नई दिल्ली : राजनीति सत्ता के गलियारे तक पहुंचने का एक सशक्त साधन है, मगर इसके क्या मानदंड हैं और राजनेताओं के आपसी संबंध किस प्रकार के होने चाहिए, इसके उदाहरण बिरले ही देखने को मिलते हैं. आज सत्ता पक्ष के नेता विपक्ष के साथियों पर कटाक्ष करने के दौरान भाषा और मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ रहे हैं, तो विपक्ष के नेता भी सत्ताधारियों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करने से गुरेज नहीं कर रहे हैं. आज भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी का जन्मदिन है और वाजपेयी जी ने न केवल राजनीति बल्कि उससे इतर साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी एक लक्ष्मण रेखा खींची है, जिसके उच्च मानक स्तर तक पहुंचना हर किसी के वश की बात नहीं है. ये वही वाजपेयी थे, जिनके खिलाफ पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू प्रचार करने नहीं गए थे.
प्रभात खबर में झारखंड के कार्यकारी संपादक अनुज सिन्हा अपने एक संस्मरण में लिखते हैं, ‘प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा संसद में दिए गए भाषण से काफी प्रभावित थे. उन्होंने एक विदेशी टीम से वाजपेयी जी का परिचय कराते हुए कहा था- एक न एक दिन यह युवक (तब वाजपेयी युवा सांसद थे) देश का प्रधानमंत्री बनेगा. नेहरू की भविष्यवाणी सच साबित हुई.’
अनुज सिन्हा आगे लिखते हैं, ‘1962 का लोकसभा चुनाव हो रहा था. तब भी नेहरू चाहते थे कि वाजपेयी चुनाव जीत कर संसद में पहुंचें. वाजपेयी उत्तरप्रदेश के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बने. इससे पहले 1957 में बलरामपुर से ही वाजपेयी सांसद बने थे. कांग्रेस (नेहरू नहीं) चाहती थी कि वाजपेयी हारें. इसलिए वाजपेयी के खिलाफ दमदार महिला नेता सुभद्रा जोशी को मैदान में उतारा गया. वह राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी रही थीं. जब वाजपेयी के खिलाफ प्रचार के लिए नेहरू को कहा गया, तो उन्होंने वहां जाने से इनकार कर दिया. पार्टी को उन्होंने बता दिया कि उन पर बलरामपुर में प्रचार के लिए दबाव नहीं दिया जाए. नेहरू के इनकार करने के बाद वहां प्रचार के लिए फिल्म अभिनेता बलराज साहनी को भेजा गया. असर यह हुआ कि वाजपेयी 1962 का चुनाव हार गए. वाजपेयी को सत्ता और विपक्ष दोनों सदन में देखना और सुनना चाहता था. इसलिए हार के तुरंत बाद वाजपेयी को राज्यसभा भेज दिया गया.’
वाजपेयी भी नेहरू भी जवाहर लाल नेहरू का सम्मान किया करते थे. 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी के खिलाफ जबरदस्त लहर थी. केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी थी. इस सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बनाए गए थे. उस दौर में सत्ता बदलते ही नौकरशाहों ने कांग्रेस के निशान वाले चिह्न और उनके नेताओं की तस्वीर हटाना शुरू कर दिया था. नौकरशाहों को लग रहा था कि इंदिरा विरोध पर बनी सरकार में कांग्रेस की निशानियों से सत्ता में बैठे लोग नाराज हो सकते हैं. एक दिन वाजपेयी जब अपने दफ्तर पहुंचे, तो देखा कि दफ्तर की दीवार का एक हिस्सा खाली है. वहां एक निशान बना हुआ था. उन्होंने तुरंत अपने सचिव को बुलाकर कहा यहां पर नेहरूजी की तस्वीर हुआ करती थी. मैं पहले भी इस दफ्तर में आया-जाया करता था. मुझे याद है कि इस जगह पर नेहरू जी की तस्वीर थी. वो कहां गई? मुझे तुरंत वह वापस चाहिए.
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अटल बिहारी वाजपेयी संसद में नए सांसद थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की खुलकर आलोचना करते थे. नेहरू भी उन्हें खूब पसंद करते थे. पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद जब संसद में अटल बिहारी वाजपेयी श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, ‘आज एक सपना खत्म हो गया है. एक गीत खामोश हो गया है. एक लौ हमेशा के लिए बुझ गई है. यह एक ऐसा सपना था, जिसमें भुखमरी और भय नहीं था. यह एक ऐसा गीत था, जिसमें गीता की गूंज थी तो गुलाब की महक भी.’ उन्होंने आगे कहा था, ‘यह चिराग की ऐसी लौ थी जो पूरी रात जलती थी. हर अंधेरे का इसने सामना किया. इसने हमें रास्ता दिखाया और एक सुबह निर्वाण की प्राप्ति कर ली. मृत्यु निश्चित है, शरीर नश्वर है. वह सुनहरा शरीर जिसे कल हमने चिता के हवाले किया. उसे तो खत्म होना ही था, लेकिन क्या मौत को भी इतना धीरे से आना था. जब दोस्त सो रहे थे, गार्ड भी झपकी ले रहे थे, हमसे हमारे जीवन के अमूल्य तोहफे को लूट लिया गया.’