क्या धर्म ही राजनीतिक मुद्दा बचा है?

संसद में और सड़क पर ‘सांप्रदायिक’ शब्द बार-बार उछाला जाता रहा है. कई बार इसकी वजह से आबोहवा के गर्म हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है. कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो या बसपा या राजद, सबने इस शब्द का इस्तेमाल जरूर किया है. सियासी चालों में इसका प्रयोग किया जाना भले ही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 22, 2014 4:47 AM

संसद में और सड़क पर ‘सांप्रदायिक’ शब्द बार-बार उछाला जाता रहा है. कई बार इसकी वजह से आबोहवा के गर्म हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है. कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो या बसपा या राजद, सबने इस शब्द का इस्तेमाल जरूर किया है. सियासी चालों में इसका प्रयोग किया जाना भले ही सियासत के लिए मजबूरी हो, लेकिन जनता के स्वास्थ्य के लिए यह खतरनाक विषाणु ही साबित हुआ है.

धर्म व संप्रदाय की राजनीति नहीं करने का दावा, देश के सभी राजनैतिक दलों का है. इन दावों को सच मानें, तो ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है जो सेक्युलर न हो. लेकिन, इन दावों के विपरीत हिंदुस्तान में धर्म और संप्रदाय की सियासत बढ़ती ही जा रही है. स्थिति अब यहां तक आ पहुंची है कि लगभग हर राजनैतिक दल खुलेआम एक दूसरे पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा रहा है. शायद यही वजह है कि हर संप्रदाय में बहुत से स्वयंभू धार्मिक ठेकेदार पैदा होने लगे हैं. लगभग हर सरकार इन्हें पूरा महत्व देती आयी है.

धर्म के ये ठेकेदार न केवल राजनैतिक दलों को वोट के मायाजाल से प्रभावित कर अपना उल्लू सीधा करते हैं, बल्किभोलीभाली जनता में से दिग्भ्रमति लोगों को प्रभाव में लेकर उन्माद फैलाने से भी गुरेज नहीं करते. चूंकि कोई भी स्वस्थ मानसिकता उन्माद की पक्षधर नहीं होती, ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि ‘सांप्रदायिक’ है कौन. दरअसल हिंदू को हिंदू, मुसलिम को मुसलिम और ईसाई को ईसाई होने का बोध कराया जाना ही सांप्रदायिकता है. एक क्षेत्र, एक देश में रहनेवाले लोग बंधुत्व भावना के तहत मानवीय दृष्टिकोण के साथ अनेकता में एकता का प्रदर्शन करते हुए जीवनयापन करते हैं. क्या धर्म ही एक मुद्दा रह गया है राजनीति करने को?

शाहनवाज हसन, ई-मेल से

Next Article

Exit mobile version