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असम विभाजन से सीखे बंगाल

रविशंकर रवि संपादक, दैनिक पूर्वोदय ravighy@gmail.com भाषा के सवाल पर उठा आंदोलन किस तरह अलग राज्य का आंदोलन और राज्य की विभाजन की वजह बन जाता है, इसका सबसे बेहतर उदाहरण असम है. जिस तरह पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बांग्ला भाषा को अनिवार्य किया है, उसी तरह वर्ष […]

रविशंकर रवि
संपादक, दैनिक पूर्वोदय
ravighy@gmail.com
भाषा के सवाल पर उठा आंदोलन किस तरह अलग राज्य का आंदोलन और राज्य की विभाजन की वजह बन जाता है, इसका सबसे बेहतर उदाहरण असम है. जिस तरह पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बांग्ला भाषा को अनिवार्य किया है, उसी तरह वर्ष 1970 के दौर में असम सरकार ने भी सरकारी कार्यालयों के लिए असमिया भाषा को अनिवार्य कर दिया था. तब मेघालय और मिजोरम असम के जिले हुआ करते थे.
लेकिन, भाषा थोपने के खिलाफ उठे आंदोलन की वजह से वर्ष 1972 में मेघालय और मिजोरम जिले असम से अलग हो गये. यह अलग बात है कि अलग राज्य की मांग बहुत पहले से हो रही थी, लेकिन जबरन भाषा थोपने के फैसले ने गर्म हो रहे पानी में और उबाल ला दिया, जिसके परिणामस्वरूप मेघालय और मिजोरम अस्तित्व में आये.
पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों में बांग्ला भाषा को अनिवार्य करने के बंगाल सरकार के फैसले ने अलग गोरखालैंड की मांग की दबी भावना में उबाल ला दिया है. सरकार नौकरियों और विकास योजनाओं में उपेक्षित गोरखा समुदाय का गुस्सा इस फैसले से उबल पड़ा.
इसी के परिणाम स्वरूप दार्जिलिंग में बीते आठ जून को शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन अब अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में बदल चुका है. शुरुआत में राज्य सरकार ने बलपूर्वक इस आंदोलन को दबाने का फैसला किया और भरपूर कोशिश की. पुलिस की कार्रवाई और आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं की मौत से हिंसा भड़क गयी. हालात पर काबू पाने के लिए सेना की मदद ली गयी. अब बंगाल का पूरा पहाड़ी इलाका उबल रहा है. बंद पूरी तरह से सफल है. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख बिमल गुरुंग ने यह मांग पूरी न होने तक आंदोलन को जारी रखने का ऐलान किया है.
वहां की स्थिति पर नजर बनाये रखनेवाले जानकारों का मानना है कि सब कुछ सामान्य गति से चल रहा था, लेकिन ममता बनर्जी के एक गलत फैसले ने हालात को बिगाड़ दिया है. केंद्र सरकार भी राजनीतिक कारणों से इस मामले में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रही है. दूसरी बात यह भी है कि केंद्र के साथ ममता बनर्जी का रिश्ता कुछ बेहतर नहीं है. यह अलग बात है कि करीब डेढ़ हजार अर्द्धसैनिक बलों को केंद्र ने वहां पर भेजा है, ताकि हालात पर काबू पाया जा सके.
वैसे गोरखालैंड की मांग सौ साल से भी ज्यादा पुरानी मांग है. इस मांग को लेकर कई बार हिंसक आंदोलन हो चुके हैं. अखिल भारतीय गोरखा लीग ने वर्ष 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक ज्ञापन सौंप कर बंगाल से अलग होने की मांग उठायी थी.
उसके बाद सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने अलग राज्य की मांग में हिंसक आंदोलन शुरू किया था. हालांकि, उस दौरान यह आंदोलन दो धड़ों में बंटा हुआ था. इस कारण वहां गुटीय संघर्ष भी हुए. वर्ष 1985 से 1988 के बीच चले उग्र आंदोलन के दौरान हिंसा में कम से कम 13 सौ लोग मारे गये.
गोरखा पर्वतीय परिषद् के गठन के बाद अलग राज्य का आंदोलन थम गया था. यह परिषद् अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पा रहा था. राज्य सरकार ने कई विभागों का हस्तांतरण भी नहीं किया. गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घीसिंग का प्रभाव कम होता गया.
लेकिन, वहां पर बिमल गुरुंग ज्यादा प्रभावशाली होकर उभरे और उनका गोरखा जनमुक्ति मोर्चा सबसे ताकतवर संगठन बन गया. उनकी अगुवाई में अलग गोरखालैंड की मांग कभी तेज होती, तो कभी धीमी होती रही, लेकिन अलग राज्य के आंदोलन की चिंगारी कभी पूरी तरह से बुझी नहीं थी. और जब वक्त ने करवट ली, तो जबरन बांग्ला भाषा थोपने के फैसले ने उस चिंगारी को आग में बदल दिया. यदि हालात को ठीक से नहीं संभाला गया, तो वह चिंगारी दावानल बन सकती है.
वैसे तो बिमल गुरुंग शांतिपूर्ण आंदोलन के पक्षधर रहे हैं. लेकिन, पुलिस कार्रवाई की वजह से एक दिन अचानक यह आंदोलन हिंसक हो गया. उसके बाद शांतिपूर्ण तरीके से विरोध जारी है. आंदोलनकारी वहां फंसे किसी पर्यटक पर हमले नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन्हें वहां से सुरक्षित बाहर भेजने में मदद कर रहे हैं.
बेहतर यही होगा कि ममता सरकार पहले तो गोरखालैंड के सरकारी स्कूलों से बांग्ला भाषा अनिवार्य पढ़ाने के फैसले को वापस ले और समझौते के तहत गोरखालैंड पर्वतीय परिषद् को सारे विभाग सौंपे. उनके लिए केंद्र से आनेवाली राशि का भुगतान किया जाये और उसके बाद आंदोलकारी नेता को ससम्मान बुला कर बात की जाये. पश्चिम बंगाल सरकार चाहे, तो वहां हालात बदल सकते हैं.

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