मुम्बई के वेटलेन्ड्स में सैकड़ों राजहंसों का झुंड दिखना. बिहार के सीतामढ़ी से नेपाल स्थित हिमालय की चोटी का झलकना. पंछियों की चहचहाहट से दिल्ली की सुबह का होना. कोलकाता के घाटों पर वर्षों बाद गंगा डॉलफिन का देखा जाना. इस तरह के कई चमत्कार पिछले दिनों देश-दुनियां के कई हिस्सों में देखे गए. पिछले तीस वर्षों के दौरान ऐसा पहली बार हुआ. आज अरसे बाद विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर पर्यावरण और इसके घटकों के क्षरण के प्रति रोष और प्रकृति को सहेजने हेतु वैश्विक व राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल न कर पाने की निराशा की चर्चा से पहले हमें प्रकृति की तरफ से सुखद और सकारात्मक संदेश मिले हैं. फिलवक्त हमारे पास देखने को नीला आसमान है, और सांस भरने को स्वच्छ वायु. पढ़े पल्लव आनंद की रिपोर्ट
आज से ठीक पांच महीने पहले स्पेन की राजधीनी मैड्रिड में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ की 25वीं बैठक कार्बन मार्केट के नियम और कार्बन के उत्सर्जन में कमी को लेकर सहमति न बन पाने की वजह से बेनतीजा रहीं. विश्व समुदाय की ओर से आयोजित ऐसी कितनी ही बैठकों का कोई हल नहीं निकला; क्योंकि सबके अपने-अपने आर्थिक हित हैं और विकास के अपने मॉडल. लेकिन कोरोना महामारी से उपजी आपदा से समूचे विश्व की रफ्तार थम गई. सड़कें वीरान और उद्योग-धंधे ठप्प हो गए. परिणामतः प्रकृति ने संतुलन स्थापित कर लिया. कुदरत की खूबसूरती हमें नजर आने लगी.
विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट-2019 के मुताबिक दुनियां के सर्वाधिक प्रदुषित 30 शहरों की सूची में अकेले भारत के 20 शहर शामिल थे. लॉकडाउन के बाद की रिपोर्ट अब बताती है कि भारत के 80 से अधिक शहरों की हवा की गुणवत्ता में नाटकीय रूप से सुधार आया है. अकेले दिल्ली की बात करें तो यहां न्यूनतम वायु गुणवत्ता इंन्डेक्स 200 से उपर रहा करता था. सर्वाधिक प्रदूषण के दिनों में यह सीमा 900 तक पहुंच जाती थी; वहीं अब यह 20 के करीब रह गया है.
ऐरोसॉल्स, जिसमें नाईट्रोजन डाईऑक्साइड, कार्बन मॉनोक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर जैसी विषैली गैसें और अवयव मौजूद होते हैं, की मात्रा में भी भारी कमी दर्ज की गई है. इस कारण स्वाभाविक रूप से ही सांस व हृदय से जुड़ी बीमारियों से ग्रसित होने वाले लोगों में भी कमी देखी गई. इन बीमारियों की वजह से भारत में प्रत्येक वर्ष करीब 12 लाख लोगों की मौत हो जाती है. आईआईटी रूड़की ने अपने हालिया शोध में बताया कि हरिद्वार में गंगा का पानी पीने लायक हो गया है और बायोकेमीकल ऑक्सीजन डिमांड में भी काफी कमी आई है, जिससे जलीय जीव-जंतुओं को स्वच्छ वास मिला है. निश्चित रूप से ये बदलाव उद्योगों से बड़ी मात्रा में कचरों के प्रवाह के बंद होने, घाटों पर मानवीय गतिविधियां शून्य हो जाने और डीजल से चलने वाले मोटरबोट्स व जहाजों के परिचालन में कमी के फलस्वरूप घटित हुए.
अब जबकि लॉकडाउन खत्म होने को है; मानवीय और औद्यौगिक गतिविधियां धीरे-धीरे सामान्य होती जा रही हैं. आर्थिक विकास के पहिये को पटरी पर लाने के लिए यह आवश्यक भी है. लेकिन हमारे समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि, क्या हम प्रकृति की इस सुन्दरता को खो देंगे? और पहले की ही तरह बदतर हालात में जीने को विवश होंगे? व्यवस्था और नागरिक, दोनों को मिलकर इस चुनौती का हल ढूंढना होगा. लॉकडाउन के दौरान हमने सीमित संसाधनों के साथ जीवन का तारतम्य बिठाना सीख लिया हैं; हमें आगे भी इसे जारी रखने की जरूरत होगी. नीचे कुछ उपायों का जिक्र किया गया है, जिसे अमल में लाया जा सकता है:
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वायु प्रदूषण के लिए परिवहन एक जिम्मेदार कारक है. सिर्फ दिल्ली में 11 मिलियन कारों का पंजिकरण है. लॉकडाउन के दौरान घर से काम करने की व्यवस्था को आगे भी जारी रखा जाए, ताकि लोगों को निजी या सार्वजनिक वाहनों का उपयोग कम से कम करना पड़े.
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फ्रांस की सरकार साइकिल को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी दे रही है. हमारे यहां भी साइकिल के उपयोग को बढ़ावा देने की बात सिर्फ प्रतीकात्मक न रहे, बल्कि लोगों को छोटी दूरी के लिए इसे अपने जीवन हिस्सा बनाना चाहिए. सरकार साइकिल के पृथक पथ और इसके लिए सुरक्षा को सुनिश्चत करे.
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आने वाले वक्त में औद्योगिक घरानों, केन्द्र व राज्य सरकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे औद्योगिक विकेन्द्रीकरण के मॉडल को आकार दें; इससे रोजगार तथा जरूरी सामानों के लिए बड़े शहरों पर निर्भरता खत्म होगी. बड़े शहरों में प्रदूषण की मात्रा में कमी आएगी और ये शहर जनसंख्या के भारी बोझ से भी मुक्त रह सकेंगे.
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विशेषकर नदियों में अपशिष्ट प्रवाहित करने वाले उद्योगों के लिए सख्त दिशानिर्देश जारी किए जाएं. सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगाना उनके अनिवार्य हो. इसके साथ ही अलग-अलग प्रकार के कचरों का समुचित प्रबंधन और उसकी रीसाइक्लिंग की व्यवस्था जरूरी हो.
प्रकृति और पर्यावरण ने अपने बदलाव के जरिये हमें दिखाया है कि उसका निर्मल औऱ स्वच्छ रहना हमारे लिए कितना आवश्यक है. आज विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर एक बार पुनः हमें सोचना होगा कि हमारे विकास का रास्ता क्या हो. हमारी जीवन शैली प्रकृति आधारित हो या तथाकथित आधुनिकता की चादर लपेटे गर्त की और ले जाने वाली. आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर दुनियां देने के लिए हमें सतत विकास का हाथ थामना ही होगा. अगर पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को नजरअंदाज कर हम विकास की अंधी दौड़ में बहते रहे तो संभव है कि भविष्य में कोई अन्य महामारी या विनाशकारी आपदा हमारी प्रतीक्षा कर रही होगी.