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Explainer: एक देश एक चुनाव के क्या हैं लाभ, लागू करने बाद आएंगी ये चुनौतियां

पिछले कुछ दिनों से ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा सुर्खियों में छाया हुआ है. प्रधानमंत्री मानते हैं कि देश में हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहने से वित्तीय बोझ और विकास कार्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.

इन दिनों देश में ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है. दरअसल, 31 अगस्त को संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने 18 से 22 सितंबर को संसद के विशेष सत्र बुलाये जाने की जानकारी साझा की. विशेष सत्र बुलाये जाने के केंद्र सरकार के निर्णय के अगले ही दिन ‘एक देश एक चुनाव’ के लिए समिति बनाये जाने की जानकारी सामने आयी. तभी से लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने को लेकर चिंतन-मनन का दौर जारी है.

कयास लगाये जा रहे हैं कि विशेष सत्र में सरकार यह विधेयक पेश कर सकती है. भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से एक देश एक चुनाव चाहती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्षधर रहे हैं. वे इसका जिक्र भी कर चुके हैं और इसे भारत की जरूरत भी बता चुके हैं.

सरकार ने किया उच्च स्तरीय समिति का गठन

देशभर में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न हो सकते हैं या नहीं, इस बात का पता लगाने के लिए हाल ही में केंद्र सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है. यह समिति भारत की चुनावी प्रक्रिया का अध्ययन करेगी और उसी के आधार पर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. उसी िरपोर्ट के आधार पर सरकार अपन रुख तय करेगी.

रामनाथ कोविंद बने अध्यक्ष

केंद्र सरकार द्वारा गठित समिति की अध्यक्षता पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद करेंगे. गृह मंत्री अमित शाह, राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, पूर्व लोकसभा महासचिव सुभाष सी कश्यप, वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे, पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी समिति के सदस्य होंगे. कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी को भी समिति में शािमल किया गया है, पर उन्होंने इस समिति का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया है.

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चुनाव आयोग ने भी दिया था सुझाव

वर्ष 1967 के बाद से एक साथ चुनाव का जो सिलसिला टूटा, उस कड़ी को फिर से जोड़ने की कवायद लगभग 16 वर्षों तक ठंडी पड़ी रही. वर्ष 1983 में चुनाव आयोग ने पहली बार अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सुझाव दिया कि लोकसभा के साथ-साथ राज्यों के भी विधानसभा चुनाव कराये जाने चाहिए. पर तत्कालीन सरकार ने आयोग के सुझाव को तवज्जो नहीं दी. हालांकि, 1999 में यह मुद्दा एक बार फिर उभरा जब विधि आयोग ने एक साथ चुनाव कराने पर जोर दिया.

विधि आयोग की सिफारिश

न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 1999 में चुनावी कानूनों में सुधार पर अपनी रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराये जाने की सिफारिश की थी. कहा था कि शासन में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होने चाहिए. रिपोर्ट के अनुसार, ‘हर वर्ष और बेमौसम चुनाव का सिलसिला समाप्त किया जाना चाहिए. हमें वापस उस स्थिति में लौट जाना चाहिए जहां लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे. आयोग ने यह भी कहा था कि वर्तमान परिस्थिति में प्रत्येक पांच वर्ष में एक साथ चुनाव कराने का लक्ष्य चरणबद्ध तरीके से प्राप्त करना होगा.

संसदीय स्थायी समिति ने क्या कहा

कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने एम सुदर्शना नचियप्पन की अगुवाई में एक साथ चुनाव कराये जाने की संभावना को लेकर 17 दिसंबर, 2015 को सदन में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि बार-बार चुनाव होने से बहुत अधिक पैसा खर्च होता है. सामान्य जीवन पर असर पड़ता है और जरूरी सेवाएं प्रभावित होती हैं. चुनाव आयोग की ओर से आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि चुनाव के लिए लंबे समय तक सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है, जिससे उन पर बोझ पड़ता है.

