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मोदी-ट्रंप भेंट : मुलाकात अहम लेकिन कहीं फिर भ्रम न टूटे, पढ़ें पुष्पेश पंत को

शीतयुद्ध खत्म होने और भारत के उदारवाद का रुख करने के बाद भारत-अमेरिका संबंधों में गुणात्मक सुधार हुआ है. आर्थिक सुधारों से लेकर तकनीकी प्रगति, खासकर सूचना प्रौद्योगिकी के उभार के बीच द्विपक्षीय संबंध प्रगाढ़ हुए हैं. इस दौर में दोनों देशों के प्रमुखों ने गर्मजोशी के साथ नयी-नयी संभावनाओं की तलाश की. ट्रंप के […]

शीतयुद्ध खत्म होने और भारत के उदारवाद का रुख करने के बाद भारत-अमेरिका संबंधों में गुणात्मक सुधार हुआ है. आर्थिक सुधारों से लेकर तकनीकी प्रगति, खासकर सूचना प्रौद्योगिकी के उभार के बीच द्विपक्षीय संबंध प्रगाढ़ हुए हैं. इस दौर में दोनों देशों के प्रमुखों ने गर्मजोशी के साथ नयी-नयी संभावनाओं की तलाश की. ट्रंप के सत्तासीन होने के बाद अमेरिकी राजनीति का मिजाज बदल चुका है. नये प्रकार के अमेरिकी राष्ट्रवाद और संरक्षणवादी प्रशासन के साथ भारत को द्विपक्षीय संबंधों में गति देने की एक नयी चुनौती है. प्रधानमंत्री मोदी 26 जून को अमेरिका पहुंचेंगे, जहां पहली बार उनकी मुलाकात ट्रंप से होगी. ऐसे में दोनों देशों के बीच नयी संभावनाओं और चुनौतियों को रेखांकित कर रही है संडे इश्यू की यह विशेष प्रस्तुति…

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार

भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की पहली अमेरिका यात्रा का अंदाज कुछ-कुछ दिग्विजय के बाद अश्वमेध यज्ञ संपन्न करने जैसा था. सेंट्रल पार्क में नौजवान अमरिकियों को ‘फोर्स बी विद यू’ कह कर रिझाना हो या फिर प्रवासी भारतवंशी अमेरिकी नागरिकों को मंत्र मुग्ध कर मोदी-मोदी के नारे लगाने के लिए बेकरार कर देना इसी के नमूने थे. अोबामा को ‘बराक’ पुकारने की बेतकल्लुफी की नुमाईश से भी यही संदेश हमें मिला कि भारत अौर अमेरिका के रिश्तों में नजदीकी तथा गर्मजोशी बढ़ी है. दूसरे अमेरिकी दौरे में यह एहसास अौर भी पुख्ता हुआ. भारतीय प्रधानमंत्री की मेहमाननवाजी में अमेरिकी राष्ट्रपति ने कोई कसर नहीं छोड़ी. वह उन्हें वाशिंगटन दर्शन कराने के लिए व्हॉइट हाउस से बाहर निकल आये. यह निश्चय ही अभूतपूर्व था. किसी को यह सोचने की फुर्सत नहीं थी कि ठोस कुछ हाथ लगा या नहीं? जब ओबामा भारत के दौरे पर आये, तब तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, पर स्वदेश लौटते ही भारत में अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा के भाव तथा बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता को लेकर उन्होंने चिंता मुखर करते देर नहीं लगायी. इस सबके मद्देनजर इस बार मोदी की अमेरिका यात्रा के बारे में हमें गंभीरता से अौर ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है.

जब ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गये, तब कुछ हिंदुस्तानी इस गलतफहमी के शिकार हुए कि अब इस्लामी कट्टरपंथी के खिलाफ जंग का बिगुल बजानेवाले ट्रंप पाकिस्तान की नाक में नकेल कसेंगे अौर इसका फायदा भारत को होगा. इसी तरह की नादान खुशफहमी यह थी कि चीन को सबक सिखाने को सीना ठोंकनेवाले ट्रंप कम से कम दक्षिण एशिया में भारत के नेतृत्व को समर्थन देंगे. यह दोनों भरम टूटते ज्यादा देर नहीं लगे. ट्रंप ने कश्मीर विवाद निबटाने के लिए खुद मध्यस्थता की पेशकश कर भारत को निराश तो किया ही, चीन के साथ मुठभेड़ की हुंकार भी ठंडी पड़ गयी. इस सब को ध्यान में रखते हुए यह दावा करना कठिन होता जा रहा है कि भारत अौर अमेरिका ‘सामरिक साझेदार’ हैं. जाहिर है कि दोनों देशों के राष्ट्रीय-सामरिक हितों में वैसा कोई सन्निपात या संयोग नहीं जैसा कुछ विद्वान सुझाते हैं. मात्र जनतंत्र होना दोनों को समानधर्मा नहीं बना देता.

