west Bengal: भाजपा की हार पर पूर्व राज्यपाल तथागत रॉय का खुलासा 

west Bengal: भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान को ममता बनर्जी ने बंगाली अस्मिता से जोड़ दिया. वे लोगों को यह समझाने में कामयाब रही कि भाजपा को बंगाल की संस्कृति का ज्ञान नहीं है और बाहरी लोगों के जरिये राज्य पर शासन करना चाहती हैं.

By Anjani Kumar Singh | July 13, 2024 7:33 PM
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west Bengal: त्रिपुरा और मेघालय के पूर्व राज्यपाल और पश्चिम बंगाल में भाजपा अध्यक्ष रहे तथागत रॉय ने अपने संस्मरण में 2021 के विधानसभा चुनाव के विषय में कई ऐसे तथ्य उजागर किये हैं, जिसे बहुत कम लोग जानते होंगे. रॉय की हाल ही में आयी किताब ‘डिजायर्स, ड्रीम्स एंड पॉवर्स’ में उन कारणों का विवरण दिया गया है, जिसकी वजह से पश्चिम बंगाल में वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. रॉय ने किताब में लिखा है कि 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा का अभियान एक निर्देश पुस्तिका के रूप में काम कर सकता है कि चुनाव कैसे नहीं लड़ना चाहिये. हार का विश्लेषण करते हुये रॉय लिखते हैं कि, “चुनाव मशीनरी पर कैलाश विजयवर्गीय के नेतृत्व वाली चौकड़ी का पूरा नियंत्रण था. यह चौकड़ी पूरी तरह से नए लोगों, कुछ ‘पैराट्रूपर्स’ और हिंदी भाषी लोगों के साथ चलने को लेकर दृढ़ थी. उन्होंने एक ‘योगदान मेला’ (ज्वाइनिंग फेयर) भी आयोजित किया, जिसमें अन्य दलों से आए दलबदलू लोग अपनी मूल मान्यताओं की अनदेखी करते हुए सामूहिक रूप से भाजपा में शामिल हुए. पैराट्रूपर्स नाममात्र के बंगाली निवासी थे, जो आमतौर पर राज्य से दूर, ज्यादा समय नयी दिल्ली में रहते थे, जिन्हें अक्सर बंगाली में प्रवासी बंगाली कहा जाता था. वे पैराट्रूपर्स की तरह बंगाल आये और पर्दा उठने पर नयी दिल्ली के लिए रवाना हो गये.”

समर्पित कार्यकर्ताओं की हुई उपेक्षा

हालांकि उनके पास बंगाली हिंदू नाम थे और वे बंगाली बोलते थे, लेकिन उन्हें पश्चिम बंगाल और उसकी राजनीति के बारे में कुछ भी पता नहीं था. इतना ही नहीं इस चौकड़ी ने पुराने भाजपा कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं जो 2014 से पहले पार्टी के साथ थे, उन्हें पूरी तरह से दरकिनार कर दिया. इसके कारण कुछ पुराने भाजपा के कार्यकर्ता को नये राज्य प्रमुख के समक्ष खुद को पेश करने में अप्रिय अनुभव का सामना करना पड़ता था. अध्यक्ष ने नये कार्यकर्ताओं को भाव देना शुरू कर दिया, साथ ही यह भी प्रचारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटें इन्हीं पैराशूट कार्यकर्ताओं के कारण मिली है. चौकड़ी ने कुछ पुराने राज्य स्तरीय नेताओं को केवल नाममात्र की जिम्मेदारी दीं और पूरा अभियान नये लोगों के साथ शुरू किया. लेखक ने चौकड़ी पर कई तरह के आरोप लगाते हुए लिखा है कि पुराने लोगों को इसलिये जिम्मेदारी नहीं दी गयी कि नये लोग सवाल नहीं पूछेंगे और चौकड़ी पैसा कमाती रहेगी. विधानसभा चुनाव भाजपा नहीं हारी बल्कि चौकड़ी ने धांधली कर चुनाव हरवा दिया, जैसे सट्टेबाजी के कारण मैच प्रभावित हो जाता है.

बंगाली भावना के मनोविज्ञान की कमी

भाजपा के प्रचार शैली में भी कई खामियां देखी गयी. मूलभूत खामियों में बंगाली भावना और मनोविज्ञान के समझ की स्पष्ट कमी थी. अभियान ऐसे चलाया गया मानो यह कोई और हिंदी-बेल्ट का राज्य हो. उदाहरण के लिए, भारत के हर राज्य का अपना पसंदीदा हिंदू देवता या पवित्र व्यक्ति है. हिंदी बेल्ट में, यह मुख्य रूप से श्री राम हैं, लेकिन अन्य जगहों पर यह अलग-अलग है- महाराष्ट्र में भगवान गणेश, ओडिशा में भगवान जगन्नाथ, असम में शंकर देव, दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में भगवान वेंकटेश्वर या भगवान अयप्पा और कर्नाटक में भगवान मंजूनाथ. बंगाल में, यह मां दुर्गा या मां काली हैं. मां दुर्गा या मां काली के नामों का आह्वान जय श्री राम के नारे की तुलना में बंगाली हिंदुओं के ज्यादा करीब है और उसके मन में यह आसानी से गूंजता है. चौकड़ी ऐसी बारीकियों से बेखबर दिखाई दी. राज्य के नेताओं में बहुत अधिक आत्मसंतुष्टि थी, जो मानते थे कि 2019 के चुनाव में लोकसभा में 18 सीटें हासिल करने के बाद, राज्य को संभालना आसान होगा. उन्होंने नारा दिया ‘उनीसे हाफ, एकुशे साफ’ (2019 में आधा, 2021 में पूरी तरह से हार). यहां तक की कैबिनेट गठन को लेकर भी अटकलें लगायी जाने लगी और किस व्यक्ति को कौन सा विभाग दिया जायेगा इसका भी खाका तैयार किया जाने लगा. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनाव परिणाम  को लेकर चौकड़ी कितनी बेखबर थी.

