बिगड़ रहे हैं सांप्रदायिक रिश्ते?
मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com भारतीय उपमहाद्वीप का समाज हमेशा से बहु-सांस्कृतिक रहा है. यहां अनेक धर्म और जाति के लोग हजारों वर्षों से रहते आये हैं. लोग बाहर से भी आये और इस बहुलवादी संस्कृति में समाहित होते चले गये. प्रारंभिक दौर में आपस में संघर्ष भी रहता होगा, अविश्वास भी रहता […]
मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
भारतीय उपमहाद्वीप का समाज हमेशा से बहु-सांस्कृतिक रहा है. यहां अनेक धर्म और जाति के लोग हजारों वर्षों से रहते आये हैं. लोग बाहर से भी आये और इस बहुलवादी संस्कृति में समाहित होते चले गये. प्रारंभिक दौर में आपस में संघर्ष भी रहता होगा, अविश्वास भी रहता होगा. लेकिन कुछ ऐसा है इस समाज में कि धीरे-धीरे सब कुछ घुल-मिल जाता रहा है.
इस प्रक्रिया में नये दर्शन बने, नयी संस्कृति बनीं, नयी संस्थाएं बनीं. एक तरह की सृजनात्मक क्षमता इस समाज में रही है. लेकिन क्या आगे भी ऐसा होता रह सकता है? या फिर हम धीरे-धीरे खंडित समाज की ओर बढ़ रहे हैं? हमारे बीच सांस्कृतिक अलगाव बढ़ रहा है. हम अस्मिता को लेकर इतने संजीदे हो गये हैं कि हर छोटी-सी बात पर हिंसक हो जाते हैं, सांस्कृतिक भिन्नता को शंका की दृष्टि से देखते हैं.
बिहार के सीमांचल में इस विषय पर शोध करते समय मेरी यह चिंता बहुत बढ़ गयी है. लोग बताते हैं कि हाल तक यहां हिंदू और मुसलिम परिवारों में खूब आना-जाना था. पर्व-त्योहारों में भागीदारी थी.
हिंदुओं की होली गाने की टोलियां मुसलमानों की बस्तियों में जाती थीं, दुर्गा पूजा में मुसलमान प्रसाद चढ़ाया करते थे. बहुत-सी मुसलिम महिलाएं छठ का प्रसाद बनाया करती थीं. अलगाव था, लेकिन नफरत नहीं थी. मुंहबोली बहनें, मुंहबोले भाई, मामा, चाचा ऐसे अनेक रिश्तों में उनके संबंध बने रहते थे. मुझे भी याद है मसी चाचा और शब्बीर चाचा की. मेरे चाचा के दोस्त थे और घर के सदस्य जैसे थे. दोनों परिवार एक-दूसरे के अंतर को जानते थे और उसका सम्मान करते थे. एक-दूसरे को क्या खाना है, क्या नहीं खाना धार्मिक तौर पर वर्जित है, सब मालूम होता था और उसका ध्यान रखा जाता था.
शब्बीर चाचा जब घर आते थे, तो उनके खाने-पीने के बर्तन अलग थे. उन्हें केवल पता ही नहीं था, बल्कि गलती से यदि कभी उन्हें ‘घर के’ गिलास में पानी दे दिया गया हो, तो अपना गिलास खोज कर मंगवाते थे. इसी तरह उनके घर में भी हमारे लिए अलग बर्तन होते थे. यह केवल अंतर को सम्मान देने की बात थी. नफरत की बात नहीं थी. मुझे याद है उनके पिता पूर्णिया से चुनाव लड़ रहे थे. मैं उनका सबसे छोटा प्रचारक था, केवल पांच साल का. सांसद बने. चुनाव में मुद्दा उनकी ईमानदारी थी, न कि उनका धर्म.
इस पूरे इलाके में भारत के विभाजन का कोई असर नहीं हुआ था. मैंने सामूहिक चेतना को खंगालने की भी कोशिश की और आप आश्चर्यचकित होंगे कि इस इलाके में मुसलमानों की अच्छी संख्या होने के बावजूद विभाजन की कोई यादें यहां नहीं हैं. किसी ने बताया कि विभाजन के समय जब इस इलाके पर पाकिस्तान अपना हक जता रहा था, किसी मुसलिम प्रतिनिधि ने इसका भरपूर विरोध किया था और इसलिए यह संभव नहीं हो पाया.
