देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 26 दिसंबर रात 10 बजे के करीब निधन हो गया. 26 सितंबर 1932 को पाकिस्तान में जन्मे मनमोहन सिंह की जिंदगी में सबसे बड़ा दिन जून 1991 में आया. जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पीवी नरसिम्हा राव ने उन्हें अपने कैबिनेट में वित्त मंत्री के रूप में शामिल किया. हालांकि मनमोहन सिंह जब पहली बार मंत्री बने तो वह किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे. जिसके बाद 1991 में उन्हें पहली बार राज्य सभा के लिए चुना गया. उच्च सदन में पांच बार असम और 2019 में राजस्थान का प्रतिनिधित्व किया. 1998 से 2004 तक, जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में थी, मनमोहन सिंह राज्य सभा में विपक्ष के नेता थे.
एक फोन कॉल ने बदल दी थी मनमोहन सिंह की जिंदगी
पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव पर किताब लिखने वाले विनय सीतापति ने एक इंटरव्यू में बताया था “जब नरसिम्हा राव 1991 में प्रधानमंत्री बने तो वो कई चीज़ों के विशेषज्ञ बन चुके थे. स्वास्थ्य और शिक्षा मंत्रालय वो पहले देख चुके थे. वो भारत के विदेश मंत्री भी रह चुके थे. एक ही विभाग में उनका हाथ तंग था, वो था वित्त मंत्रालय. प्रधानमंत्री बनने से दो दिन पहले कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा ने उन्हें आठ पेज का एक नोट दिया था जिसमें बताया गया था कि भारत की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है.” ऐसे में पीवी नरसिम्हा ने मनमोहन सिंह को अपने वित्त मंत्री के रूप में चुना. लेकिन इस बात की जानकारी खुद मनममोहन सिंह को नहीं थी कि वह अगले कुछ घंटों में देश के वित्त मंत्री बनने जा रहे हैं.
शपथ ग्रहण समारोह से एक दिन पहले मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन किया गया. उस समय वो सो रहे थे क्योंकि कुछ घंटे पहले ही विदेश से लौटे थे. जब उन्हें उठाकर इस प्रस्ताव के बारे में बताया गया तो उन्होंने इस पर विश्वास नहीं किया. “अगले दिन शपथ ग्रहण समारोह से तीन घंटे पहले मनमोहन सिंह के पास विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर में नरसिम्हा राव का फोन आया कि मैं आपको अपना वित्त मंत्री बनाना चाहता हूं. इसके बाद मनमोहन सिंह कैबिनेट मंत्री के पद का शपथ लेने के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंचे.
सफल हुए तो श्रेय मिलेगा नहीं तो आपको जाना होगा
विनय सीतापति ने अपनी किताब हॉफ लॉयन में लिखा है कि शपथ ग्रहण समारोह से पहले नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह से कहा कि अगर हम सफल होते हैं तो हम दोनों को इसका श्रेय मिलेगा लेकिन अगर हमारे हाथ असफलता लगती है तो आपको जाना पड़ेगा.” सीतापति बताते हैं कि 1991 के बजट से दो हफ़्ते पहले जब मनमोहन सिंह बजट का मसौदा लेकर नरसिम्हा राव के पास गए तो उन्होंने उसे सिरे से खारिज कर दिया. उनके मुंह से निकला, “अगर मुझे यही चाहिए था तो मैंने आपको क्यों चुना?” जिसके बाद ही देश में आर्थिक उदारीकरण की नींव रखी गई.
दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ पहुंचा है: मनमोहन सिंह
अपने पहले बजट में मनमोहन सिंह ने विक्टर ह्यूगो की उस मशहूर लाइन का ज़िक्र किया था कि “दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ पहुंचा है. उन्होंने अपने बजट भाषण में राजीव गांधी, इंदिरा और नेहरू का बार-बार नाम ज़रूर लिया, लेकिन उनकी आर्थिक नीतियों को पलटने में वो जरा भी नहीं हिचके.
वाजपेयी की आलोचना से आहत होकर छोड़ना चाहते थे मंत्री पद
अपना पहला बजट पेश करने के बाद मनमोहन सिंह को उम्मीद थी कि विपक्ष के नेता उनकी बातों का समर्थन करेंगे. लेकिन नेता प्रतिपक्ष होने के नाते अटल बिहारी वाजपेयी ने मनमोहन सिंह की ओर से पेश किए गए बजट की जमकर आलोचना की. वाजपेयी की आलोचना से मनमोहन सिंह आहत हो गए थे. आलम यह था कि उन्होंने तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव को इस्तीफा देने तक के बारे में सोच रहे थे. नरसिम्हा राव को यह बात पता चली तो उन्होंने वाजपेयी को फोन कर पूरी कहानी बताई. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने मनमोहन सिंह से मुलाकात की और उन्हें समझाया कि उनकी आलोचना राजनीतिक है. संसद में उन्होंने राजनीतिक भाषण दिया था. इसके बाद मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री पद छोड़ने का फैसला वापस ले लिया. इस मुलाकात का असर यह हुआ कि मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी दोस्त बन गए. अटल बिहारी वाजपेयी जब बीमारी से ग्रसित रहे तो उनसे नियमित मिलने वालों में मनमोहन सिंह भी शामिल हैं.