नर्सिंग कैरियर की चर्चा होते ही हमारे जेहन में एक ऐसी ममतामयी महिला की तस्वीर उभरती है जिसके अंदर सेवा भाव कूट-कूट कर भरा हो. नर्सिंग कैरियर के इसी सेवा भाव को सम्मान देने के लिए प्रतिवर्ष लंदन में गार्जियंस ग्लोबल नर्सिंग अवार्ड (Aster Guardians Global Nursing Award 2023) दिया जाता है और झारखंड के लिए गौरव की बात यह है कि इस वर्ष टाॅप टेन में जगह बनाने वाली भारतीय महिला नर्स शांति टेरेसा लकड़ा का ननिहाल झारखंड में है.
अवार्ड सेरेमनी का आयोजन कल रात लंदन में हुआ जिसमें यूके की मार्ग्रेट शेफर्ड विजेता बनीं. शांति टेरेसा लकड़ा को यह सम्मान भले ना मिल पाया हो, लेकिन इस अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार के मंच से उनके कार्यों की खूब प्रशंसा हुई. प्रभात खबर के साथ लंदन से एक्सक्लूसिव बातचीत में शांति टेरेसा लकड़ा ने बताया कि यह उनके लिए गौरव का क्षण था. विजेता तो कोई एक ही बनता है, लेकिन आपके काम की सराहना होती है तो खुशी मिलती है.
पद्मश्री शांति टेरेसा लकड़ा ने बताया कि उन्हें 2010 में नेशनल फ्लोरेंस नाइटिंगेल नर्सिंग अवार्ड मिला है. इसके अलावा उन्हें 2011 में बेस्ट हेल्थ वर्कर का पुरस्कार और 2011 में ही पद्मश्री पुरस्कार भी मिला है. गार्जियंस ग्लोबल नर्सिंग पुस्कार के लिए टाॅप 10 में जगह बनाने के बाद उन्हें लंदन बुला लिया गया था. वे अभी 16 तारीख तक लंदन में ही हैं, उसके बाद स्वदेश लौटेंगी.
शांति टेरेसा लकड़ा ने बताया कि उनका जन्म एक मई 1972 को अंडमान में हुआ था और यहीं उनका पालन-पोषण भी हुआ है. उनके पिता ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के रहने वाले थे. वह इलाका झारखंड से सटा है, जबकि मां झारखंड की रहने वाली थीं. शांति लकड़ा छह भाई-बहन थे. अपनी बड़ी बहन से प्रेरणा लेकर शांति लकड़ा ने नर्सिंग के कैरियर को चुना. उससे पहले वे बड़ी से सीख कर मरीजों की सेवा करती थीं. 1996-97 में शांति टेरेसा लकड़ा ने मिड वाइफ का कोर्स किया, लेकिन उसके बाद वह अंडमान प्रशासन में क्लर्क का काम करने लगी. बाद में उनकी पोस्टिंग सुदूर इलाके में नर्स के रूप में हुई, उस वक्त उनके मन में व्याप्त सेवा भाव की वजह से उन्होंने नौकरी छोड़ दी और नर्सिंग के कैरियर को अपनाया.
शांति लकड़ा पिछले 22 साल से आदिम जनजातियों के बीच काम कर रही हैं और उन्हें जागरूक कर रही हैं. अपने कैरियर के अविस्मरणीय पलों को याद करते हुए शांति टेरेसा लकड़ा बताती हैं कि जिस साल सुनामी आया था, वह समय बहुत भयावह था. मेरा एक साल का बच्चा था, लेकिन वह मुझसे दूर था. पति, माता-पिता के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. उस वक्त सैकड़ों बीमारों की सेवा में मैं जुटी थी. इतने बीमार और जरूरतमंद लोग, लेकिन स्थिति इतनी खराब कि सभी दवा-दुकानें और यहां तक की रास्ते भी बह गये थे. संपर्क का जरिया नहीं बचा था. लोगों को जंगल के रास्ते जाकर दवाई और खाना लाना पड़ रहा था. शांति लकड़ा ने जरूरतमंदों की सेवा की. कई दिनों तक बिना एक ही कपड़े में बिना खाये- पीये. लोग उन्हें मेडिकल स्टाॅफ समझकर अपनी पीड़ा बताते थे और हरसंभव प्रयास करती थीं उनकी पीड़ा को कम करने का.
उरांव जनजाति की शांति लकड़ा ने बताया कि उनके पति रियल इस्टेट के कारोबार से जुड़े हैं और बेटा चेन्नई में फाॅर्मेसी का कोर्स कर रहा है. वे आजीवन अपने पेशे से जुड़कर लोगों की सेवा करना चाहती हैं. शांति टेरेसा लकड़ा का कहना है कि जब आप किसी जरूरतमंद मरीज की मदद करते हैं और जब वह ठीक होकर आपके प्रति आभार जताता है, तो इतनी खुशी मिलती है कि एेसा लगता है कि जीवन में इससे बड़ा कोई उपकार नहीं है. कोविड के दौरान भी शांति लकड़ा ने जारवा जनजाति के लोगों को वैक्सीनेट कराने के लिए बहुत काम किया. वे आदिम जनजातियों के साथ-साथ पूरे आदिवासी समुदाय के लिए काम करती हैं. वे फिलहाल पोर्ट ब्लेयर के जीबी पंत अस्पताल में काम करती हैं.
Also Read: नहीं सुधर रही रांची रिम्स की स्थिति, गलियारे में गर्मी की तपिश झेलकर इलाज कराने को विवश हुए मरीज