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एक अहम फैसला

कानून के दायरे में अजन्मे शिशु और गर्भवती मां के रिश्ते का सवाल पूरी दुनिया में बड़े विवादों का विषय रहा है. एक सवाल यह भी है कि गर्भ में पल रहा भ्रूण अगर किसी बीमारी से ग्रस्त हो, उसको पेट में पालते रखने से माता के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान की […]

कानून के दायरे में अजन्मे शिशु और गर्भवती मां के रिश्ते का सवाल पूरी दुनिया में बड़े विवादों का विषय रहा है. एक सवाल यह भी है कि गर्भ में पल रहा भ्रूण अगर किसी बीमारी से ग्रस्त हो, उसको पेट में पालते रखने से माता के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान की आशंका हो, तो इस गर्भ से वह छुटकारा पाने के लिए कानूनी तौर पर स्वतंत्र है या नहीं.
गर्भपात संबंधी कानून के मुताबिक कोई स्त्री अनचाहे गर्भ से छुटकारा पाने का फैसला करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन शर्त यह रखी गयी है कि भ्रूण 20 हफ्ते से ज्यादा का न हो. कानून की पेचीदगियां ऐसी हैं कि गर्भस्थ शिशु से माता को शारीरिक और मानसिक क्षति पहुंचने की आशंका को आधार बना कर गर्भपात की इजाजत के लिए मामले अदालत पहुंचते हैं, तो फैसले एक-दूसरे के विरोधाभासी आते हैं.
अभी सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल की एक महिला को 26 माह के गर्भ से चिकित्सीय देखरेख में छुटकारा पाने की इजाजत दी है. उसका गर्भस्थ भ्रूण गंभीर हृदयरोग से ग्रस्त था और अदालत ने माना कि ऐसे शिशु को जन्म देने से माता को गंभीर मानसिक क्षति पहुंच सकती है. इससे पहले मार्च के अंतिम हफ्ते में अदालत ने एक ऐसे ही मामले में एकदम उलटा फैसला दिया था. उस मामले में सैंतीस साल की एक गर्भवती महिला ने गर्भपात की इजाजत के लिए अर्जी डाली थी. उसका भ्रूण 26 हफ्ते का हो चुका था और 23 वें हफ्ते में यह साफ हुआ था कि भ्रूण को डाऊन सिंड्रोम नाम की बीमारी है.
अदालत ने तब कहा कि डाऊन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चे बेशक मंद बुद्धि होते हैं और आगे चल कर उन्हें बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन ऐसे बच्चे को जन्म देने से माता के जीवन को कोई खतरा नहीं है, सो हम गर्भपात की इजाजत नहीं दे सकते. इससे भी ज्यादा विचित्र फैसला एक बार गुजरात उच्च न्यायालय का आया, जिसमें बलात्कार की शिकार 14 साल की एक किशोरी को 25 हफ्ते का गर्भ गिराने की इजाजत नहीं दी गयी थी. हालांकि, बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को उलट दिया था.
महिलाओं के प्रजनन संबंधी अधिकारों के मामले में वैधानिक तौर पर देश ने प्रगति की है, परंतु कानूनी पेचीदगियां इन अधिकारों के आड़े आती रही हैं. सर्वोच्च न्यायालय के नये फैसले से उम्मीद बंधी है कि महिलाओं के प्रजनन संबंधी अधिकारों को ज्यादा प्रगतिशील ढंग से देखा जा सकेगा. इस प्रक्रिया में समाज और सरकार को उत्तरोत्तर सकारात्मक रवैया अपनाने की आवश्यकता है.

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