वो बारिश का पानी…

नाजमा खान पत्रकार आ गयी तुम? ऐसा लग रहा था जैसे हम एक सदी से तुम्हारे मुंतजिर थे. उस दिन भी तुम से मुलाकात न हो सकी. मैं तुमको नजर भर देख भी न सकी थी कि तुम उड़नछू हो गयी. खैर, यह तो कुदरत का उसूल है कि तुम्हारी पहली बूंद गिरने के साथ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 6, 2017 6:22 AM
नाजमा खान
पत्रकार
आ गयी तुम? ऐसा लग रहा था जैसे हम एक सदी से तुम्हारे मुंतजिर थे. उस दिन भी तुम से मुलाकात न हो सकी. मैं तुमको नजर भर देख भी न सकी थी कि तुम उड़नछू हो गयी. खैर, यह तो कुदरत का उसूल है कि तुम्हारी पहली बूंद गिरने के साथ ही फना हो जाती है. पर, कल रात जो तुमने मेरी बरसाती (छत पर बना घर) पर दस्तक दी, तो खुशी से ज्यादा नींद में खलल पड़ने पर गुस्सा आया था, कि तुमसे सुबह तक का इंतजार भी न हो सका. तुम जानती हो ना कि हम दिल्ली वाले तुम्हारा इस्तकबाल चाय और पकौड़ों से करने के लिए बेताब रहते हैं.
आते के साथ ही इतनी धमाचौकड़ी मचाने की क्या जरूरत है? तुम आरकेपुरम और संगम विहार में अंतर करना भूल गयी क्या? तुम तो संगम विहार पहुंचते-पहुंचते सिली हो जाती हो और कूद पड़ती हो उन नालियों में, जो घर के पानी को संभाल नहीं पातीं. तुम साउथ एक्स में अल्हड़ बन बरसती हो और सीलमपुर में चुड़ैल हो जाती हो.
खेतों में मासूम बच्चे की तरह पेश आती हो और शहरों में इंतजाम ठीक न होने पर अपने रौद्र रूप का मुजाहिरा पेश करती हो. ऊंची इमारतों से देखने पर किसी हसीना सी लगती हो. लेकिन जब झोपड़ी से टपकती हो, तो किसी की बेवफाई याद दिला जाती हो. समझ नहीं आता तुम्हें नटखट कहूं या तुनक मिजाज. जब आती हो सौंधी खुशबू लेकर आती हो, लेकिन चंद दिन बाद ही कपड़ों पर महक बन चिपक जाती हो.
खैर जाने दो, बताओ तो सही कैसा रहा तुम्हारा यहां आने तक का सफर. रास्ते में उदास बैठे किसानों पर खुदा की रहमत बन कर बरसी? या फिर तुम भी हैसियत देख कर ही रहम करती हो?
सुनो, इस बार मैंने तुम्हारे लिए कुछ नज्में लिखी हैं. मैं तुम्हारे उन चाहनेवालों में से नहीं हूं, जिन्होंने तुम पर दीवान लिख छोड़े, न ही मैं कजरी गा सकती हूं, न ही मल्हार छेड़ सकती हूं, लेकिन मैं बॉलीवुड के उन नग्मों को गुनगुना सकती हूं, जिसमें तुम्हें देख कर बड़ी हुई हूं. गीली मुंडेरों पर इठलाते हुए तुम्हें देखने के हम भी मुरीद हैं. छत की लाल ईंटों से बने फर्श पर तुम्हें छप्पा-छई करते देख हमने भी कई रातें गुजारी हैं. फूलों की पंखुड़ियों पर ओस की मानिंद तुम्हारी मौजूदगी में हमने भी भीगते हुए चोरी से अपने अश्क बहाये हैं.
सावन जब चढ़ेगा तब चढ़ेगा. हमने तो तुम्हारे आने से पहले ही इस बार हाथों में हिना रचा ली है.जब चाहे चली आना, बरसते मौसम में हिना की रंगत में छुपी कुछ यादों को हम भी गीला कर लेंगे. कोशिश करना कि छत पर नहीं, मेरे आंगन में आना. चाहो तो खिड़की पर आवाज लगाना. बट प्लीज, बिना मिले फिर से चली ना जाना. बहुत कुछ इस साल भी ऐसा हुआ है जो तुम्हें बताना है. तुम भी आप-बीती सुनाना. फिर दोनों मिल कर बचपन की तरह एक कश्ती बनायेंगे और उस पर उन बातों को चढ़ा देंगे और बरसते पानी में उन्हें तैरा कर भुला देंगे.

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