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मरना एक झील का

मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार इन पंक्तियों के लिखे जाते समय नैनीताल के नागरिकों का एक बड़ा सा जत्था सूख रही नैनी झील के संरक्षण के मुद्दे पर झील की नंगे पैरों परिक्रमा कर रहा है. इसे आज के मीडिया की भाषा में एक सामयिक स्टोरी को टांगनेवाली तात्कालिक खूंटी कह सकते हैं, पर कथा निकली […]

मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
इन पंक्तियों के लिखे जाते समय नैनीताल के नागरिकों का एक बड़ा सा जत्था सूख रही नैनी झील के संरक्षण के मुद्दे पर झील की नंगे पैरों परिक्रमा कर रहा है. इसे आज के मीडिया की भाषा में एक सामयिक स्टोरी को टांगनेवाली तात्कालिक खूंटी कह सकते हैं, पर कथा निकली है, तो असल बात दूर तलक जायेगी.
सैकड़ों बरस पुरानी कुदरती नैनी झील का जलस्तर अब तक के सबसे निचले पैमाने पर (सामान्य से 18.5 फीट नीचे) जा चुका है, और हर रोज करीब दो-तीन इंच की रफ्तार से कम हो रहा है, जबकि माॅनसून को आने में अभी दो-तीन हफ्ते और लगेंगे. यह झील नैनीताल की पर्यटन इंडस्ट्री की रीढ़ ही नहीं, बल्कि लगातार फैलते इस पहाड़ी शहर का इकलौता जलस्रोत भी है. शहर के सभी नागरिकों की जिंदगी तथा अर्थव्यवस्था पर इसका असर पड़ना लाजिमी है.
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक पहाड़ों से घिरी हुई झील तथा उसके गिर्द का इलाका वहां की अधिष्ठात्री नारायणी देवी की जागीर माना जाता था, जहां स्थानीय लोग सिर्फ तीर्थयात्रा पर ही जा सकते थे.
झील के गिर्द खड़े पहाड़ों में खेत या रिहायशी मकान बनाने या झील पर नाव चलाना कतई निषिद्ध था. दंत कथाएं बताती थीं कि यह झील खुद शिव ने एक कटोरे की तरह हिमालय यात्रा पर निकले तीन प्यासे ॠषियों की प्यास बुझाने को उपत्यका में मानसरोवर झील से पवित्र जल छोड़ कर यहां रची थी. इस पर सामान्य जन का हक नहीं बनता था, न ही राजा का. पर, 1840 के आस-पास इस झील पर अंगरेजों की नजर पड़ी. इस्ट इंडिया कंपनी के तीन अंगरेज अफसर इलाके के कुदरती सौंदर्य तथा झील में छिपी अपार संभावनाओं के किस्से सुन कर वहां थाहने चले आये. गांववालों की अनसुनी कर वे अपने साथ लायी नाव में बिठा कर स्थानीय मुखिया (नरसिंह थोकदार) को भी झील में नौका विहार के बहाने ले गये. तदुपरांत, बीच झील में उसे डुबोने की धमकी देकर अंगरेजों ने जेब से स्टांप पेपर पर बने हस्तांतरण के कागजातों पर जबरिया दस्तखत करा लिये और इस तरह इलाका उनकी मिल्कियत बन गया.
जब इलाका कब्जे में आ गया, तो मैदानी गर्मियों से ऊबे औपनिवेशिक प्रशासन के गोरे अफसरान तथा उनके देसी रजवाड़े मित्रों ने जमीन मिट्टी के मोल सरकार से लीज पर लेकर यहां अपने लिए कोठियां, क्लब, होटल तथा सैरगाहें बनवा लीं. पर, 1880 में एक भीषण बारिश और भूकंप की समवेत मार से यह शहर रातोंरात तबाह हो गया और झील किनारे खड़ा देवी मंदिर भी मलबे में दब गया. स्थानीय सयानों ने दैवी कोप की बातें कहीं. पर उनकी कौन सुनता? अंगरेजों ने फिर यहां और बड़ी नयी बसाहट बनायी, जिसमें अतिरिक्त जल के निकास तथा पहाड़ों के क्षरण को रोकने की खास वैज्ञानिक व्यवस्था भी कर दी गयी. स्थानीय लोगों को मलबा हटाई से निकले देवी मंदिर के घंटे के प्राप्ति स्थल पर एक नया मंदिर बना कर तुष्ट किया गया, अलबत्ता सयानों के अनुसार हादसे के बाद रूठी देवी झील के भीतर कंदरा में चली गयीं, फिर बाहर नहीं निकलीं.
