मनुष्य का प्रकृति से जुड़ाव

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया इस बार जब मैं रांची पहुंच रहा था, तो शहर में प्रवेश से पहले घाटी में उजड़ते हए जंगलों को देख रहा था. ये जंगल मुश्किल से 25 प्रतिशत भी नहीं बचे हैं. रांची में कई जगह विश्व पर्यावरण दिवस के कार्यक्रम के बैनर देखने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 9, 2017 6:22 AM
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
इस बार जब मैं रांची पहुंच रहा था, तो शहर में प्रवेश से पहले घाटी में उजड़ते हए जंगलों को देख रहा था. ये जंगल मुश्किल से 25 प्रतिशत भी नहीं बचे हैं. रांची में कई जगह विश्व पर्यावरण दिवस के कार्यक्रम के बैनर देखने को मिले. सभी अखबारों में पर्यावरण को लेकर गहरी चिंता जाहिर की गयी थी. कभी मुंडा आदिवासियों का गांव रहा रांची अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है. उसकी पहचान का बहुत बड़ा हिस्सा यहां के मौसम से भी जुड़ा है. लेकिन, पिछले डेढ़ दशकों में रांची का मौसम बहुत बदल गया है. यहां भी अब भीषण गर्मी पड़ने लगी है और जल संकट भी गहराने लगा है. जिसे हम ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहते हैं, वस्तुत: वह हमारे और प्रकृति के बीच के रिश्ते में हुए बदलावों का परिणाम है.
पिछले दो सौ वर्षों में मनुष्य ने प्रकृति के साथ अपने संबंध को पूरी तरह बदल दिया है. औद्योगिक क्रांति के बाद यानी मशीनी समाज के क्रमशः विकसित होने के साथ ही प्रकृति के साथ मनुष्य का रिश्ता बदल गया है. इन दो सौ वर्षों में मनुष्य ने अपनी सुविधाओं के विकास में जो प्रगति हासिल की है, वह मनुष्य समाज के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था. पहले की सदियों में प्रकृति के साथ कठोर संघर्ष का जीवन रहा है. उसके बाद वैज्ञानिक खोजों ने प्रकृति पर विजय दिलायी, जो धीरे-धीरे प्रकृति पर वर्चस्व में बदल गया. आज का दौर प्रकृति पर वर्चस्व का दौर है.
प्रकृति मातृ उत्पादक है. यह सभी जीवों को सामान रूप से जीविका के संसाधन उपलब्ध कराती है. मनुष्य ने उन संसाधनों पर सबसे ज्यादा नियंत्रण स्थापित किया. इस नियंत्रण ने दूसरे जीवों को प्रकृति पर उनकी हिस्सेदारी से वंचित किया.
इसके आलावा मनुष्य ने खुद समाज की श्रेणीगत संरचना के द्वारा अपने ही लोगों को प्रकृति पर उनके अधिकार से वंचित किया. यानी जीविका के संसाधनों के रूप में प्रकृति पर नियंत्रण की होड़ को मशीनी समाज ने पैदा किया. यह आगे चल कर विलास के संसाधनों को संचयन की होड़ में रूपांतरित हो गया. आज यह होड़ जीविका के संसाधन बनाम विलास के संसाधनों के संचयन के रूप में हमारे सामने मौजूद है. जीविका के संसाधन का संबंध जीवन की आधारभूत सुविधाओं से है.
यह आम तौर पर आज भी तीसरी दुनिया के देशों में देखा जा सकता है, जहां गरीबी और भुखमरी की समस्या विकराल है, वहीं विलास के संसाधनों के संचयन की होड़ को विकसित एवं यूरोपीय देशों में देखा जा सकता है. क्यूबा के क्रांतिकारी राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने ‘पृथ्वी सम्मलेन’ में कहा था कि अमीर देशों की फिजूलखर्ची और विलास में कटौती का अर्थ होगा दुनिया में कम गरीबी और कम भुखमरी. आज प्रकृति के संकट का संबंध मानव समुदाय के इन्हीं दो विचारों और उससे निर्मित व्यवस्थाओं से जुड़ा हुआ है.
