गौरतलब बात यह है कि राजनीति में अपने ससुर के प्रति बेहद निर्मम फिरोज ने पारिवारिक जीवन में अपनी सास कमला नेहरू का जीवन बचाने के लिए हर मुमकिन प्रयास किया, जब वे क्षयरोग से पीड़ित थीं और जीवन व मृत्यु के बीच झूल रही थीं.
सत्ताधीशों के अंत:पुरों में, और कई बार उनके बाहर भी, उनके बेटे-बहुओं, बेटियों और दामादों आदि को लेकर जैसी कहानियां बनती और चलती रहती हैं, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधी उन सबके विलोम थे और उनकी अपनी तरह की अनूठी राजनीति का अलबेलापन भी इसी में है.
वे सांसद थे तो उनके ससुर प्रधानमंत्री थे. बाद में उनकी पत्नी श्रीमती इंदिरा गाधी और बेटे राजीव गांधी ने भी प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया. बहू सोनिया गांधी के सामने उसे सुशोभित करने का मौका आया, तो वे उसे ठुकरा कर ‘त्याग की देवी’ बन गयीं. सबसे लंबे कार्यकाल तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने के बाद अब वे उनके पोते राहुल का ताज सिल रही हैं. बदले रास्ते से ही सही, दूसरी बहू मेनका भी केंद्र में मंत्री पद तक पहुचीं और दूसरे पोते वरुण भी सांसद तो हो ही चुके. उनकी एकमात्र पोती प्रियंका को कांग्रेस की सबसे बड़ी स्टार प्रचारक माना जाता है. लेकिन इनमें कोई भी फिरोज को उस तरह अपनी वंश परंपरा का हिस्सा नहीं बताता, जिस तरह इंदिरा और नेहरू को, तो इसका सबसे बड़ा कारण भी फिरोज ही हैं, जिन्होंने अपने को कुल, गोत्र और वंश के खांचे में कभी फिट ही नहीं किया. इसके उलट वे जितने दिन सांसद रहे, अपने प्रधानमंत्री ससुर को नाकों चने चबवाते रहे.
1950 में प्रॉविंसियल पार्लियामेंट के सदस्य बने फिरोज 1952 के पहले आम चुनाव में रायबरेली से कांग्रेस के प्रत्याशी घोषित हुए, तो पत्नी इंदिरा गांधी पार्टी के दूसरे कहीं ज्यादा आवश्यक कार्यभार छोड़ कर उनके प्रचार अभियान की कमान संभालने आयीं, लेकिन वे पति की जीत की खुशी नहीं मना सकीं. जल्द ही उन्हें अहसास होने लगा कि सांसद फिरोज उनके पिता जवाहरलाल नेहरू और उनकी सरकार के दुश्मन हो गये हैं. इसे लेकर उनके दांपत्य जीवन में खटास भी आयी. लेकिन फिरोज ने अपने निजी सुख के लिए राजनीतिक नजरिये से समझौता करना स्वीकार नहीं किया और अपने ससुर की जिन नीतियों से वे असहमत थे, उनके, खासकर औद्योगिक नीतियों के, मुखर आलोचक बने रहे.
सांसद के रूप में उन्होंने देखा कि आजादी मिलने के कुछ ही वर्षो में देश के कई औद्योगिक घराने उच्च पदस्थ कांग्रेसी नेताओं व मंत्रियों की नाक के बाल हो गये हैं और उसकी आड़ में अनेक वित्तीय अनियमितताएं कर रहे हैं, तो लोकसभा में अपनी ही पार्टी की सरकार को घेरने में कोई कोताही नहीं बरती. 1955 में उन्होंने एक बैंक व बीमा कंपनी के चेयरमैन रामकृष्ण डालमिया का बहुचर्चित मामला न सिर्फ उठाया, बल्कि उनके द्वारा निजी लाभ के लिए की जा रही वित्तीय हेराफेरी की पोल खोल कर रख दी.
1957 में दोबारा चुने जाने के बाद भी उन्होंने पंडित नेहरू को घेरना जारी रखा. गौरतलब है कि राजनीति में अपने ससुर के प्रति बेहद निर्मम फिरोज ने पारिवारिक जीवन में अपनी सास कमला नेहरू का जीवन बचाने के लिए हर मुमकिन प्रयास किया, जब वे क्षयरोग से पीड़ित थीं और जीवन व मृत्यु के बीच झूल रही थीं.
1958 में फिरोज ने सरकार नियंत्रित बीमा कंपनी एलआइसी को लपेटे में लेते हुए हरिदास मूंदड़ा घोटाले का पर्दाफाश किया, जिसे स्वतंत्र भारत का पहला घोटाला माना जाता है. इसके दोषियों पर कार्रवाई की मांग को लेकर उन्होंने विपक्षी सांसदों से कहीं ज्यादा तेज आवाज बुलंद की. इससे नेहरू की ‘पाक-साफ’ छवि को तो बट्टा लगा ही, वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा. फिरोज गांधी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के पहले चेयरमैन थे, साथ ही कांग्रेस द्वारा लखनऊ से प्रकाशित नेशनल हेराल्ड और नवजीवन नाम के अखबारों के प्रबंध निदेशक भी.
1956 में उन्होंने अपने ससुर और पत्नी के साथ प्रधानमंत्री निवास में रहने से मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगता था कि वहां रह कर केंद्र सरकार की नीतियों के कारण फैल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे. आगे चल कर वे सांसद के तौर पर उन्हें आवंटित बेहद साधारण से आवास में रहने लगे. कहते हैं कि अंतिम दिनों में वे बहुत अकेले हो गये थे. उन्होंने केंद्र सरकार से टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी यानी टेल्को का राष्ट्रीयकरण करने की मांग की थी, क्योंकि उनकी जानकारी के अनुसार टाटा कंपनी जापानी रेल इंजनों का सरकार से ज्यादा दाम वसूल रही थी. फिरोज को उनके कुछ मित्रों ने बताया था कि टाटा के खिलाफ अभियान से पारसी समुदाय में उनके खिलाफ माहौल बन जायेगा, लेकिन फिरोज ने इसकी भी परवाह नहीं की थी.
आठ सितंबर, 1960 को अंतिम सांस लेने से थोड़े ही दिनों पहले उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में एक कॉलेज की स्थापना के लिए निजी प्रयासों से जुटाये गये सवा लाख रुपये दिये थे. यह कॉलेज आजकल फिरोज गांधी पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के नाम से जाना जाता है.