आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि भारत में ऐसा कोई नेता रहा है जिसने बहुमत से संसदीय दल का नेता मान लिए जाने के बाद भी अपनी जगह किसी दूसरे शख़्स को प्रधानमंत्री बना देता हो.
लेकिन हरियाणा के चौधरी देवीलाल ने ये कर दिखाया था. पहली दिसंबर, 1989 को आम चुनाव के बाद नतीजे आने के बाद संयुक्त मोर्चा संसदीय दल की बैठक हुई और उस बैठक में विश्वनाथ सिंह के प्रस्ताव और प्रस्ताव पर चंद्रशेखर के समर्थन से चौधरी देवीलाल को संसदीय दल का नेता मान लिया गया था.
देवीलाल धन्यवाद देने के लिए खड़े ज़रूर हुए लेकिन सहज भाव से उन्होंने कहा, "मैं सबसे बुजुर्ग हूं, मुझे सब ताऊ कहते हैं, मुझे ताऊ बने रहना ही पसंद है और मैं ये पद विश्वनाथ प्रताप को सौंपता हूं."
इस वाकये के बारे राज्य सभा के सांसद और वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश बताते हैं, "विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का काम अकेले और अकेले देवीलाल का काम था. क्योंकि जब चुनाव परिणाम आ गया था तो चंद्रशेखर ने कहा कि वे संसदीय दल का नेता बनने के लिए चुनाव लड़ेंगे. ऐसे में विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपनी जीत का भरोसा नहीं रहा, उन्होंने देवीलाल के सामने चुनाव लड़ने से ही इनकार कर दिया."
‘जो प्रधानमंत्री होने के बावजूद खेतों में चले जाते थे’
विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर, दोनों देवीलाल के नीचे काम करने को तैयार थे और दोनों देवीलाल के नाम पर सहमत भी हो गए. हरिवंश के मुताबिक देवीलाल के पक्ष में सबकुछ था, वे चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे.
हालांकि कुछ विश्लेषक इस पूरे वाकये को चंद्रशेखर के ख़िलाफ़ राजनीतिक साजिश के तौर पर भी देखते हैं और देवीलाल और वीपी सिंह के बीच पहले ही समझौता होने की बात कहते हैं.
ज़ुबान के पक्के थे देवीलाल
चौधरी देवीलाल के प्रपौत्र और हिसार से लोकसभा सदस्य दुष्यंत चौटाला बताते हैं, "संसद में अभी भी कम से कम 50 ऐसे सदस्य हैं जिन्होंने चौधरी देवीलाल के साथ काम किया है, उनसे बात होती तो ये लोग बताते हैं कि 1989 में इन लोगों का मुंह खुला का खुला रह गया था जब देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपनी जगह नेता बनाया था. हालांकि लोग इस बात की भी प्रशंसा करते हैं कि देवीलाल अपनी जुबान के पक्के थे. उन्होंने जो किया था वो कोई आम बात तो नहीं ही थी."
वीपी सिंह को आज क्यों और कैसे याद करना चाहिए?
बहरहाल, ये भी राजनीति का ही खेल है कि वीपी सिंह ने बाद में देवीलाल को अपने मंत्रिमंडल से हटा दिया. लेकिन इसके बाद चौधरी देवीलाल फिर उपप्रधानमंत्री बने, चंद्रशेखर के साथ. चंद्रशेखर महज चार महीने के भीतर इस्तीफ़ा देने पर मज़बूर हुए, तब भी देवीलाल के पास मौका था कि वे प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जता सकते थे.
चंद्रशेखर के राजनीतिक जीवन को नज़दीक से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय बताते हैं, "देवीलाल ने चंद्रशेखर को इस्तीफ़ा देने के लिए मना किया और कहा कि राजीव गांधी से बातचीत जारी रखें. चंद्रशेखर ने उनसे कहा कि मैं इस्तीफ़ा दे रहा हूं, आप चाहें तो ख़ुद के लिए बात कर सकते हैं. हालांकि उन्होंने वैसा भी नहीं किया."
ये दो उदाहरण ये दर्शाते हैं कि देवीलाल को देश के सबसे बड़े पद का लालच नहीं था. हालांकि कुछ राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक देवीलाल के ख़ुद का आत्मविश्वास प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं था.
दबंग और लठैत वाले नेता की छवि
नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री और नामचीन संपादक पत्रकार रहे एमजे अकबर ने देवीलाल के निधन पर लिखे स्मृति लेख में लिखा था, "दरअसल देवीलाल ये महसूस कर लिया था कि शहरी भारत उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, लिहाजा उन्होंने ख़ुद को सबसे बड़े पद की दौड़ से अलग कर लिया था."
