45 साल बाद सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर फिर उठे सवाल, मोदी सरकार से जवाब तलब
सुप्रीम कोर्ट में करीब 45 साल बाद देश में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी को लेकर सवाल उठाए गए हैं. अदालत में इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाई गई इमरजेंसी को पूरी तरह असंवैधानिक घोषित करने के लिए एक याचिका दायर की गई है. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'वह इस पहलू पर भी विचार करेगा कि क्या 45 साल बाद इमरजेंसी लागू करने की वैधानिकता पर विचार करना व्यावहारिक या आवश्यक है?'
नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट में करीब 45 साल बाद देश में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी को लेकर सवाल उठाए गए हैं. अदालत में इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में लगाई गई इमरजेंसी को पूरी तरह असंवैधानिक घोषित करने के लिए एक याचिका दायर की गई है. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘वह इस पहलू पर भी विचार करेगा कि क्या 45 साल बाद इमरजेंसी लागू करने की वैधानिकता पर विचार करना व्यावहारिक या आवश्यक है?’
अदालत ने सोमवार को इस याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र की मोदी सरकार को नोटिस जारी कर सवाल पूछा है. बता दें कि देश में 25 जून 1975 की आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी की घोषणा कर दी थी. यह इमरजेंसी 1977 में खत्म हुआ था.
94 साल की महिला ने दायर की याचिका
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने 94 वर्षीय महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि वह इस पहलू पर भी विचार करेगी कि क्या 45 साल बाद इमरजेंसी लागू करने की वैधानिकता पर विचार करना ‘व्यावहारिक या आवश्यक’ है. पीठ ने इस याचिका पर सुनवाई के दौरान टिप्पणी की, ‘हमारे सामने परेशानी है. इमरजेंसी कुछ ऐसी है, जो नहीं होना चाहिए था.’ पीठ सोच रही थी कि इतने लंबे समय बाद वह किस तरह की राहत दे सकती है?
छल थी इमरजेंसी
वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने वयोवृद्ध वीरा सरीन की ओर से बहस करते हुए कहा कि इमरजेंसी ‘छल’ थी और यह संविधान पर ‘सबसे बड़ा हमला’ था, क्योंकि महीनों तक मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे. साल्वे ने कहा कि याचिकाकर्ता ने इमरजेंसी के दौरान बहुत दुख झेले हैं और अदालत को देखना चाहिए कि उस दौर में इस वृद्धा के साथ किस तरह का व्यवहार हुआ.
नागरिक अधिकार महीनों तक रखे गए निलंबित
साल्वे ने कहा कि दुनिया में युद्ध अपराध के लिए सजा दी जा रही है, लैंगिक अपराधों के लिए सजा हो रही है. इतिहास को खुद को दोहराने की अनुमति नहीं दी जा सकती. महीनों तक नागरिकों के अधिकार निलंबित रखे गये. यह संविधान के साथ छल था. उन्होंने कहा कि यह हमारे संविधान पर सबसे बड़ा हमला था. यह ऐसा मामला है, जिस पर हमारी पीढ़ी को गौर करना होगा.
इमरजेंसी के दौरान जेलों में क्या हुआ
उन्होंने कहा कि इस पर शीर्ष अदालत को फैसला करने की आवश्यकता है. यह राजनीतिक बहस नहीं है. हम सब जानते हैं कि जेलों में क्या हुआ. हो सकता है कि राहत के लिए हमने बहुत देर कर दी हो, लेकिन किसी न किसी को तो यह बताना ही होगा कि जो कुछ किया गया था, वह गलत था. साल्वे ने कहा कि यह मामला ‘काफी महत्वपूर्ण’ है, क्योंकि देश ने देखा है कि आपातकाल के दौरान सिर्फ सत्ता का दुरुपयोग हुआ है.
