आधिकारिक पत्रिका में भी अध्ययन रिपोर्ट को प्रकाशित किया गया है.

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Posted by : Vishwat Sen

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