देवीलाल की राजनीतिक जीवनी लिख चुके और आधुनिक भारतीय इतिहासकार प्रोफ़ेसर केसी यादव बताते हैं, "देवीलाल ख़ुद बहुत संपन्न परिवार के थे, 1930 से ही राजनीति में सक्रिय हो गए थे, लेकिन उनका अंदाज ठेठ ग्रामीणों वाला ही रहा, वे दिल्ली के पावर कॉरिडोर में खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब गुरबों की सबसे बड़ी उम्मीद थे. देश का अभिजात्य तबका उनको भदेस, दबंग और लठैत वाले नेता की तरह ही देखता रहा."
वैसे दिलचस्प ये है कि 1989 में राजीव गांधी सरकार के ख़िलाफ़ बोफ़ोर्स घोटाला एक बदलाव का आंदोलन बनने जा रहा था, उससे पहले राजीव गांधी सरकार की हवा को ख़राब करने का काम देवीलाल ने ही शुरू किया था.
1987 में हरियाणा विधानसभा के चुनाव में देवीलाल ने 90 में 85 सीटें हासिल कर कांग्रेस को महज पांच सीटों पर ला दिया था. उनकी इस कामयाबी के बाद ही ये रुपरेखा बनने लगी थी कि देवीलाल केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस विरोधी मोर्चा का चेहरा हो सकते हैं.
राम बहादुर राय बताते हैं, "कम से कम इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका को इसका अहसास हो गया था. इसके बाद 1988 में अमिताभ बच्चन के इस्तीफ़े से खाली हुई इलाहाबाद सीट से विश्वनाथ प्रताप सिंह को विपक्ष का उम्मीदवार बनाने और उनके चुनाव प्रचार में भी देवीलाल की भूमिका रही. "
1987 से लेकर 1991 तक केंद्र की राजनीति में देवीलाल वाकई में भारतीय राजनीति में ताऊ की अपनी भूमिका में नज़र आए. इस दौरान देवीलाल ने उत्तर भारत की राजनीति पर अकेले जितना असर डाला, शायद ही किसी दूसरे नेता का रहा हो.
भारतीय राजनीति पर असर
यहां तक मंडल आयोग को लागू करने के पीछे भी अप्रत्यक्ष तौर पर देवीलाल ही थे. इस बारे में हरिवंश बताते हैं, "जब वीपी सिंह की सरकार से देवीलाल अलग हुए तो वीपी सिंह के सहयोगियों को अनिश्चितताओं ने घेर लिया था कि अब ज़्यादातर लोग देवीलाल के खेमे में चले जाएंगे. देवीलाल की असर को कम करने के लिए वीपी सिंह को मंडल कमीशन लागू करने की सलाह दी गई, मंडल कमीशन कभी वीपी सिंह के एजेंडे में नहीं था, लेकिन उन्होंने आनन फ़ानन में इसे लागू कर दिया."
चौधरी देवीलाल मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा 2002 में प्रकाशित गौरव गाथा में बीबीसी के पत्रकार मार्क टुली का एक इंटरव्यू छपा है, जिसमें उन्होंने कहा था, "हमारे पास जो जानकारी है उसके मुताबिक वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने का जो फ़ैसला लिया था वो चौधरी देवी लाल को नकारने के लिए ही लिया था."
मंडल कमीशन को लागू करने में देवीलाल की भूमिका भले अप्रत्यक्ष रही हो लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश में जातिगत तौर पर पिछड़ा वर्ग के नेताओं को स्थापित करने में देवीलाल की अहम भूमिका रही.
हरिवंश बताते हैं, "लोग देवीलाल को याद नहीं करते लेकिन हक़ीक़त यही है कि उत्तर भारत की राजनीति की यथास्थिति में बदलाव लाने का काम उन्होंने ही किया. चाहे वो मुलायम सिंह को पहली बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने की बात हो या फिर बिहार में 1990 में लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री बनाना रहा हो, उन्होंने इन सबको उन्होंने ही स्थापित किया."
उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के विरासत के संघर्ष में 1989 में अजीत सिंह और मुलायम सिंह आमने सामने खड़े हो गए थे. लखनऊ में लंबे समय तक टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक रहे अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "लखनऊ विधानसभा सचिवालय के तिलक हाल में दोनों गुट के समर्थक बड़ी संख्या में जुटे थे, लग रहा था कि मुक़ाबला बराबरी का है लेकिन देवीलाल ने अपना समर्थन मुलायम को दिया, इसने मुलायम सिंह की राह आसान कर दी."
लालू प्रसाद यादव 1990 में किस तरह मुख्यमंत्री बने, इसके बारे में हरिवंश बताते हैं, "लालू जी के पास जनता दल के विधायकों का समर्थन नहीं था. लेकिन देवीलाल उनको चाहते थे, उनके चाहने में शरद यादव और नीतीश कुमार की अहम भूमिका रही थी."
