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विश्व आदिवासी दिवस: क्या होता है देवगुड़ ? जानें छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासियों के त्योहार के बारे में

वर्तमान समय में जो बच्चे गांव से बाहर रहकर पढ़ाई कर रहे हैं. या किसी कारण से गांव में नहीं रह पा रहे हैं. ऐसे लोग आदिवासी परंपरा को नहीं जान पाते हैं और उन्हें नहीं समझ पाते हैं. तो पारंपरिक व्यवस्था को बनाए रखने को सरकार और प्रशासन एक जिम्मेदारी के तौर पर देख रहा है.

(अमिताभ कुमार) : 9 अगस्त यानी आदिवासी दिवस, इस दिन कई कार्यक्रम देशभर में आयोजित किये जा रहे हैं. लोग गूगल के सर्च बॉक्स में जा रहे हैं और इससे संबंधित खबरों को ढूंढ रहे हैं. हो सकता है कि आप भी आदिवासी परंपरा और उनसे संबंधित चीजें अधिक से अधिक जानने की इच्छा रखते हों. तो आइए हम आपको आज छत्तीसगढ़ के बस्तर लिये चलते हैं और वहां इन दिनों चल रही एक योजना से आपको रू-ब-रू करवाते हैं. दरअसल, हम जिस योजना के बारे में आपको आज बताने जा रहे हैं उसका नाम आदिवासी संस्कृति का परिरक्षण एवं विकास योजना है. इसके अंतर्गत आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में आदिवासियों के पूजा एवं श्रद्धा स्थलों पर देवगुड़ के निर्माण मरम्मत योजना संचालित हो रही है. आइए हम आपको देवगुड़ के बारे में बताते हैं कि आखिर ये है क्या

देवगुड़ के संबंध में हमने छत्तीसगढ़ के बस्तर में मंगल कुंजाम से बात की. उन्होंने इसके संबंध में विस्तार से बताया. उन्होंने बताया कि आदिवासियों के अलग-अलग गांव होते हैं. इन गांवों में उनके अपने पारंपरिक त्योहार होते हैं. गांव में गायता और पटेल होते हैं. उसके बाद पुजारी होते हैं. गांव में कोई भी त्योहार होता है तो सबसे पहले गांव के लोग माता यानी अपने अराध्य को समर्पित करते हैं. इसके बाद पुरखों को चढ़ाया जाता है. फिर परिवार के लोग उसे खाते हैं. तो अलग-अलग पर्व के हिसाब से अलग-अलग देव होते हैं. परंपरिक हिसाब से आदिवासियों के जो देवी-देवता हैं वो खुले में रहते हैं. अभी प्रशासन की ओर से एक कदम उठाया गया है जिसके तहत इन देवी देवताओं के पवित्र स्थल को संरक्षित करने का प्रयास किया जा रहा है.

आदिवासियों के कुछ त्योहार हैं खास

बीज पंडुम

मंगल कुंजाम बताते हैं कि हर गांव में त्योहार एक जैसा ही होता है. उसकी तिथि अलग होती है, साथ ही महीने लगभग एक ही होते है, बीज पंडुम (बीज बोने का त्यौहार ) की बात करें तो सबसे पहले गांव की जिम्मेदारी माता तलुड मुत्ते का रेंगड़ा (शीतला माता ) को दी जाती है और पहले बीज त्योहार के नाम से बीज चढ़ाया जाता है. इसके बाद अलग-अलग घर के अनुसार उस त्योहार को मनाते है.

गादी पंडूम

बात गादी पंडूम करें तो इसका मतलब गांव में नये फल-फूल के आगमन से होता है. पेड़-पौधे अच्छे हों…जैसे उदाहरण के तौर पर महुआ का फूल इस साल अच्छा हो इसीलिए उसकी भी जिम्मदारी माता शीतला पर छोड़ी जाती है. सभी लोग एक साथ माता के पास अर्जी विनीति करते हैं और गौर सिंगार के साथ नाच गाकर इस त्योहार को मनाते हैं.

कुरमी पंडुम

नवा खाई पर्व को गांव में कुरमी पंडुम के नाम से मनाया जाता है. कुरमी पंडुम में नया मक्का, कोदो, कुटकी चावल ,नया भाजी खाने के लिए करते है. कोड़ता पंडुम के रूप में नया धान खाने और घर की बड़ियो में लागया हुआ कद्दू, कंदमूल आदि खाने के लिए किया जाता है. इस त्योहार में घर-घर में गांव के पूर्वजों और देवी-देवताओं की पूजा करने के बाद ही लोग इसको खाते हैं.

