ब्रेक्जिट की भूल-भुलैया
डॉ िवजय राणा पूर्व संपादक, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस हिंदी, लंदन vijayrana@nrifm.com ब्रिटेन की राजनीति में हाल ही में दो प्रधानमंत्रियों ने दो बार जुआ खेला और दोनों बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी. पिछले वर्ष फरवरी माह में प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यूरोपीय संघ में ब्रिटेन की हिस्सेदारी के सवाल पर जब जनमत संग्रह कराने […]
डॉ िवजय राणा
पूर्व संपादक, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस हिंदी, लंदन
vijayrana@nrifm.com
ब्रिटेन की राजनीति में हाल ही में दो प्रधानमंत्रियों ने दो बार जुआ खेला और दोनों बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी. पिछले वर्ष फरवरी माह में प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यूरोपीय संघ में ब्रिटेन की हिस्सेदारी के सवाल पर जब जनमत संग्रह कराने की घोषणा की थी, तो उन्होंने अपनी हार की कल्पना नहीं की होगी. इस हार के तुरंत बाद उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा था.
इसी तरह जब अप्रैल में प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने अचानक नये चुनाव कराने का फैसला किया, तो उन्होंने अपनी भारी जीत के मंसूबे बांधे थे. लोकमत सर्वेक्षणों में वो विपक्षी लेबर पार्टी से 22 अंक आगे थीं. उनकी सरकार के पास सिर्फ काम चलाऊ बहुमत था और यूरोप के नेताओं के साथ यूरोपीय संघ से बहिर्गमन, यानी ब्रेक्जिट, वार्ताओं से पहले वो सदन में भारी बहुमत और ब्रितानी जनता के समर्थन से वह अपनी स्थिति को और मजबूत करना चाहती थीं. लेकिन, मतदाताओं ने मे की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को नकारते हुए कंजर्वेटिव पार्टी को बहुमत से भी वंचित कर दिया. और अब उनकी अल्पमत सरकार उत्तरी आयरलैंड की विवादास्पद डेमोक्रेटिक यूनियनिस्ट पार्टी पर निर्भर है.
उधर यूरोप के नेता भी उनकी मदद के लिए तैयार नहीं हैं. जर्मन चांसलर एंजेला मैर्केल का कहना था कि ब्रिटेन को यूरोप से बहिर्गमन की कीमत चुकानी पड़ेगी. उनका इशारा था कि यदि ब्रिटेन यूरोप के देशों के साथ बाधा रहित व्यापार करना चाहता है, तो बदले में उसे यूरोपीय देशों के मजदूरों और कर्मचारियों के लिए अपने द्वार खोलने होंगे. यूरोप के दबाव से उबरने के लिए प्रधानमंत्री मे ने कॉमनवेल्थ कार्ड भी खेला. उन्होंने यूरोप के नेताओं को यह दिखाने का प्रयास किया कि ब्रिटेन का व्यापार सिर्फ यूरोप पर निर्भर नहीं है.
कॉमनवेल्थ देशों की ओर हाथ बढ़ाने की शुरुआत उन्होंने भारत से की. हाल ही में 52 देशों के संगठन कॉमनवेल्थ द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि ब्रेक्जिट के बाद भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त-व्यापार समझौते के बाद ब्रिटेन से भारत को होनेवाले निर्यात में लगभग 33 प्रतिशत की वृद्धि होगी. दूसरी ओर भारत से ब्रिटेन को होनेवाले निर्यात में लगभग एक अरब पाउंड की वृद्धि होगी. लेकिन, भारत ब्रेक्जिट वार्ताओं का परिणाम जाने बिना ब्रिटेन के साथ किसी भी मुक्त-व्यापार समझौते की जल्दबाजी नहीं करना चाहता.
पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के आपसी व्यापार में भी गिरावट आयी है. पिछले पांच वर्षों में द्विपक्षीय व्यापार 15.7 अरब डॉलर से घट कर 14 अरब डॉलर रह गया है. उल्लेखनीय है कि भारत ब्रिटेन का एक बहुत ही छोटा व्यापारिक साझेदार है. ब्रिटेन के संपूर्ण निर्यात में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ 1.7 प्रतिशत की है, जबकि ब्रिटेन के 44 प्रतिशत निर्यात यूरोपीय संघ को जाते हैं.
थेरेसा मे के नेतृत्व में ब्रिटेन के कठोर आप्रवासी कानून भी भारत को रास नहीं आ रहे हैं. उनका कहना था कि प्रतिवर्ष एक लाख से ज्यादा आप्रवासियों को ब्रिटेन में आने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. लगता है कि ब्रिटेन एक असंभव स्थिति में है. वह एक ओर तो विदेशियों के लिए अपने दरवाजे बंद करना चाहता है, लेकिन दूसरी ओर वह बाधा रहित स्वतंत्र व्यापार के लाभ भी उठाना चाहता है. यह बात न तो भारत को मंजूर है और न ही यूरोप के देशों को स्वीकार्य है. यूरोप के नेता जानते हैं कि ब्रिटिश कॉमनवेल्थ 52 देशों का एक ढीला-ढाला संगठन है. ब्रिटेन के संपूर्ण निर्यात में कॉमनवेल्थ का सिर्फ 9 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि यूरोपीय संघ के साथ ब्रिटेन इससे पांच गुना ज्यादा व्यापार करता है. थेरेसा मे के आलोचकों का कहना है कि ब्रिटेन आज भी साम्राज्यवादी स्वप्न देख रहा है. कुछ आलोचकों ने तो इसे ‘एंपायर 2.0’ की संज्ञा दी है.
इस बीच ब्रितानी मुद्रा पाउंड के मूल्य में लगभग 15 प्रतिशत की गिरावट आयी है. उधर महंगाई की दर बढ़ कर 2.9 प्रतिशत हो गयी है, जो पिछले चार वर्षों में सबसे ज्यादा है. माना जा रहा है कि यदि ब्रेक्जिट वार्ताओं में उन्हें अवरोधों का सामना करना पड़ा, तो उन्हें अपने पद से इस्तीफा भी देना पड़ सकता है. और यदि साझा सरकार इन वार्ताओं में असफल रहती है, तो अगले छह महीनों में ब्रिटेन में एक बार फिर मध्यावधि चुनाव हो सकते है.
ब्रिटेन में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो यह मानने लगे हैं कि ब्रेक्जिट का फैसला गलत था. जनमत का एक बड़ा हिस्सा दूसरे जनमत संग्रह की मांग कर रहा है. उधर फ्रांस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इमानुअल माक्रों ने कहा है कि यदि ब्रिटेन ब्रेक्जिट पर पुनर्विचार करना चाहता है, तो हमारे दरवाजे खुले हुए हैं.
स्थिति यह है कि यदि आज ब्रितानी जनता की राय ली जाये, तो वह निश्चय ही यूरोप में रहना चाहेगी. विडंबना यह है कि जनता अपनी गलती मानने को तैयार है, लेकिन अपने राजनीतिक दंभ के पिंजरे में कैद नेता एक गलत फैसले से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.