..और इसलिए लालू बन गये सॉफ्ट टारगेट

-प्रेम कुमार- लालू प्रसाद देश में बीजेपी विरोध के स्तंभ हैं. वे देश के एकमात्र नेता हैं जिन्होंने कभी किसी भी समय बीजेपी या एनडीए के साथ हाथ नहीं मिलाया. इस मामले में सिर्फ वामदल ही उनसे मुकाबला कर सकते हैं. राजनीतिक रूप से दबंग लालू प्रसाद अपने ही साथियों से परास्त हुए हैं, लेकिन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 7, 2017 4:50 PM


-प्रेम कुमार-

लालू प्रसाद देश में बीजेपी विरोध के स्तंभ हैं. वे देश के एकमात्र नेता हैं जिन्होंने कभी किसी भी समय बीजेपी या एनडीए के साथ हाथ नहीं मिलाया. इस मामले में सिर्फ वामदल ही उनसे मुकाबला कर सकते हैं. राजनीतिक रूप से दबंग लालू प्रसाद अपने ही साथियों से परास्त हुए हैं, लेकिन कभी बीजेपी उन्हें परास्त नहीं कर पायी. मगर, लालू की इस राजनीतिक खासियत के साथ उन पर सज़ायाफ्ता होने का कलंक भी है. यहीं पर वे कमजोर हो जाते हैं, भ्रष्टाचार का दाग लिये अलग दिखने लगते हैं और उनकी भावी राजनीति पर असर पड़ने लगता है. यही कमजोरी एक बार फिर उन्हें राजनीति का सॉफ्ट टारगेट बनाती दिख रही है. लालू की भाषा में कहें, तो बीजेपी उन्हें खत्म करने पर आमादा है.

बीजेपी विरोध के ध्रुव रहे हैं लालू

लालू प्रसाद के बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप को राजनीति में आगे बढ़ाने के पीछे लालू प्रसाद की इच्छा से ज्यादा विवशता रही है. चारा घोटाला में नाम आने के बाद लालू को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था. तब उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने बिहार की कमान संभाली थी. उसके बाद से लालू लगातार केंद्र की राजनीति में सक्रिय रहे, रेल मंत्री बने और यूपीए के साथ चिपके रहे. इस दौरान बिहार की राजनीति में अपने ही सहयोगी रहे नीतीश कुमार के हाथों उनकी पार्टी ने सत्ता गंवा दी. हालांकि वक्त ने करवट बदली और लालू प्रसाद की पार्टी उन्हीं नीतीश कुमार के साथ सत्ता में है और बड़े भाई की भूमिका लेकर है.

सीबीआई के लिए आईना बन गये हैं लालू

यूपीए के साथ रहते हुए लालू प्रसाद पर सीबीआई शिकंजा नहीं कस पायी थी. लेकिन, अब जबकि केंद्र में एनडीए की सरकार है और लालू प्रसाद एनडीए के खिलाफ झंडाबरदार रहे हैं, तो सीबीआई की सक्रियता को भी उसी लिहाज से देखा जा रहा है. लालू प्रसाद ऐसे आईना हैं जिसमें सीबीआई खुद को देख सकती है. कभी वातावरण का अंधेरा सीबीआई को परिदृश्य से गायब कर देता है तो कभी वातावरण में बदलाव की रोशनी में सीबीआई दिखने लगती है. देश के दूरदर्शी सुप्रीम कोर्ट ने बहुत पहले बता दिया था कि सीबीआई पिंजरे में बंद तोता है.

पिंजरे में बंद तोता किसके कहने पर चीख रहा है लालू-लालू?

सीबीआई नाम का यह पिंजरे में बंद तोता आज चीख रहा है कि लालू प्रसाद की राजनीति जमीन लेकर टिकट देने, मंत्री पद बांटने, अवैध तरीके से संपत्ति खड़ा करने की रही है। इस काम में पूरा लालू परिवार शामिल रहा है. यह तोता मीसा भारती से लेकर तेजस्वी और तेज प्रताप तक किसी न किसी घोटाले की आवाज़ लगा रहा है. इस आवाज़ पर पिंजरे और तोते के साथ देश के अलग-अलग ठिकानों पर दौड़ लगायी जा रही है. ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि एनडीए सरकार के पिंजरे में बंद तोते के जरिए क्या लालू प्रसाद को सॉफ्ट टारगेट नहीं किया जा रहा है?

