भारत-पाक मैच का आनंद
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया क्या भारतीय और पाकिस्तानी एक-दूसरे के खिलाफ हाेनेवाले मैचों का आनंद उठाते हैं? मुझे पूरा विश्वास है कि अब इस तरह के अनुभव किसी को पसंद नहीं आते हैं. ऐसा पहले कभी रहा होगा, लेकिन पिछले 25 वर्षों में ऐसा नहीं हुआ होगा. विभिन्न घटनाओं के कारण घृणा […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
क्या भारतीय और पाकिस्तानी एक-दूसरे के खिलाफ हाेनेवाले मैचों का आनंद उठाते हैं? मुझे पूरा विश्वास है कि अब इस तरह के अनुभव किसी को पसंद नहीं आते हैं. ऐसा पहले कभी रहा होगा, लेकिन पिछले 25 वर्षों में ऐसा नहीं हुआ होगा. विभिन्न घटनाओं के कारण घृणा और नापसंदगी का स्तर ऊंचा है, और मीडिया के कारण यह हमेशा उबलता ही रहता है. फुटबॉल से उलट क्रिकेट का खेल पूरे दिन या फिर पांच दिनों तक चलता रहता है. इस वजह से कटुता या विजय के भाव लंबे समय तक हमारे मन में बने रहते हैं. यह एक अच्छी बात है कि वर्तमान में दोनों देशों के बीच कुछ-एक टेस्ट मैच ही होते हैं, कटुता टी20 और एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों तक सीमित है, और वह भी तटस्थ मैदानों पर.
पहली समस्या यह है कि इस उपमहाद्वीप में ज्यादातर खेले जानेवाले मैच राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य में देखे व सराहे जाते हैं. जब प्रतिद्वंद्वी टीम चौका लगाती है या विकेट लेती है, तो पूरा स्टेडियम शांत हो जाता है. सभी टीमों के विरुद्ध ऐसा ही मामला है, लेकिन भारत-पाकिस्तान के मामले में ‘शत्रु’ टीम के खिलाफ दर्शकों की नाराजगी कहीं ज्यादा उच्च होती है.
स्टेडियम में बैठ कर मैच देखने को जो दूसरी बात आनंददायक बनाती है, वह है मैत्रीपूर्ण प्रतिद्वंद्विता का माहौल और नेकदिली के तहत ताना मारना या मजाक उड़ाना, ये बातें उपमहाद्वीपीय प्रतियोगिताओं से पूरी तरह गायब हैं. जिस तरह बिना जमीनी बदलाव और लाभ के कतारबद्ध सेनाएं एक-दूसरे पर बिना रुके गोलीबारी करती हैं, यहां उनकी जगह चिल्ला कर गालियां बकते नागरिकों ने ले ली है. उनके भी पोशाक हैं, जो अपनी-अपनी टीम के रंगों के होते हैं.
गुजराती लोग खेल में दूसरा तत्व भी जोड़ देते हैं और वह है सट्टेबाजी. यहां तक कि इस पर भी राष्ट्रवाद का कब्जा है. मैं एक बेहद सक्रीय सट्टेबाज (पंटर) हुआ करता था (अब नहीं रहा). एक दोपहर मेरे संबंधी संदीप घोष मेरे घर आये थे. उस दिन भारत-श्रीलंका के बीच मैच चल रहा था. वे श्रीलंका पर सट्टा लगाना चाह रहे थे और मैंने अपने सट्टेबाज से सट्टा लगाने के लिए कह दिया. मेरे ऐसा करने के बाद हमने सोचा कि कितने लोगों ने भारत के खिलाफ सट्टा लगाया होगा. मेरा अनुमान था कि इनमें से बहुत-से गुजराती होंगे, क्योंकि गुजराती अपनी भावनाओं और अपने व्यापार को एक-दूसरे से अलग रखते हैं. मैंने सट्टेबाज को फिर से फोन किया और उसने कहा कि 50 या उससे अधिक लोगों ने ऐसा सट्टा लगाया है. उनमें घोष पहले व्यक्ति थे. यहां तक कि गुजराती भी राष्ट्रवाद के साथ जा रहे थे और अपनी नकदी के साथ भारत का समर्थन कर रहे थे.