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देवगुड़ आखिर है क्या

कुंजाम बताते हैं कि वर्तमान समय में जो बच्चे गांव से बाहर रहकर पढ़ाई कर रहे हैं. या किसी कारण से गांव में नहीं रह पा रहे हैं. ऐसे लोग आदिवासी परंपरा को नहीं जान पाते हैं और उन्हें नहीं समझ पाते हैं. तो पारंपरिक व्यवस्था को बनाए रखने को सरकार और प्रशासन एक जिम्मेदारी के तौर पर देख रहा है. गांव वालों के साथ मिलकर इसे संरक्षित करने का प्रयास किया जा रहा है. खुले में देवी देवता होने की वजह से इसके अपवित्र होने का खतरा बना रहता है. जैसे महावारी के दिनों में महिलाएं गलती से यदि इस पवित्र स्थल पर चलीं जातीं हैं तो इसे देवी-देवताओं के अपमान के तौर पर देखा जाता है. इन वजहों से इस पवित्र स्थल को चारों ओर से घेरकर इसे संरक्षित किया जा रहा है जिसे देवगुड़ की संज्ञा दी गयी है. इस व्यवस्था से अनजान व्यक्ति उस पवित्र स्थल के बारे में जान जाएगा और इस स्थल पर श्रद्धा के साथ जाएगा. इससे आदिवासियों की आस्था को ठेस नहीं पहुंचेगी.

आदिवासियों की परंपरा को संरक्षित करना उद्देश्य

देवगुड़ का निर्माण गांव-गांव में किया जा रहा है. इसका उद्देश्य साफ है कि आदिवासियों की परंपरा को संरक्षित किया जा सके. अलग अलग देवगुड़ को यहां के अलग-अलग देवी देवता के नाम से सीमांकित किया जा रहा है. प्रशासन इन क्षेत्रों को एक से दो एकड़ की घेराबंदी करके गांव के लोगों को दे रहा है. इस योजना पर बस्तर के गांवों में काम चल रहा है. मंगल कुंजाम ने बताया कि ये योजना काफी अच्छी है. आजकल देखा जा रहा है कि कहीं से नेशनल हाइवे जा रहा है तो कहीं से स्टेट हाइवे गुजर रहा है. ऐसे में क्या होता है कि ये पवित्र स्थल खुले में रहेंगे तो किसी को भी समझ में नहीं आएगा. गांव के लोग एक स्थल की ही पूजा करते हैं. आदिवासी जमीन की ही तो पूजा करते हैं. कोई अंजान आदमी अगर जाएगा तो उसे पता नहीं चलेगा कि यह आदिवासियों का पवित्र स्थल है. तो ऐसे में इसकी घोराबंदी करना और इसे संरक्षित करने की योजना काफी अच्छी है.

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देवगुड़ में क्या है खास

आदिवासियों के पवित्र स्थल के आसपास शेड का निर्माण किया जा रहा है. इसके साथ ही पूरे इलाके को खासकर पत्थरों को चित्रकला के माध्यम से बेहद ही खूबसूरत तरीके से सजाने का प्रयास भी जारी है. गमावाड़ा देवगुड़ के बारे में कहा जाता है कि ये गुड़ी हिगराज देवता की है, जिनकी पूजा अर्चना गांव के लोग करते हैं. मान्यता है कि हिगराज देवता की पूजा अर्चना करने से गांव में बीमारी नहीं आती है. यहां जो भी अपनी मनोकामना लेकर आते हैं वो पूरी होती है.

देवगुड़ बन जाने से गांव वाले तो खुश हैं ही साथ में इसको देखने लोग दूर-दूर से आ रहे हैं. पहले देवगुड़ पूजा स्थल जर्जर अवस्था में था, जिला प्रशासन की तरफ से देवगुड़ का निर्माण कार्य कराने से अब इसका कायाकल्प होता जा रहा है. यहां पर गांव वालों के ठहरने की व्यवस्था की जा रही है. पूजा स्थली में चित्रकला की जा रही है ,जिससे ये और भी सुंदर नजर आये. देवगुड़ के माध्यम से दूर दराज से पहुंचने वाले पर्यटक आदिवासियों की विभिन्न संस्कृति, सभ्यता, खान-पान, रहन-सहन, आभूषण और बोली-भाषा से परिचित हो सकेंगे.

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