भारत-चीन गतिरोध की दिशा

मोहन गुरुस्वामी वरिष्ठ टिप्पणीकार mohanguru@gmail.com भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों के बीच सिक्किम सीमा अक्सर राजनयिक और सैन्य टकरावों का कारण बनती है, पर वर्ष 1967 में दोनों सेनाओं के बीच छोटी, लेकिन खतरनाक तरीके से स्थानीय स्तर पर हुई लड़ाई के बाद से चीन-भारत सीमाक्षेत्र शांत ही रहा है. लेकिन, बड़े स्तर पर सैनिकों के जमावड़े […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 6, 2017 6:26 AM
मोहन गुरुस्वामी
वरिष्ठ टिप्पणीकार
mohanguru@gmail.com
भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों के बीच सिक्किम सीमा अक्सर राजनयिक और सैन्य टकरावों का कारण बनती है, पर वर्ष 1967 में दोनों सेनाओं के बीच छोटी, लेकिन खतरनाक तरीके से स्थानीय स्तर पर हुई लड़ाई के बाद से चीन-भारत सीमाक्षेत्र शांत ही रहा है.
लेकिन, बड़े स्तर पर सैनिकों के जमावड़े और परस्पर आंख दिखाने के चल रहे सिलसिले के बीच यह अनुमान लगाना कि कोई तनाव नहीं है, बिल्कुल गलत है. हालिया सैन्य गतिरोध क्यों बढ़ा? इस पर दोनों पक्षों ने सीमा पार करने का आरोप लगाते हुए एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला.
लेकिन, वास्तव में क्या घटित हुआ? क्या यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डोनाल्ड ट्रंप के साथ मुलाकात से पहले घटित होना संयोग मात्र है?
जेम्स बांड ने एक बड़ी मशहूर बात कही है- ‘पहली बार घटना होती है, दूसरी बार संयोग और तीसरी बार दुश्मनी भरी कार्रवाई.’ जब भारतीय नेतृत्व शी जिनपिंग और डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेताओं से मुलाकात कर रहा है, ऐसे में यह भड़काव संयोग की संभावना को नजरअंदाज करता है. यह स्पष्ट प्रतिमान उभर रहा है. चाहे वह हमारी तरफ से इसे भड़काया जा रहा है या उनकी तरफ से, यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती.
भारतीय जनता में मान्यता है कि चीन एकतरफा तनाव को बढ़ा रहा है. चीनी जनता सोचती है कि इसके पीछे भारत है. व्यापक और त्वरित संचार व्यवस्था वाली नयी दुनिया में धारणाएं ही सच्चाई हैं.
हालांकि, दोनों सेनाओं के बंद कमरों के नीचे से एक रोशनी बाहर आ रही है. सिक्किम और भूटान के बीच चुंबी घाटी के सुदूरवर्ती क्षेत्र डोकलम इलाके में चीन सड़क का निर्माण कर रहा है. हमारी सेना मानती है कि यहां पर तैनात किये जानेवाले हथियारों से भारतीय क्षेत्र और संचार व्यवस्था को गंभीर खतरा होगा. मानचित्र पर चुंबी घाटी ऐसे प्रतीत हो रही है कि यहां से खतरा न केवल सिक्किम को है, बल्कि असम और पूर्वोत्तर के शेष भारत से दूर होने का भी है.
इसलिए भारतीय सेना भूटान में डोक-ला पास में चीनी सेना (पीएलए) के प्रभाव को चुनौती देना चाहती है. भारत-भूटान सैन्य संबंधों पर हुए समझौते को मानते हुए यह गलत नहीं है. यह स्पष्ट है कि दुनिया की दो बड़ी सेनाएं अपनी स्थिति का लाभ लेने के लिए लामबंद हो रही हैं. जब दोनों तरफ से सेनाओं का जमावड़ा हो रहा हो और सरकारों के बीच विश्वास न्यूनतम स्तर पर हो, ऐसे में यह सब स्वाभाविक ही है.जनमत संग्रह द्वारा विधिवत शामिल किया गया सिक्किम 40 वर्षों से अधिक समय से भारत का अभिन्न हिस्सा है.