विधि आयोग की मसौदा रिपोर्ट

न्यायमूर्ति बीएस चौहान की अध्यक्षता में विधि आयोग ने 30 अगस्त, 2018 को अपनी मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि संविधान के मौजूदा ढांचे के तहत एक साथ चुनाव नहीं कराये जा सकते. इसके लिए संविधान के लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और लोकसभा और विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में संशोधन करना होगा. साथ ही कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों को संशोधनों को स्वीकार करना होगा.

एक साथ चुनाव के लाभ

अगस्त, 2018 को सौंपी गयी मसौदा रिपोर्ट में विधि आयोग ने लोकसभा व सभी राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने का लाभ भी बताया है. रिपोर्ट के अनुसार,

एक साथ चुनाव कराने से सार्वजनिक धन की बचत होगी.

प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर पड़ने वाला बोझ कम होगा.

सरकारी नीतियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित होगा.

प्रशासनिक मशीनरी चुनावी कार्यों में लगे रहने की बजाय विकास कार्यों में संलग्न रहेंगी

पहले भी हो चुके हैं एक साथ चुनाव

देश के स्वतंत्र होने के बाद पहली बार 1952 में चुनाव हुए. तब आम चुनाव (लोकसभा) के साथ-साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए. इसके पांच वर्षों बाद, 1957 में भी ऐसा ही हुआ. हालांकि, तब राज्यों के पुनर्गठन, यानी नये राज्यों के बनने के कारण 76 प्रतिशत राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ ही हुए. परंतु एक साथ चुनाव का यह सिलसिला पहली बार तब टूटा जब 1959 में केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अनुच्छेद 356 का उपयोग करते हुए केरल की ईएमएस नंबूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया.

इसके बाद फरवरी 1960 में केरल में फिर से विधानसभा चुनाव हुआ. इस प्रकार, देश के किसी भी राज्य में मध्यावधि चुनाव का यह पहला मामला था. हालांकि, इसके बाद 1962 और 1967 में भी लोकसभा के साथ 67 प्रतिशत राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए.

देश के स्वतंत्र होने के बाद पहली बार 1952 में चुनाव हुए. तब आम चुनाव (लोकसभा) के साथ-साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए. इसके पांच वर्षों बाद, 1957 में भी ऐसा ही हुआ. हालांकि, तब राज्यों के पुनर्गठन, यानी नये राज्यों के बनने के कारण 76 प्रतिशत राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ ही हुए. परंतु एक साथ चुनाव का यह सिलसिला पहली बार तब टूटा जब 1959 में केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अनुच्छेद 356 का उपयोग करते हुए केरल की ईएमएस नंबूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया. इसके बाद फरवरी 1960 में केरल में फिर से विधानसभा चुनाव हुआ. इस प्रकार, देश के किसी भी राज्य में मध्यावधि चुनाव का यह पहला मामला था. हालांकि, इसके बाद 1962 और 1967 में भी लोकसभा के साथ 67 प्रतिशत राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए.

ऐसे टूटा सिलसिला

वर्ष 1968 और 1969 में कुछ राज्य विधानसभा अपने निर्धारित कार्यकाल को पूरा नहीं कर सकीं और विधानसभा समय पूर्व ही भंग हो गयी. इसके चलते एक देश एक चुनाव का सिलसिला पूरी तरह टूट गया. वास्तव में, 1967 के चुनाव में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मद्रास आदि राज्यों में झटका लगा. कई जगह तो कांग्रेस के बागियों ने अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनायी. पर ऐसी अनेक गठबंधन सरकारें अपने पांच वर्ष का निर्धारित कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं और गिर गयीं. वर्ष 1970 में तो लोकसभा भी समय से पहले भंग हो गयी और 1971 में फिर से आम चुनाव हुए. इसके बाद पांचवी लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाकर 1977 तक कर दिया गया. छठी, सातवीं, नौवीं, 11वीं, 12वीं और 13वीं लोकसभा भी समय पूर्व भंग हो गयी. इस प्रकार, 1967 के बाद से लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न नहीं हो सके.

