मेरी माटी-मेरा देश : जब लड़ी गई थी जंग आजादी की, तो भारत के कई वीर नायकों और वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी, लेकिन हम याद उन्हें भी कर रहे हैं, जिनकी वीरता को शायद वह पहचान पूरी तरह नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे. मेरी माटी, मेरा देश’ शृंखला में आज हम भारत मां की एक ऐसी बेटी से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, जो फूलों की बरसात कर और तिलक लगाकर स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों का हौसला बढ़ाती थीं. सत्याग्रहियों के जेल जाने पर उनके घर-परिवार की देखभाल करती थीं. इस वीरांगना का नाम है- बिश्नी देवी साह, जो जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी मानी जाती हैं. पेश है अल्मोड़ा की इस बहादुर बेटी की कहानी……
अल्मोड़ा की रहने वाली थीं बिश्नी देवी साह
स्वाधीनता आंदोलन के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने वाली गुमनाम वीरंगानाओं का जब-जब जिक्र होगा, बिश्नी देवी साह जरूर याद आएंगी. अल्मोड़ा की रहने वालीं बिश्नी देवी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल जाने वाली उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी मानी जाती हैं. उनका व्यक्तिगत जीवन पीड़ा से भरा रहा. फिर भी, अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया. अल्मोड़ा के नंदा देवी मंदिर में उन्होंने काफी समय बिताया, जहां वह स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी बैठकों में नियमित रूप से हिस्सा लेती थीं. जेल जाने वाले आंदोलनकारियों को फूल देती थीं. उनकी आरती करके उनके जज्बे को सलाम करती थीं. आंदोलनकारियों की महिलाओं का हौसला बढ़ाती थीं. जेल में बंद सेनानियों के परिजनों के लिए धन भी इकट्ठा करती थीं.
25 मई, 1930 में पकड़ीं संघर्ष की राह
बात 25 मई, 1930 की है. अल्मोड़ा नगर पालिका पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का फैसला किया गया. स्वयंसेवकों के एक जुलूस, जिसमें महिलाएं भी थीं. उस जुलूस को अंग्रेज सैनिकों ने रोका. इसके बाद संघर्ष हुआ, जिसमें मोहनलाल जोशी व शांतिलाल त्रिवेदी जैसे नायक जख्मी हो गये. इस घटना से वहां पर मौजूद बिश्नी देवी विचलित नहीं हुईं. उन्होंने दुर्गा देवी पंत व तुलसी देवी रावत समेत अन्य महिलाओं के साथ ध्वजारोहण किया.
अंग्रेजों ने जेल किया कैद
अंग्रेजी हुकूमत को महिलाओं की यह ललकार पसंद नहीं आई. फिर अंग्रेज पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल में बंद कर दिया. जेल से रिहाई के बाद वह खादी के प्रचार में जुट गयीं. तब अल्मोड़ा के आसपास स्वदेशी वस्तुओं को वितरित करने के लिए स्वयंसेवकों की कमी थी. दुकानदार उन वस्तुओं की अधिक कीमत वसूल रहे थे. बिश्नी देवी ने फैसला लिया कि वह घर-घर जाकर सिर्फ पांच रुपये में चरखा बेचेंगी. तब बाजार में चरखे की कीमत 10 रुपये थी. उन्होंने महिलाओं को चरखा चलाना सिखाया. ऐसा करके उन्होंने न सिर्फ खादी का प्रसार किया, बल्कि लोगों को स्वावलंबी भी बनाया.
पंत समिति की बनीं प्रबंधक
अल्मोड़ा में हरगोविंद पंत के नेतृत्व में कांग्रेस समिति का गठन किया गया था. बिश्नी देवी को समिति की महिला प्रबंधक के रूप में चुना गया. 1931 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया. जेल से रिहा होने के बाद फिर उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आवाज और बुलंद की. अदम्य साहस और मृदु व्यवहार की धनी बिश्नी देवी साह का 1972 में निधन हो गया.
Also Read: मेरी माटी, मेरा देश : ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़ वतन पर मर मिटीं पंजाब की गुलाब कौर
डाक विभाग ने ऐसे दिया सम्मान
इस वीरंगाना को पहचान दिलाने के लिए 2021 में डाक विभाग ने पहल की. इसके तहत डाक विभाग के लिफाफे पर उनकी तस्वीर और उनका जीवन परिचय लिखा गया, ताकि नयी पीढ़ी उन्हें जान सके. पिछले वर्ष राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी स्वाधीनता आंदोलन में बिश्नी देवी साह के योगदान को याद किया था.