जाटों के कितने बड़े नेता
केवल उत्तर भारतीय राज्यों में ही नहीं बल्कि जिस हरियाणा के गठन में देवीलाल की अहम भूमिका रही, वहां भी उन्होंने हमेशा दूसरो को मुख्यमंत्री बनवाया. दुष्यंत चौटाला कहते हैं, "हरियाणा के गठन होने से पहले उन्होंने दस साल तक सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था. चाहे भगवत दयाल रहे हों या फिर चौधरी बीरेंद्र सिंह, उनको मुख्यमंत्री बनवाया. यहां तक कि बंसीलाल को पहली बार राज्य सभा में भेजने से लेकर मुख्यमंत्री बनाने में चौधरी साब का योगदान था. भजन लाल को पहली बार टिकट भी चौधरी साब ने दिया था."
1952 में पंजाब विधानसभा से कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा में पहुंचे देवीलाल 1971 तक कांग्रेस में रहे और पंजाब की राज्य सरकारों में भी उनका दख़ल रहा. राम बहादुर राय कहते हैं, "देवीलाल किंग मेकर तो रहे लेकिन उनका राजनीतिक विजन राष्ट्रीय राजनीति वाला नहीं था. यही वजह है कि जब तक चौधरी चरण सिंह सिंह रहे देवीलाल जाटों के भी सबसे बड़े नेता नहीं बन पाए. हालांकि राजनीतिक मैनेजमेंट में, किसी को उठाने गिराने के खेल में वे चरण सिंह से आगे ही थे."
लेकिन दुष्यंत चौटाला कहते हैं कि चौधरी देवीलाल ने जिन नीतियों को अपने जमाने में लागू किया, उसे पूरे देश में अपनाया जा रहा है. वे कहते हैं, "हरियाणा में एक बार बाढ़ आने के बाद उन्होंने काम के बदले अनाज योजना शुरू की थी, यही योजना आज पूरे देश में मनरेगा के नाम से जाना जाता है. उन्होंने सबसे पहले हरियाणा में वृद्धावस्था पेंशन योजना शुरू की थी, आज अलग अलग राज्यों में इसे अपनाया जा रहा है. उन्होंने सबसे पहले जच्चा बच्चा योजना शुरू की थी, आज आप अलग अलग हिस्सों मातृत्व संबंधी योजनाओं में देख सकते हैं."
वैसे देवीलाल अपने अक्खड़ स्वभाव और खरी खरी बोली के लिए भी बदनाम भी रहे और जाने भी जाते रहे. राजनीति में जितनों की उन्होंने मदद की, उससे ज़्यादा लोगों से उनके विवाद भी होते रहे. चाहे पंजाब के प्रताप सिंह कैरों हो या फिर हरियाणा में बंसीलाल, इन सबके साथ उनके मतभेद भी ख़ूब होते रहे. चाहे चरण सिंह रहे हों या फिर वीपी सिंह, इनसे भी नहीं बनी.
परिवार के लोग नहीं संभाल पाए विरासत
रामबहादुर राय कहते हैं, "एक दौर तो ऐसा भी रहा कि देवीलाल अपने सामने किसी को कुछ समझते नहीं थे. केवल चंद्रशेखर का लिहाज करते थे. लेकिन उनकी छवि को ज़्यादा नुकसान उन्हें ओम प्रकाश चौटाला के करप्शन से हुआ. चौटाला उनके नाम का इस्तेमाल करने लगे थे और सबकुछ जानते हुए भी देवीलाल चुप रहे."
केसी यादव कहते हैं, "देवीलाल की दबंग छवि इसलिए भी बन गई थी क्योंकि वे अपने दौर में इकलौते ऐसे नेता थे जो स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा ले चुके थे, दूसरे भी उनका लिहाज करते रहे. 22 साल के संघर्ष के बाद विधायक बने लेकिन उनके अपने परिवार के लोगों को संघर्ष नहीं करना पड़ा, ऐसे में परिवार के लोगों के पांव फिसलते गए."
राम बहादुर राय ये भी बताते हैं कि देवीलाल अपने खानपान के लिए भी राजनीतिक गलियारों में कौतूहल रहता था. उनके मुताबिक, "रामनाथ गोयनका जब उनको मुंबई बुलाते तो खाने में कुल्फी का अच्छा इंतज़ाम रखते. देवीलाल के लिए तो 35 कुल्फियां आती थीं और कई बार वो भी कम पड़ जाती थीं."
भारतीय राजनीति के इस दबंग ताऊ का निधन छह अप्रैल, 2001 को हुआ, उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में यमुना नदी के तट पर चौधरी चरण सिंह की समाधि किसान घाट के पास संघर्ष स्थल पर हुआ था.
वैसे जाट समुदाय के इन दो नेताओं ने नरेंद्र मोदी के आगमन से बहुत पहले कांग्रेस मुक्त भारत का ना केवल सपना देखा था बल्कि काफ़ी हद तक उसे धरातल पर उतारने में कामयाब रहे थे.
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