आमतौर पर जिसे हम आधुनिकता कहते हैं, उसने अपने विचार और चिंतन के केंद्र में केवल मनुष्य को रखा. इस वजह से वह प्रकृति और उसके अन्य सहचरों से दूर होता गया.
इस दूरी ने उसके अंदर की संवेदना को संकुचित किया. संवेदनाओं के इस संकुचन ने बेरहमी के साथ पारिस्थितिकी और पर्यावरण के दोहन को खुली छूट दी. यह छूट मुनाफे के विचार के साथ पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के रूप में विकसित हुई. पूंजीवाद ने उपनिवेशों को और उपनिवेशवाद ने वर्चस्व को जन्म दिया, जिसकी वजह से वैकल्पिक व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गयीं. मुनाफे का यह विचार अब बाजारवाद के जरिये नया उपनिवेश कायम कर रहा है. नव-औपनिवेशिक प्रवृत्तियां नयी सामाजिक विसंगतियों और प्रकृति की समस्याओं को जन्म दे रही हैं. यह जरूरत की वस्तुओं के बदले मुनाफे की वस्तुओं को विज्ञापनों के जरिये उसे हमारे घरों तक पहुंचा रहा है. ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का संबंध हमारी जरूरत की वस्तुओं के उत्पादन से उतना नहीं है जितना कि गैर जरूरी वस्तुओं के उत्पादन से संबंधित है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में हथियारों की होड़ इसका एक बड़ा उदाहरण है.
यह एक ओर सुरक्षा के नाम पर झूठ फैला रहा है, तो वहीं दूसरी ओर इसने दुनिया भर में विस्थापन की विकराल समस्या को भी जन्म दिया है.
पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर पेड़ लगाने के साथ-साथ हमें इस बात को वैचारिक रूप से समझने भी कोशिश करनी होगी कि दुनियाभर में चल रहे विस्थापन विरोधी आंदोलनों का पर्यावरण और पारिस्थितिकी की सुरक्षा से गहरा संबंध है. विस्थापन विरोधी आंदोलन विकास विरोधी नहीं हैं, बल्कि ये विकास के नाम पर फैलाये जा रहे झूठ के प्रति हमें आगाह करते हैं.
समाजशास्त्री सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं कि औद्योगिक क्रांति के बाद दुनिया ने उत्पादन की जिस प्रणाली को अपनाया, उसी में दोष है. आज की दुनिया उसी के रास्ते चलती हुई संकट की स्थिति तक पहुंच गयी है. उन्होंने सोवियत रूस और अन्य कम्युनिस्ट देशों से भी इस मुद्दे पर असहमति प्रकट की है कि उनका सामाजिक ढांचा तो समाजवादी है, लेकिन उत्पादन की प्रणाली वही है, जो पूंजीवादी समाज की है. महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा ने भी इसी बिंदु पर सोवियतों की कड़ी आलोचना की थी.
इस मामले में आदिवासी समाज का प्रकृति के साथ दूसरा ही संबंध दिखाई देता है. वह प्रकृति के साथ सहजीवी है और उसके प्रति ज्यादा संवेदनशील भी है. आज हम आदिवासी समाज में जिस जल, जंगल और जमीन की लड़ाई देखते हैं, वह उनकी सहजीविता और संवेदनशीलता का ही परिणाम है.
लेकिन, पूंजीवाद के दबाव में यह सहजीविता तेजी से खत्म हो रही है. रांची भी कभी सहजीविता का केंद्र था. यह अब मुनाफा कमाने के एक केंद्र में बदल चुका है. इस रूप में रांची आज के मनुष्य समाज का रूपक है. आज प्रकृति से मनुष्य का संबंध मुनाफा कमाने के लिए है, न कि उसके एक सहजीवी के रूप में है. आज का मनुष्य नदियों और जंगलों को देख कर सबसे पहले उसका मूल्य आंकता है. यह उसकी सामूहिक चेतना का हिस्सा ही नहीं बना कि उस पर प्रकृति के अन्य सहचरों का भी उतना ही अधिकार है.

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