Unique Village in India: सोनेला पंचायत का मालीपुरा कुसमा गांव भगवान रामचन्द्रजी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है. यह गांव भगवान राम के पुत्र कुश के वंशजों द्वारा बसाया गया था, जिससे इस क्षेत्र का नाम कुसमा पड़ा. गांव की एक खासियत यह है कि यहां के सांखला माली जाति के परिवार आज भी अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन करते हुए पशुओं का दूध और छाछ नहीं बेचते.
गांव के लोग अपने पूर्वजों की मान्यता के अनुसार दूध बेचना पुत्र को बेचने के बराबर मानते हैं. गांव में प्रतिदिन लगभग 300 लीटर दूध होता है, जिसका दही जमाकर सुबह छाछ बनाई जाती है, लेकिन इसे बेचा नहीं जाता बल्कि जरूरतमंदों को मुफ्त में दिया जाता है. घी का उपयोग भी भगवान की पूजा और घर के लिए किया जाता है. यह परंपरा आज भी जारी है और गांव के सभी लोग इसका पालन कर रहे हैं.
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दूध बेचना पुत्र को बेचने के समान (Selling milk is like selling your son)
राजस्थान के सिरोही जिला के कुसमा मालीपुरा में सांखला माली जाति के 25 से अधिक परिवार रहते हैं, जो पूरी तरह से खेती और पशुपालन करते हैं. परंपरा के अनुसार, ये लोग दूध और छाछ बेचते नहीं हैं. 80 वर्षीय कसनाराम सांखला बताते हैं कि उनके पूर्वज भी दूध को बेचना गलत मानते थे और इसे पुत्र को बेचने के बराबर समझते थे. गृहणियां गीता देवी, हंजा देवी, भूरी देवी और अमु देवी ने बताया कि दूध बेचने से घर में दरिद्रता और दुख आता है, इसलिए वे भी इस परंपरा का पालन करती हैं.
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गांव के लोग मंदिरों में भजन-कीर्तन और धार्मिक आयोजनों के लिए भी दूध और छाछ मुफ्त में देते हैं. ये परिवार ब्रह्माणी मां और भगवान राम को अपने आराध्य मानते हैं और शराब से दूर रहते हैं. बुजुर्गों का कहना है कि भगवान राम जब वनवास पर थे, तब वे कुसमा के पास मोरिवा पहाड़ी से गुजरे थे, और गांव का नाम उनके पुत्र कुश के नाम पर पड़ा था.
गांव की महिलाएं रोज सुबह चार बजे उठकर छाछ बनाने का काम करती हैं. पहले यह काम हाथों से किया जाता था, अब मशीन का उपयोग होता है, लेकिन छाछ बेची नहीं जाती. जो भी व्यक्ति आता है, उसे निशुल्क छाछ दी जाती है. गर्मियों में तो छाछ के लिए लोगों की भीड़ लग जाती है और कोई भी घर से खाली हाथ नहीं जाता. परिवार के मुकेश कुमार, भीखा राम, दलपत कुमार, सपना कुमारी और करिश्मा जैसे सदस्य भी छाछ के वितरण में मदद करते हैं. सांखला गोत्र के लोग अपने पूर्वजों के समय से ही दूध और छाछ नहीं बेचते हैं. उनके बुजुर्गों ने इसे पुत्र को बेचने के समान बताया था, और आज भी यह परंपरा उसी श्रद्धा के साथ निभाई जा रही है.
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