एक कहानी मिली किसी गांव में. हिंदू और मुसलिम परिवार में झगड़ा था. मुसलिम परिवार के मुखिया ने किसी हिंदू बच्चे को एक थप्पड़ मारा और वह मर गया. हिंदू मुखिया के पास पुलिस पूछताछ करने लगी. उनका जबाब था- वह ऐसा नहीं कर सकता है, बच्चा पहले से कुछ बीमार था, थप्पड़ इतने जोर का भी नहीं था, जान लेनेवाला आदमी वह है ही नहीं. गांववाले भी इस पर एक मत थे. यह बात है साठ के दशक की. क्या आज भी ऐसा ही होगा? हमारी नदियां मर रही हैं, रिश्ते टूट रहे हैं, अविश्वास का समाज बन रहा है, जमीन जहर उगल रही है, पानी जहरीला हो रहा है. इसमें सांप्रदायिक रिश्ते भी टूट रहे हैं.
पानी, जमीन और हवा का शुद्धीकरण कर सकते हैं. लेकिन इन रिश्तों का क्या करें? रिश्तों को नफरत की बाढ़ में बह जाने से कैसे रोकें? हमने सोचा था जनतंत्र इन सबका जबाब होगा. लोग अपना मत व्यक्त करेंगे और बहुमत का राज होगा. लेकिन क्या हमारे मत पर हमारा अधिकार रह गया है! मनोवैज्ञानिक हमारे मत की गतिविधियों को समझने में लगे हुए हैं.
कैसे उस पर अधिकार जमाया जा सके, इस पर शोध चल रहा है, तकनीक को विकसित किया जा रहा है. मीडिया का जाल बिछ गया है. उन्हें मालूम है कि किस सूचना पर हमारा व्यवहार कैसा होगा. हमारी बढ़ती दूरियों की जमीन पर ही उनका सारा खेल है. हम आपस में जितने ही दूर हैं, हमारे मत पर उनका उतना ही अधिकार है. जनतंत्र को बहुमत तंत्र और अंत में भीड़ तंत्र में बदल जाने का खेल खेला जाता है. इस खेल का सबसे बड़ा खिलाड़ी बाजार और पूंजी हैं.
क्या राज्य इन रिश्तों को ठीक करने का प्रयास कर सकता है? यदि राज्य की नीतियां नीति-निर्देशक तत्वों पर चलें, तो शायद संभव है. लेकिन शक्तिशाली लोगों को इसकी परवाह नहीं है. सत्ता के लिए यदि इन रिश्तों की बलि भी देनी होगी, तो वे ऐसा करने में समय भी नहीं लगायेंगे. राजधर्म है कि जनता के बीच सौहार्द का प्रयास करें. लेकिन राजधर्म को कौन मानता है? अब दूरगामी सोच की जरूरत नहीं लगती है उन्हें.
क्या जनता ही कुछ प्रयास कर सकती है? बचपन में मेरे एक शिक्षक ने एक कविता लिखी थी, पंक्तियां आज भी कानों में गूंजती हैं- ‘बना चुके हम कल-पुर्जे को, अब समाज को गढ़ना है, जनता के निर्माण कार्य में जनता को ही बढ़ना है.’ सटीक बैठती हैं ये पंक्तियां आज के संदर्भ में. सरकार और राज्य से उम्मीद छोड़ें, खुदी को बुलंद करें और शायद हम अभी भी उन बीते दिनों को लौटा सकते हैं. हम नदियों को फिर से प्रवाहित कर सकते हैं, जमीन से जहर निकाल सकते हैं, पानी को शुद्ध कर सकते हैं. हम मनुज पुत्र हैं, इन रिश्तों को भी ठीक कर सकते हैं, पहले से भी बेहतर बना सकते हैं.
इसके लिए समाज के उन संस्थाओं को पुनर्जीवित करना होगा, जो संस्कृतियों के मिलन-बिंदु हैं. किसी लालन फकीर को फिर से बाउल गीत लोगों के लिए गाना होगा, किसी औलिया को सरकार से अलग अपनी हस्ती बनानी होगी, किसी गांधी को पैदा होना होगा. यह देश बहुत बड़ा है और केवल क्षेत्रफल या संख्या में ही नहीं, बल्कि साझी संस्कृति और साझी विरासत में भी. यह संभावनाओं का देश है.