चीन अभी तक पूर्ण स्पष्टता के साथ यह स्वीकार नहीं कर पाया है कि सिक्किम भारत का हिस्सा बन चुका है. पूर्व चीनी प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ द्वारा यह स्वीकार किये जाने के बाद कि द्विपक्षीय संबंधों में अब सिक्किम कोई मुद्दा नहीं है, इसके बावजूद अनेक चीनी मानचित्रों में दिखाया जाता है कि सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं है. यहां से स्पष्ट है कि सिक्किम मुद्दे पर बीजिंग जान-बूझ कर पेच फंसा रहा है. यहां तक कि कुछ चीनी विशेषज्ञों का मानना है कि चीन का विश्वास है कि सीमा मुद्दे पर भारत के साथ वार्ता में इसका उसे लाभ मिलेगा. अब वास्तविकता यह है कि सिक्किम भारतीय गणतंत्र का हिस्सा है.
जबकि, इस परिग्रहण को जनमत संग्रह द्वारा मंजूरी दी गयी है. तिब्बत के मामले में एेसा नहीं है, लेकिन भारत वास्तविकता को स्वीकार करता है. चीन को वास्तविकता स्वीकार करनी होगी. इसके लिए कोई विकल्प नहीं है. अपने मानचित्र में वह क्या दिखाता है और क्या नहीं, यह मायने नहीं रखता. अगर चीन को लगता है कि इससे उसे फायदा मिलेगा, तो उसके लिए ठीक है. आज दोनों देश अस्वीकार्य स्तर पर हिंसा करने में सक्षम हैं. बुद्धिमानी यह होगी कि पुरानी धारणाओं से बाहर आकर वास्तविकता को अंगीकार किया जाये.
अन्य गलतफहमियां आगे चल कर एक-दूसरे के बारे में हमारी धारणाओं को उलझाती जा रही हैं. कुछ चीनी विशेषज्ञों ने दावा किया है कि 1962 के युद्ध में हुई शर्मनाक हार से भारत को अभी भी बाहर आना है. बढ़ते आर्थिक और व्यापार संबंधों के बावजूद दोनों देश एक-दूसरे पर गहरा अविश्वास करते हैं.
बीजिंग के नजरिये से देखें तो बीजिंग के राजनयिक, आर्थिक और सैन्य दृढ़ता का सामना करने के लिए अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम के मिल कर चीन विरोधी गठबंधन बनाने में भारत सक्रिय भूमिका निभा रहा है. पिछले महीने बीजिंग में हुए वन बेल्ट वन रोड सम्मेलन में भारत की अनुपस्थिति को चीनी मीडिया ने तनावपूर्ण संबंधों के सबूत के तौर पर उद्धृत किया है.हमें यहां कुछ वास्तविकता के अनुरूप चलना चाहिए. वर्ष 1962 का युद्ध 55 साल पहले हुआ था.
इसे हुए एक वक्त हो चला है. ठीक उसी तरह जिस तरह से 1911-12 में तिब्बतियों द्वारा अपने देश से चीनियों को बाहर निकाले हुए एक लंबा समय बीत चुका है. ये सारी बातें अब निरर्थक हैं. अब के भारत में सरलता और आशा की जगह नयी वास्तविकताओं पर आधारित सोच ने ले लिया है. चीनी विशेषज्ञ जो 1962 की बातों को याद दिलाते रहते हैं, उनकी समझदारी में कुछ कमी है. तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था, प्राद्यौगिकी और सामाजिक बदलाववाली इस दुनिया में भारत और चीन के भाग्य आपस में जुड़े हुए हैं. वैश्विक शक्ति हस्तानांतरण की प्रक्रिया भी जारी है.
भारत और चीन को इस सत्य को समझना चाहिए और अपने अधपके और अपढ़ ‘रणनीतिक विशेषज्ञों’ की बचकानी कल्पनाओं से बाहर निकल कर एक ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए तैयार रहना चाहिए.
हम जानते हैं कि हमारा हित किसमें है और किसमें नहीं. चीन के साथ अमेरिका और जापान के बेहद करीबी आर्थिक रिश्ते भी हैं, जिसे भारत द्वारा अभी विश्वसनीय सहयोगी माना जाना है. भारत जानता है कि वह अकेला खड़ा है. भारत वन बेल्ट-वन रोड (ओबीओआर) में शामिल नहीं हुआ, क्योंकि वहां उसके हित में कुछ भी नहीं था. भारत और चीन के बीच वृहत्तर आर्थिक एकीकरण ही चीन और भारत की निरंतर दीर्घकालिक विकास की सर्वोत्तम उम्मीद है.

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