श्रीलंका ने वह मैच जीत लिया, लेकिन मेरा मुद्दा यह है कि पाकिस्तान के साथ मैच में सट्टेबाजी का यह पक्ष और खो जायेगा और वह एक युद्ध की तरह हो जायेगा.
लगभग चार दशक पहले की बात है, जब मियांदाद और इमरान अपने शिखर पर थे और कपिलदेव ने गावस्कर को भारतीय टीम में तुरंत ही प्रवेश लिया था, तब इन मैचों को देखना मजेदार हुआ करता था. पहली बार इस तरह के अजीब वाकये की शुरुआत अक्तूबर, 1983 में श्रीनगर में भारत-वेस्टइंडीज के बीच खेले जा रहे मैच के दौरान हुई थी. दर्शकों का रवैया भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण था और खुद को मिल रहे समर्थन से वेस्टइंडीज की टीम स्तब्ध थी. गावस्कर ने अपनी पुस्तक ‘रन्स ‘एन रुइन्स’ में इस अनुभव का वर्णन किया है. वे लिखते हैं कि लोग इमरान खान के पोस्टर हाथों में लिये हुए थे. मेरे सहित अनेक भारतीयों को पहली बार ऐसा महसूस हुआ था कि कश्मीर में स्थिति सामान्य नहीं है.
गावस्कर के उस अनुभव के बारे में मेरी व्याख्या यह थी कि यह किसी और चीज से ज्यादा भारत विरोधी था. यह एक ताना था और गावस्कर ने इसे सही तरीके से लिया. वे कहते हैं कि उन्होंने उनकी तरफ इशारा किया, फिर धरती की तरफ, उसके बाद इमरान के पोस्टर की तरफ और फिर आकाश की तरफ. उन्होंने लिखा कि उनके इस बरताव की दर्शकाें ने तालियां बजा कर सरहाना की.
मार्च, 2004 में जब वीरेंद्र सहवाग ने शोएब अख्तर और मोहम्मद शमी जैसे गेंदबाजों का सामना करते हुए अपना तीसरा शतक लगाया था, तब मैं मुलतान के स्टेडियम में मौजूद था. मैं अपने पाकिस्तानी दोस्त के साथ वहां था और एक भारतीय के रूप में मुझसे परिचित होने के बाद लोग मेरे पास आकर ऑटोग्राफ के लिए आग्रह करने लगे.
अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज मुशर्रफ की पहल पर इस प्रसिद्ध मैत्री शृंखला का आयोजन किया गया था. ये वे नेता थे, जिन्होंने कारगिल में एक बड़ी जंग लड़ी थी (जहां दोनों तरफ से लगभग 500-500 सैनिक मारे गये थे). तब वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे और मुशर्रफ पाकिस्तानी सेना के प्रमुख थे. और इन्होंने एक-दूसरे को लक्ष्य करके अपने परमाणु हथियार तैनात किये थे.
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि उन वर्षों में जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा हिंसा हुई थी. जम्मू-कश्मीर में 2016 (तब 267 मारे गये) के मुकाबले 2001 में बीस गुना ज्यादा लोग हताहत (तब 4507 मारे गये) हुए थे. और इसलिए हम अगर ऐसा मानते हैं कि कश्मीर में हालात बुरे हो गये हैं, तो यह जमीनी हकीकत की वजह से नहीं है, बल्कि राजनीति और मीडिया की वजह से है. आज की स्थिति में जहां जमीन पर कम और आबादी के दिमाग में कहीं ज्यादा हिंसा व्याप्त है, ऐसी खेल शृंखला की कल्पना करना भी अचरज की बात है.