दिलीप घोष के अभद्र भाषा को लोगों ने किया नापसंद

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रहे दिलीप घोष, एक विशेष रूप से निर्मित कारवां जैसे ट्रक में राज्य भर में घूमते हुए, एक ही विषय पर उग्र भाषण देते थे. उनके भाषण में  सत्ता में आने पर  ‘तृणमूलियों’ से किस तरह से बदला लेंगे और श्मशान घाटों तक लाशों की लंबी कतार लगा देंगे, जैसे शब्द हुआ करता था. जब उनसे पूछा गया कि राज्य अध्यक्ष द्वारा इस तरह की अभद्र भाषा का इस्तेमाल करना उचित है, तो उन्होंने जवाब दिया कि वह ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जिसे ममता समझती हैं. इन भाषाओं ने तृणमूल समर्थकों को भड़का दिया, जिसके कारण चुनाव परिणामों के बाद असहाय भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसक प्रतिशोध हुआ, जिसके पास उनकी रक्षा  करने के लिये लिये दिलीप घोष की तरह केंद्रीय फोर्स नहीं था. एक दिलचस्प तथ्य यह है कि मई 2019 में लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत के तुरंत बाद, उसी वर्ष दिसंबर में हुए राज्य विधानसभा के तीनों उपचुनावों में उसे हार का सामना करना पड़ा. इनमें विधानसभा की वह सीट भी शामिल थी, जिसे दिलीप घोष ने लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद छोड़ दिया था.

नेतृत्व ने हार की गंभीरता से समीक्षा नहीं की

चुनाव परिणाम के बाद नेतृत्व ने इसे नजरअंदाज कर दिया, ऐसा दिखावा किया कि जैसा बंगाल में कुछ हुआ ही नहीं है. यह भविष्य का संकेत था. पर्यवेक्षकों ने यह टिप्पणी की कि अचानक इतनी गिरावट की समीक्षा की जानी चाहिए. इतनी जल्दी पार्टी को करारी हार कैसे मिली और किसके कारण मिली, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. दिलीप घोष ने अपने भाषणों में असंयमित भाषा का इस्तेमाल किया, जिससे संभावित भाजपा मतदाताओं की एक बड़ी संख्या अलग-थलग पड़ गई. कोलकाता क्षेत्र के मध्यम वर्ग के भद्र लोक मतदाता असमंजस की स्थिति में रहे. ममता बनर्जी को बरमूडा पहनने की सलाह देने वाली उनकी अजीबोगरीब टिप्पणी को बेहद अपमानजनक माना गया. कई लोगों ने माना कि केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष इस तरह का बयान दे रहे हैं जो उपयुक्त नहीं है. कोलकाता के मतदाताओं ने हमेशा राज्य के बाकी हिस्सों के साथ एक दिलचस्प विपरीत संबंध प्रदर्शित किया है. उदाहरण के लिए जब 1960 के दशक की शुरुआत तक कांग्रेस को अजेय माना जाता था, तो कोलकाता वामपंथियों की ओर झुका था. इसके विपरीत, जब सीपीआई (एम) को भी उतना ही अजेय माना जाता था, तो कोलकाता ने कांग्रेस और बाद में तृणमूल के लिए मतदान किया. दूसरे शब्दों में, राज्य में स्थापित व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह आमतौर पर कोलकाता से शुरू हुआ. हालांकि दिलीप घोष के भाषणों ने कोलकाता को राज्य के बाकी हिस्सों के साथ एकजुट होकर मतदान करने के लिए प्रेरित किया.

क्षेत्रीय अस्मिता को उभारने का ममता को हुआ लाभ

भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान को ममता बनर्जी ने बंगाली अस्मिता से जोड़ दिया. वे लोगों को यह समझाने में कामयाब रही कि भाजपा को बंगाल की संस्कृति का ज्ञान नहीं है और बाहरी लोगों के जरिये राज्य पर शासन करना चाहती हैं. ममता यह पेश करने में सफल रही कि वे बंगाल की बेटी हैं. इसके अलावा ममता ने लोगों से संवाद स्थापित करने के लिए दीदी के बोले, दुआरे सरकार, दुआरे राशन जैसे कार्यक्रम की शुरुआत की. ममता का प्रचार अभियान पूरी तरह अपने मजबूत मुद्दों पर फोकस रहा. वे बेरोजगारी, प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण, भ्रष्टाचार के मुद्दे को दूर रखने में सफल रही. भाजपा की सबसे बड़ी नाकामी उम्मीदवारों का चयन रही. तृणमूल से आए लोगों को पार्टी ने टिकट दिया, जबकि ममता ने कई नये चेहरे को मैदान में उतारकर एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को कमजोर कर दिया. वहीं तृणमूल के दागी लोगों को टिकट देने का नुकसान भाजपा को उठाना पड़ा. इसके अलावा प्रशांत किशोर की रणनीति और ममता का नेतृत्व कौशल भाजपा पर विधानसभा चुनाव में भारी पड़ा. 

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