मोदी का जोर ‘मेड इन इंडिया’ अौर ‘मेड फॉर इंडिया’ पर रहा है. कुछ ऐसे ही अमेरिका को फिर से महान बनाने की महत्वाकांक्षा पालनेवाले लोकलुभावन नारों के माहिर ट्रंप अपने देशवासियों को यही संदेश देते रहे हैं कि यदि उन्हें बेरोजगारी से निजात पानी है, तो विदेशी उत्पादों, सेवाअों तथा श्रम को त्यागना होगा. अमेरिकी कंपनियों को प्राथमिकता देनेवाली यह संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्था भूमंडलीकरण के सोच से मेल नहीं खाती. यह जगह इस विश्लेषण की नहीं कि खुले बाजार का समर्थन करनेवाला पूंजीवादी अमेरिका कैसे अपने पारंपरिक सोच अौर मूल्यों को इतनी आसानी से भुला सकता है? परंतु इसे नकारना कठिन है कि ट्रंप प्रशासन का आचरण आर्थिक-तकनीकी सहकार की अपेक्षा रखनेवाले भारत जैसे देशों के हितों के प्रतिकूल ही नजर आता है. एच-1 वीजा हो या टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण कहीं भी भारत को किसी तरह की रियायत नहीं मिली है.

मोदी के भारत का मूल्यांकन करनेवाली कंपनियां निरंतर हमारी अर्थव्यवस्था का अवमूल्यन करती हैं अौर यह दबाव बनाती हैं कि धमाकेदार आर्थिक सुधारों का नया दूसरा दौर शुरू हो. इसका मकसद छिपा नहीं है. भारत के बाजार में अमेरिकी बैंकों, बीमा कंपनियों को पैर पसारने का मौका मिलने में इससे बड़ी सहूलियत हो जायेगी. ‘न्यूयार्क टाइम्स’ जब आज भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्षय पर चिंता व्यक्त करता है, तो वह अकारण नहीं, परंतु जब इसके समानांतर कोई भी उपलब्धि उसे उल्लेखनीय नहीं जान पड़ती, तब दूसरे अमेरिकी मीडिया की तरह उसे भी निष्पक्ष मानना कठिन हो जाता है. निश्चय ही अमेरिकी मीडिया ट्रंप प्रशासन के निर्देशानुसार काम नहीं करता पर अपने राष्ट्रहित को तो प्राथमिकता देता ही है. परमाण्विक ऊर्जा से लेकर प्राणरक्षक अौषधियों तथा वैक्सीनों का निर्माण करनेवाली कंपनियां तक बहुचर्चित सौदों पर हस्ताक्षर करने के बाद भी इन पर अमल करने में देर लगाती हैं. राज्याध्यक्षों के सरकारी दौरों के वक्त सफल राजनय का माहौल बनाने के लिए जो सूचनाएं सार्वजनिक बनायी जाती हैं, उनका क्रियान्वयन कभी भी पारदर्शी नहीं रहा है. निजी उद्यमियों के बीच जो सौदे-समझौते होते हैं, वह भी प्रशासन की कृपा पर आधारित होते हैं. ट्रंप ने यह बात साफ कर दी है कि सस्ते विदेशी श्रम का आयात करनेवाली अमेरिकी कंपनियों को अतिरिक्त कर का भार वहन करना होगा. माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, पेप्सी, मास्टरकार्ड के सीइअो भले ही भारतवंशी हों या फिर बिल गेट्स तथा टिम कुक एनडीए सरकार की प्रशंसा क्यों न करते रहें, ट्रंप अौर उनके सलाहकारों पर इससे फर्क पड़नेवाला नहीं है.

