-सीमा जावेद-
उत्तराखंड हादसा : 12 नवंबर की सुबह उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में निर्माणाधीन सिलक्यारा सुरंग का 30 मीटर का हिस्सा ढह गया. तब से टनल में फंसे 41 मजदूरों को बचाने की कोशिशें लगातार जारी हैं, लेकिन अभी तक मजदूरों को निकालने में सफलता नहीं मिली है, हालांकि उम्मीद जताई जा रही है कि आज शाम तक मजदूरों को बाहर निकाल लिया जाएगा.
मजदूरों के बचाव कार्यों के बीच यह सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि आखिर यह नौबत क्यों आयी ? यह बात अब जग जाहिर है की हिमालय क्षेत्र एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है जो तेज बारिश, बादल फटने और खुदाई आदि किसी भी गतिविधि से दरकने लगता है. मनसा देवी, जोशी मठ , केदारनाथ आपदा जैसे इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं. खुदाई, वनों की कटाई या भारी बारिश के कारण इन इलाकों में भूस्खलन का खतरा रहता है. ऐसे क्षेत्रों में लगातार निर्माण कार्य से मिट्टी का क्षरण हो सकता है. लेकिन उसके बाद भी उत्तराखंड या हिमालय के अन्य क्षेत्रों में जिस प्रकार निर्माण हो रहे हैं वह चिंताजनक हैं.
इससे बचने के लिए किसी को पर्यावरणीय परिणामों को समझने और उसे कम करने वाले उपायों को लागू करने के लिए निर्माण से पहले पूरी तरह से पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन (ईआईए) करना चाहिए. भूस्खलन, चट्टान गिरने और हिमस्खलन के जोखिम का आकलन करने के लिए इलाके की स्थिरता का भी मूल्यांकन गहराई से होना चाहिए.
विशेषज्ञों का कहना है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और अधिक विनाश का कारक बनता है और ऐसे में विकास के लिए होने वाले निर्माण अधिक आपदाओं को न्योता देंगे. अधिकांश का मानना है कि जलवायु परिवर्तन, अनियोजित विकास और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही इस घटनाक्रम का कारक है. इन क्षेत्रों में निर्माण कार्य मानव जीवन के लिए लगातार खतरा पैदा करते हैं. इसलिए ऐसी परियोजनाओं को शुरू करने से पहले अधिक गहन पर्यावरण अध्ययन और भू-मानचित्रण की आवश्यकता है. आज के दौर में जब तकनीक और विज्ञान अपने चरम पर पहुंच गये है और हम चंद्रमा की ऊंचाइयों को छू चुके हैं तब जमीन की गहराई को को समझने के लिए उस तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है ? सुरंग निर्माण में ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (जीपीआर) की अनुपस्थिति, इमरजेंसी एक्जिट की कमी और 2-3 फीट के अंतराल पर स्टील पाइप या बार की अनुपस्थिति घटना के कारणों में से थे.
दरअसल भारत में पर्यावरण संबंधी मामलों में जवाबदेही की कमी है. इसमें ‘लॉ ऑफ टोर्ट्स’ के तहत मुआवज़ा और सजा दोनों के प्रावधान लचर हैं. ऐसे में जो एजेंसी कार्य करवाते हैं वह सुरक्षा के उच्चतम मानकों के अनुपालनों का तो दूर की बात है कम का भी ख्याल नहीं रखते. जब दुर्घटना हो जाती है तब सरकार की ओर से रेस्क्यू ऑपरेशन होते है और सरकारी एजेंसियां और सेना के जवान मिलकर मुसीबत से निपटते हैं. अत: आवश्यक यह है कि निर्माण कार्य करने वाली एजेंसी हिफाजत के तमाम कदम पहले उठाएं और उनकी जवाबदेही भी तय की जाए.
(लेखिका प्रसिद्ध पर्यावरणविद् हैं)
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