मामले को बार-बार खोदा नहीं जा सकता
वीडियो कांफ्रेंस के जरिए सुनवाई के दौरान पीठ ने सवाल किया, ‘क्या अदालत इस प्रकरण पर विचार कर सकता है, जो 45 साल पहले हुआ था. हम क्या राहत दे सकते हैं?’ पीठ ने कहा, ‘हम मामले को बार-बार नहीं खोद सकते. वह व्यक्ति भी आज नहीं है.’ साल्वे ने कहा कि राज्य में सांविधानिक मशीनरी विफल होने की स्थिति में संविधान के अनुच्छेद 356 से संबंधित प्रावधानों पर 1994 में एसआर बोम्मई प्रकरण में अदालत के फैसले के बाद यह सिद्धांत विकसित किया गया, जो सरकार के गठन या अधिकारों के हनन के मामले में लागू किया जा सकता है.
याचिकाकर्ता को 25 करोड़ मुआवजा दिलाने का अनुरोध
उन्होंने कहा कि अदालत ने 45 साल बाद आदेश पारित किए हैं. पद के दुरुपयोग के मामले में विचार किया जा सकता है और जहां तक यह सवाल है कि इसमें क्या राहत दी जा सकती है, तो एक दूसरा पहलू है. वीरा सरीन ने याचिका में इस असंवैधानिक कृत्य में सक्रिय भूमिका निभाने वालों से 25 करोड़ रुपए का मुआवजा दिलाने का भी अनुरोध किया है.
25 जून 1975 की आधी रात को लागू की गई थी इमरजेंसी
याचिकाकर्ता वीरा सरीन ने अपनी याचिका में दावा किया है कि वह और उनके पति इमरजेंसी के दौरान तत्कालीन सरकार के प्राधिकारियों और अन्य की ज्यादतियों के शिकार हैं, जो 25 जून 1975 को आधी रात से चंद मिनट पहले लागू की गई थी. सरीन ने याचिका में कहा है कि उनके पति का उस समय दिल्ली में सोने की कलाकृतियों का कारोबार था, लेकिन उन्हें तत्कालीन सरकारी प्राधिकारियों की मनमर्जी से अकारण ही जेल में डाले जाने के भय के कारण देश छोड़ना पड़ा था.
झेलना पड़ा बर्बादी का दंश
याचिका के अनुसार, याचिकाकर्ता के पति की बाद में मौत हो गई और उनके खिलाफ इमरजेंसी के दौरान शुरू की गई कानूनी कार्यवाही का उन्हें सामना करना पड़ा था. याचिका के अनुसार, आपातकाल की वेदना और उस दौरान हुई बर्बादी का दंश उन्हें आज तक भुगतना पड़ रहा है.
35 साल तक दर-दर भटकती रही याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ता के अनुसार, उनके परिवार को अपने अधिकारों और संपत्ति पर अधिकार के लिए 35 साल दर-दर भटकना पड़ा. याचिका के अनुसार, उस दौर में याचिकाकर्ता से उनके रिश्तेदारों और मित्रों ने भी मुंह मोड़ लिया, क्योंकि उनके पति के खिलाफ गैर-कानूनी कार्यवाही शुरू की गयी थी और अब वह अपने जीवनकाल में इस मानसिक अवसाद पर विराम लगाना चाहती हैं, जो अभी तक उनके दिमाग को झकझोर रहा है.
याचिकाकर्ता का आरोप
याचिका में आरोप लगाया गया है कि अभी तक उनके आभूषण, कलाकृतियां, पेंटिंग, मूर्तियां और दूसरी कीमती चल संपत्तियां उनके परिवार को नहीं सौंपी गई हैं और इसके लिए वह संबंधित प्राधिकारियों से मुआवजे की हकदार हैं. याचिका में दिसंबर 2014 के दिल्ली हाईकोर्ट के उस आदेश का भी जिक्र किया गया है, जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्ता के पति के खिलाफ शुरू की गई कार्रवाई किसी भी अधिकार क्षेत्र से परे थी. याचिका में कहा गया है कि इस साल जुलाई में हाईकोर्ट ने एक आदेश पारित करके सरकार द्वारा गैर-कानूनी तरीके से उनकी अचल संपत्तियों को अपने कब्जे में लेने के लिए आंशिक मुआवजा दिलाया था.
Posted By : Vishwat Sen