इसके अलावा चिंता का एक अौर विषय है. ट्रंप की तुनकमिजाज कुनबापरस्त मानसिकता अौर कानून की परिधि से बाहर मनमौजी व्यक्तिगत व्यावसायिक मुनाफाखोरी वाले सोच से सरकार चलाने के हठ ने ट्रंप को कटघरे में खड़ा कर दिया है. अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अटॉर्नी जनरल, एफबीआइ के निदेशक आदि को बर्खास्त कर स्वयं उन्होंने अपनी विश्वसनीयता नष्ट की है अौर छवि को धूमिल कर दिया है. भले ही आज भी वह महाभियोग की आशंका से ग्रस्त नहीं पर गैरकानूनी आचरण के आक्षेप/लांछन से मुक्त नहीं. सीनेट की सुनवाई में नया रहस्योद्घाटन कभी भी उन्हें ‘लंगड़ी बतख’ में तब्दील कर सकता है. तीन साल की प्रगतिशील कामयाबी के बाद मोदी सरकार की रफ्तार भी शिथिल होने लगी है. स्वयंभू गोरक्षकों की उद्दंड अराजकता हो या अनेक राज्यो में किसानों का असंतोष-आक्रोष एनडीए सरकार को आबादी के बड़े हिस्से के रोष का सामना करना पड़ रहा है. कश्मीरी अलगाववाद के समाधान में असफलता हो या जीएसटी के विषय में आम सहमति बनाने में विलंब अपने कार्यकाल की मध्यावधि पार कर चुके भारतीय प्रधानमंत्री के लिए भी आंतरिक राजनीति की चुनौतियां राजनय की तुलना में अधिक संवेदनशील बन कर उभर रही हैं. ऐसे में यह कल्पना करना कठिन है कि मोदी अौर ट्रंप की पहली मुलाकात की परिणति किसी सार्थक पहल में हो सकती है.

लेकिन हां, भारतीय-अमेरिकी उद्यमी फिर एक बार प्रधानमंत्री के दौरे को अपने निजी व्यावसायिक हित में भुनाने का प्रयास करेंगे अौर थोरो, महात्मा गांधी, विवेकानंद, मार्टिन लूथर किंग जूनियर को संयुक्त श्रद्धांजलियां दी जायेंगी, पर इतने भर से भारतीयों या अमेरिकियों को उभयपक्षीय रिश्तों के बारे में उत्साहित करना कठिन होगा.

भारत-अमेरिका संबंधों में आ गया है ठहराव!

ट्रंप प्रशासन के सत्ता पर काबिज होने के बाद अमेरिकी रुख से भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों में गर्मजोशी कमी आयी है. मोदी के व्यक्तिगत प्रयासों से दोनों देशों ने आपसी संबंधों को मजबूती से आगे बढ़ाया है. पूर्व की यात्राओं में मोदी और बराक ओबामा के बीच तालमेल ने नयी संभावनाएं जगायी थीं. मोदी और ट्रंप के पूर्ववर्ती नेताओं राजीव गांधी से लेकर नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह तक और बिल क्लिंटन से लेकर जॉर्ज बुश और ओबामा तक, सभी द्विपक्षीय संबंधों को गति देने में अहम भूमिका निभा चुके हैं.

हाल के वर्षों में रिश्ते हुए हैं मजबूत

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत समेत दक्षिण और पूर्वी एशिया के देशों के साथ अमेरिका के संबंध तेजी से मजबूत हुए हैं और आपसी साझेदारी की दिशा में काफी उम्मीदें जगी हैं. बेहतर भविष्य की कल्पना के साथ पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 21वीं सदी में आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर भारत-अमेरिका संबंधों को काफी महत्वपूर्ण बताया था. विश्व राजनीति में भारत की बढ़ती धमक को आंकते हुए ओबामा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका को अहम बता चुके हैं.

रक्षा सहयोग में संभावनाएं

द्विपक्षीय रक्षा सहयोग की दिशा में दोनों देशों ने अभूतपूर्व तरीके से प्रगति की है. भारत रक्षा उत्पादन की दिशा में बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है और ऐसे में अमेरिका रक्षा सहयोग में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत और अमेरिका के बीच हुए डिफेंस टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड इनीशिएटिव (डीटीटीआइ) समझौता है. ऐसे प्रयासों से दोनों देशों के बीच रक्षा, तकनीक और पारस्परिक संबंधों में मजबूती आयेगी. हालांकि, रक्षा सौदों को लेकर दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर गतिरोध है.

