हम चाहे जितना गर्व कर लें अपनी सभ्यता पर, चाहे जितना इठला लें अपनी उपलब्धियों पर, यह एक कठोर सत्य है कि हम और हमारा समाज बेहद हिंसक और बर्बर है. कहीं गाय के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं बेमानी शको-सुबहा से ग्रस्त भीड़ हत्या पर उतारू होने लगी है. यह सिलसिला कश्मीर से कन्याकुमारी तक जारी है. इससे भी खतरनाक वह रवैया है, जो इन हत्याओं को किंतु-परंतु-लेकिन लगाकर सही ठहराता है.
यह भी भयावह है कि खूनी भीड़ को रोकने के लिए कोई आगे नहीं बढ़ता. हरियाणा के असावटी रेलवे स्टेशन पर तो किसी ने भी कुछ होते हुए नहीं देखा, जहां जुनैद और उसके भाई लहूलुहान पड़े थे. श्रीनगर में कोई भी पीड़ित अयूब पंडित को ठीक से नहीं पहचान सका. अब तो हालत यह हो गयी है कि पुलिस और प्रशासन भी मूकदर्शक है. एक घटना में तो हत्यारे सरकारी कर्मचारी थे. यह भी अजीब विडंबना है कि कुछ मामलों में मृतक और घायलों पर भी मुकदमे दर्ज किये गये हैं. सरकारें भी इन घटनाओं पर निंदा कर और जांच का आश्वासन देकर रस्म अदायगी कर रही हैं. इस हत्यारी मानसिकता को जो शह मिल रहा है, उसके पीछे एक दकियानूसी और घृणा पर आधारित राजनीतिक सोच है. यह सब जो हो रहा है, उसे महज आपराधिक कृत्य मान लेना गलत होगा.
यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का संकेत तो है ही, सामाजिक स्तर पर बेतहाशा बढ़ रही भेदभाव से ग्रस्त हिंसक मानसिकता गंभीर बीमारी का इशारा भी है. नृशंस हत्याओं के बावजूद हत्यारों और उनके समर्थकों में पछतावा का कोई भाव नहीं है. यह भी सच है कि हिंसक लोगों की संख्या आज भी कम है, पर उनके अपराध में शामिल होना, उसे जायज ठहराना या फिर चुप्पी लगा लेना भी तो उनके मनोबल को बढ़ाता है. यदि इस प्रवृत्ति को तुरंत नहीं रोका गया, तो यह देश तबाह हो जायेगा. नफरत की नाव पर बैठ कर न तो हम देश की एकता और अखंडता को बचा सकेंगे और न ही विकास और समृद्धि के सपनों को साकार कर पायेंगे.
धर्म, जाति, व्यवसाय और वैचारिक भिन्नता के आधार पर हो रहा यह हत्याकांड वास्तव में देश पर आत्मघाती हमला है. राजनीति के शीर्ष से लेकर आम नागरिक के स्तर तक आज गहन आत्ममंथन की आवश्यकता है. भारत को आदमखोर भीड़तंत्र में बदलने से रोकने के लिए हम सभी को तुरंत पहलकदमी करनी होगी. कल तक बहुत देर हो जायेगी.