अंगरेजों के समय में इसी तरह नैनीताल ही नहीं, मसूरी, शिमला, दार्जीलिंग, कसौली और रानीखेत सरीखे अन्य कई पहाड़ी शहर भी नाजुक हिमालयी इलाके में मैदानों की धूल धक्कड़ से थके आला अफसरों के लिए शीतल सैरगाहों तथा छावनियों के रूप में विकसित किये गये.
जबरन बेदखल की गयी अधिकतर स्थानीय जनता या तो इलाके से मैदानों को पलायन को बाध्य हुई या खानसामा, माली, फर्राश, आया या बटलर बन कर अंगरेजों की सेवकी करती रही. उसकी संस्कृति, विचार या जीवनशैली की जगह एक नयी संस्कृति ने ले ली, जिसमें उपभोग प्रबल था और पुरानी तरह का संवेदनशील सहआस्तित्व गायब हो चला. गोरे संप्रभुओं की जगह भूरे साहिब आ गये. बस.
सामाजिक आर्थिक दृष्टि से निहायत विभेदपूर्ण इस व्यवस्था का पर्यावरण पर भी गहरा असर पड़ा. पुराने पर्यावरण संरक्षण के तरीके की तहत सारी भूमि प्रभु की थी और हर मनुष्य उसका संरक्षक मात्र था, जो क्रूर दोहन किये बिना उसका सुख लेने को आजाद था. धर्मभीरु जनता के लिए पेड़ों, झरनों, कुदरती नालों, पहाड़ों सबको देवत्व की परिधि में लाकर सयाने यह सुनिश्चित कर गये थे कि हर कोई कुदरत से जरूरत मुताबिक हर चीज ले सकता था, पर लालच में प्रकृति को खसोटने की एवज में अपराधी का देर-सबेर अनिवार्य दैवी कोप से दंडित होना तय था.
आजादी के बाद भी यह क्रम बना रहा. जब जनप्रतिरोध बलवान हुआ, तो उत्तर प्रदेश को तोड़ कर नया पहाड़ी राज्य बना दिया गया उत्तराखंड. पर, दोहन जारी रहा. जब कानून बना कि अब जमीन केवल इलाकाई लोगों की होगी, तो घूसखोरी की नयी राहें बनीं. वे लोग मैदानों से चले आये, जो अफसरान व राजनेताओं को खुलेआम पैसा देकर पहाड़ खरीदने में समर्थ थे. उनके सुझाव पर प्रशासन और राजनेताओं ने प्रांत को देवभूमि का तिलक लगा कर तीर्थयात्रा को धार्मिक पर्यटन का बाजारी जामा पहना दिया. इससे बिल्डरों, स्पा तथा रेस्तरां चलानेवालों की चांदी हो गयी और वहां नौकरी पा गये स्थानीय लोगों का आक्रोश कुछ दिन को मौन हो गया.
पर जैसा सयाने कहते हैं, दोनो हाथों से मिट्टी की खदान भी खोदो तो एक दिन खाली हो जाती है. नैनी झील के साथ यही हुआ. उसको कुदरती तौर से 50 फीसदी जल देनेवाले करीबी सूखाताल इलाके पर जब पर्यटन विकास के नाम पर कंक्रीट की इमारतें बन गयीं और जंगल काट कर पर्यटकों के लिए सड़कें बनीं, तो यह दुर्लभ जलप्रदाय क्षेत्र वर्षा का पानी समेट कर झील को भूगर्भीय जल देने में असमर्थ होता गया. नतीजा सामने है और अब सब सिर धुन रहे हैं.
सदियों से बन रही इस पटकथा में कई परतें आज भी प्रासंगिक हैं. मसलन, लोकतंत्र में जमीनी राजनीति चलाने के लिए नेताओं द्वारा इलाकाई सामाजिक मतभेदों में नये आयामों को शह देने से उपजती हिंसा. नैनी झील के मरते जाने की कथा भले ही एक छोटे से पहाड़ी इलाके की छोटी सी व्यथा-कथा हो, लेकिन हम याद रखें कि अंतत: वह काफी गौरतलब और अखिल भारतीय महत्व की ही एक कथा है.

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