ये हैं कुछ प्रमुख चुनौतियां

यदि देश में एक देश एक चुनाव लागू होता है तो इसके लिए संविधान के पांच अनुच्छेदों- 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करना होगा. अनुच्छेद 83 संसद के दोनों सदनों के कार्यकाल, 85 राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा को भंग करने, 172 राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल, 174 राज्य विधानसभाओं को भंग करने और अनुच्छेद 356 राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने से संबंधित है.

एक देश एक चुनाव को लागू करने के लिए सभी राजनीतिक दलों और सभी राज्य सरकारों की सहमति होना आवश्यक है.

इस कार्य के लिए अतिरिक्त ईवीएम/ वीवीपैट की आवश्यकता होगी. इस समय देश में दस लाख मतदान केंद्र हैं. यदि पूरे देश में वीवीपैट सिस्टम प्रयोग किया जाता है तो एक साथ चुनाव कराने के लिए दोगुने वीवीपैट की आवश्यकता होगी. इस प्रकार, एक साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम और वीवीपैट की खरीद पर नौ हजार दो सौ चौरासी करोड़ से अधिक रुपया खर्च करना पड़ेगा.

इवीएम को रखने के लिए भंडार गृह की जरूरत दोगुनी हो जायेगी, जो समस्या का कारण बन सकती है.

अतिरिक्त मतदान कर्मियों और सुरक्षा बलों की जरूरत होगी, जिससे राज्यों पर दबाव पड़ेगा.

एक साथ चुनाव कराने के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता भी होगी

आगे की राह

देश में कुछ-कुछ महीनों के अंतराल पर अलग-अलग राज्यों में चुनाव होते हैं और आचार संहिता लागू होने के कारण विकास कार्य बाधित होता है. विकास कार्यों के निर्बाध चलते रहने के लिए एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर गहन विचार-विमर्श और अध्ययन आवश्यक है. केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, सभी दलों और विशेषज्ञों के साथ मिलकर इस बात पर सर्वसहमति बनानी चाहिए कि राष्ट्र को एक देश एक चुनाव की आवश्यकता है या नहीं. यहां दल से ऊपर उठकर देशहित में विचार करने की जरूरत है.

आलोचकों की राय

लोकसभा ओर विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने को लेकर जहां कई दल समर्थन में हैं, वहीं कई इसके विरोध में. आलोचकों का कहना है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार राजनीति से प्रेरित है. एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं का व्यवहार इस रूप में प्रभावित हो सकता है कि वे विधानसभा चुनाव के लिए भी राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करने लगेंगे. इससे संभावना है कि बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में जीत हासिल करें. इस कारण क्षेत्रीय पार्टियों के हाशिये पर चले जाने की आशंका है. वहीं कुछ आलोचकों का मानना है कि प्रत्येक पांच वर्ष में एक से ज्यादा बार मतदाताओं का सामना करने से नेताओं की जवाबदेही बढ़ती है और वे सतर्क रहते हैं. विरोध करने वाले दलों में कांग्रेस, एनसीपी, सीपीआई, तृणमूल कांग्रेस, तेलुगू देशम, एआईएमआईएम आदि शामिल हैं.

ये दल हैं समर्थन में

एआइएडीएमके, असम गण परिषद, आईयूएमएल, बीजू जनता दल समेत अनेक दल एक देश एक चुनाव के समर्थन में हैं.

क्या कहना है चुनाव आयोग का

एक देश एक चुनाव को लेकर प्रश्न पूछे जाने पर मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने कहा है कि भारत का चुनाव संवैधानिक प्रावधानों और जनप्रतिनिधि अधिनियम (आरपी एक्ट) के अनुसार काम करने को तैयार है.

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