द्विपक्षीय व्यापार साझेदारी

एशिया दुनिया के लिए ग्रोथ इंजन बनने की राह पर है. इस रफ्तार में भारत जैसी बड़ी और तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था की भूमिका निश्चित ही निर्णायक होगी. भारत दुनिया की नौवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारत एक ओर जहां, अमेरिकी उत्पादों और सेवाओं का बड़ा बाजार है, वहीं भारत अमेरिका से व्यापार और निवेश का बड़ा लाभ उठा सकता है. भारत अमेरिका उत्पादों के लिए 18वां सबसे बड़ा निर्यात बाजार है. हालांकि, निजी क्षेत्रों में सुधार और विश्वास बढ़ाने के लिए नीतिगत स्तर पर बड़ी पहल की आवश्यकता है. ट्रंप प्रशासन का द्विपक्षीय व्यापार और व्यापक स्तर पर निवेश प्रक्रिया को बढ़ाने की दिशा में अब तक रुख सकारात्मक रहा है. व्यापार, निवेश के अलावा भारत का अमेरिका के साथ अप्रवास और तकनीकी सहयोग पर भी विशेष रूप से फोकस करना होगा.

ट्रंप के फैसलों से असमंजस में भारत

चुनाव प्रचार के दौरान आतंकवाद के मुद्दे पर ट्रंप का रवैया अक्रामक रहा है और आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान को निशाने पर लेते रहे हैं. लेकिन, सत्ता में आने के बाद ट्रंप ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को जिस प्रकार उनकी समस्याओं में मध्यस्थ की भूमिका निभाने का आश्वासन दिया है और पाकिस्तान की कसीदे पढ़े हैं, उससे असमंजस और गहरा गया है. चीन के मामले में भी ट्रंप का रवैया तमाम दुविधाओं से भरा रहा है. इसके अलावा विदेशी मदद के तौर पर पेरिस जलवायु समझौते के तहत भारत को लाभ लेने का दोष मढ़ चुके हैं. अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इससे आर्थिक बोझ बढ़ने का बहाना बना कर वह अमेरिका को समझौते से बाहर लाने का एेलान भी कर चुके हैं. हालांकि, जवाब में भारतीय विदेश मामलों की मंत्री सुषमा स्वराज और प्रधानमंत्री ने पर्यावरण और प्रकृति के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को सर्वोपरि बताया और ट्रंप के आरोपों का खारिज कर दिया.

वाशिंगटन में मोदी के सामने चुनौतियां

इस महीने के अंत में प्रस्तावित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे पर सबसे बड़ी चुनौती ट्रंप प्रशासन के साथ नये सिरे से तालमेल बिठाने की होगी. चूंकि, ट्रंप प्रशासन ने जिस प्रकार एक के बाद एक चौंकानेवाले फैसले लिये हैं, उससे भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों के प्रभावित होने के साथ-साथ विश्व राजनीति की दशा में भी बड़े परिवर्तन की आहट दिखी है.

प्रमुख मुद्दे : एच1 बी वीजा और पेरिस समझौता

ट्रंप प्रशासन ने एच1बी वीजा नियमों में बदलाव करने और पेरिस जलवायु समझौते के तहत भारत द्वारा लाभ लेने का आरोप लगाते हुए समझौते से अमेरिका के अलग होने का फैसला किया है. इस फैसले से भारत के साथ-साथ तमाम अमेरिकी संस्थाएं, विशेषज्ञ और दुनिया के तमाम देश आश्चर्य में हैं. एच1बी वीजा नियमों में बदलाव से भारतीय आइटी कंपनियों का कारोबार प्रभावित हुआ है और बड़ी संख्या में भारतीय पेशेवरों के सामने रोजगार संकट का खतरा मंडरा रहा है. अप्रवासी नियमों में बदलाव करने के ट्रंप के फैसले से अमेरिका में रह रहे तीन लाख भारतीय समेत लगभग 40 लाख लोग प्रभावित होंगे.

नये परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी राष्ट्रवाद

ट्रंप द्वारा लिये गये हर फैसले ने अमेरिका की मुक्त व्यापार नीतियों से लेकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों पर कई प्रश्न खड़े किये हैं. पूर्व में ट्रंप अमेरिका द्वारा किये गये प्रयासों को अमेरिकी श्रमबल की कीमत पर बता चुके हैं. अब ट्रंप वैश्विक मूल्यों के आधार पर व्यापार प्रोत्साहन और किसी देश में आंतरिक मामलों में अमेरिकी दखल से इनकार कर चुके हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत को लगातार अमेरिका के भूमंडलीकरण नीतियों के मुताबिक बदलाव करना पड़ा. लेकिन, अब बदले हालात में अमेरिकी राष्ट्रवाद की चुनौतियां सामने होंगी.

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