नयी दिल्ली : भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने सोमवार को कहा कि सरकार ने 2009 में फैले स्वाइन फ्लू के प्रकोप से सीख लेते हुए कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए एक ‘कुशल जांच रणनीति’ पर काम किया और अपनी तैयारियों को बढ़ाया .
आईसीएमआर ने कहा कि स्वाइन फ्लू के प्रकोप के समय देश के जांच ढांचे में कमियां सामने आयी थीं. उसने कहा कि जांच की बढ़ती जरूरत को पूरा करने के लिए भारत ने एक ‘कुशल जांच रणनीति’ अख्तियार की है ताकि वायरस से लड़ने में आगे रहा जा सके. आईसीएमआर ने कहा कि देश में इस समय 610 प्रयोगशालाएं हैं जहां रोजाना 1.1 लाख नमूनों की जांच हो रही है.
इनमें 432 प्रयोगशालाएं सरकारी और 178 निजी हैं. जांच क्षमता को 1.4 लाख नमूने प्रति दिन तक बढ़ा लिया गया है और इसे दो लाख प्रतिदिन की क्षमता तक बढ़ाया जा रहा है. वायरस को लेकर बदली हुई समझ के मद्देनजर और भारत तथा अन्य देशों में हो रहे अनुसंधान कार्यों को देखते हुए जांच के मानदंडों को बढ़ाया गया और उनमें विदेश से लौटने वाले लोगों, प्रवासी श्रमिकों तथा कोविड-19 के खिलाफ अग्रिम मोर्चे पर काम कर रहे लोगों को शामिल किया गया.
शीर्ष चिकित्सा अनुसंधान इकाई ने कहा कि अधिकतर राज्य कोविड-19 की जांच के लिए ‘‘ट्रूनैट” मशीनों को लगाने के लिहाज से राष्ट्रीय क्षयरोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के साथ काम कर रहे हैं. इस मशीन के माध्यम से उन क्षेत्रों या जिलों में जांच की जा रही है जहां निजी या सार्वजनिक क्षेत्र में आधुनिक विषाणु विज्ञान प्रयोगशाला नहीं है.
उसने कहा, ‘‘इससे किसी राज्य में अभी तक जांच ढांचा पस्त नहीं हुआ है. किसी राज्य में नमूने बड़ी संख्या में जांच के लिए लंबित नहीं हैं. और अधिक प्रयोगशालाएं स्थापित की जा रही हैं तथा संभावित अधिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों तथा बाकी देश में अतिरिक्त मशीनें लगाई जा रही हैं.”
आईसीएमआर ने कहा, ‘‘एक दशक पहले जब भारत ने 2009 में सबसे भयावह संक्रमण स्वाइन फ्लू का प्रकोप देखा था. तब वायरस संक्रमण के आणविक निदान के लिए बुनियादी ढांचा नहीं होने की वजह से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पंगु हो गयी थी. सरकारी क्षेत्र के स्वास्थ्य कर्मियों ने असहाय होकर महामारी को तेजी से देश के सभी हिस्सों में फैलते देखा था.”
उसने कहा कि देश में उस समय सीरोलॉजी आधारित एलिसा या रैपिड ब्लड जांच की सुविधाएं थीं, लेकिन वायरस चुनौतीपूर्ण था और खून में इसका पता नहीं लगाया जा सकता था. एच1एन1 का पता लगाने का एकमात्र विकल्प आणविक विषाणु विज्ञान (मॉलिक्यूलर वायरोलॉजिकल) जांच थी और यह देश में केवल दो संस्थानों – राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान (एनआईवी), पुणे और राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) , दिल्ली में उपलब्ध थी.
आईसीएमआर ने कहा, ‘‘वह दौर देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिए आंखें खोल देने वाला था जहां जांच क्षमता के अंतराल सामने आए.” उसने कहा कि इससे विषाणु अनुसंधान और निदान प्रयोगशाला (वीआरडीएल) नेटवर्क के माध्यम से भारत में वायरस के लिए आणविक निदान सुविधाओं को मजबूत करने का रास्ता साफ हुआ. आईसीएमआर ने कहा, ‘‘2009 के विपरीत, जनवरी 2020 में, जब कोविड-19 महामारी का खतरा हमारे सामने खड़ा था तो सरकार आईसीएमआर-एनआईवी, पुणे में जांच पद्धति का मानकीकरण कर अपनी तैयारियों को तत्काल बढ़ा पाई.