सीबीआई कार्रवाई की टाइमिंग क्यों होती है इतनी सटीक?

लालू सॉफ्ट टारगेट हैं या नहीं, इस पर राय मुख्तलिफ हो सकती है मगर इस सवाल को छोड़कर भी राजनीति आगे नहीं बढ़ सकेगी देश में घोटाला करने वालों की कमी नहीं, भ्रष्टाचार के सितारे हर राज्य में बुलंदियों पर हैं. लेकिन, सीबीआई नाम के तोते को प. बंगाल और बिहार ही क्यों दिख रहा है? इन दो राज्यों में भी सिर्फ बीजेपी विरोधी ममता बनर्जी की पार्टी और लालू प्रसाद तथा उनका परिवार ही क्यों नज़र आ रहा है? तमिलनाडु में भी शशिकला और उनके चहेतों के खिलाफ सीबीआई सक्रिय रही थी और उसकी टाइमिंग भी राजनीतिक रूप से बहुत संवेदनशील थी. सीबीआई को राजनीतिक टाइमिंग की इतनी सटीक समझ कौन देता है?

लालू के बहाने विरोधियों को संदेश देने की कोशिश

अगर लालू प्रसाद और उनका परिवार निशाने पर हैं, तो इसका आशय क्या है? राष्ट्रीय स्तर पर ये संदेश तो साफ लगता है कि विरोध के मामले में नैतिकता का पालन विरोधी दल करें अन्यथा जवाबी तौर पर नैतिकता भी टूटेगी. चुप्पी टूटने के रूप में यानी सीबीआई जैसी संस्था के सक्रिय होने के रूप में इस नैतिकता का कांच चटकेगा. ऐसे में आवाज़ भी होगी और जो कुछ अंदर कांच में होगा, वह बाहर भी आएगा.

सदमे में है लालू कुनबा

राजनीतिक रूप से यह वक्त 2019 के लिए चुनाव की तैयारी करने का है, समीकरण बनने-टूटने का है. विरोधी दल सत्ताधारी गठजोड़ के खिलाफ नया गठजोड़ बनाने की तैयारी कर रहे हैं. राष्ट्रपति चुनाव और उसके बाद उपराष्ट्रपति के चुनाव का मौका भी है. ऐसी स्थिति में विरोधी दलों में एकता नहीं हो, यही सत्ताधारी दल की उपलब्धि हो सकती है. इसलिए संदेश देने की स्पष्ट कोशिश होती दिख रही है. लालू प्रसाद सज़ायाफ्ता हैं और इसलिए उन पर किसी नये आरोप से भी यह कह पाना मुश्किल होगा कि वे बेदाग हैं. लेकिन, हर नया आरोप लालू और उनकी पार्टी की आक्रामकता को कमतर करेगा. यही वजह है कि लालू कुनबा ढंग से अपने नेता का बचाव भी नहीं कर पा रहा है.

लालू कुनबे में मच सकती है भगदड़

बचाव तो छोड़िए, लालू के कुनबे में भगदड़ मचने की स्थिति बन रही है. उनके विधायकों पर राजनीतिक दल ललचाई नजर रख रहे हैं. भ्रष्टाचार के आरोप की बारिश से बचने-बचाने के नाम पर आरजेडी में टूट का खतरा बढ़ता जा रहा है. यह लालू प्रसाद और उनकी पार्टी के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी है. वहीं, विरोधियों के लिए यह मौका भावी राजनीति को संवारने और अपनी कमजोरी को मजबूत करने का है.

आज भी दहाड़ रहे हैं लालू

वहीं, लालू आज भी खुद को बीजेपी विरोध की सियासत का ध्रुव बताते हुए दहाड़ रहे हैं. आडवाणी की रथ यात्रा रोकने का बार-बार जिक्र, बीजेपी विरोध के जुमले, नरेंद्र मोदी और संघ पर हमले, मोदी के राष्ट्रवाद और विकास मॉडल पर सवाल, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे पर बोलते हुए लालू अपनी जमीन बचाने की कवायद कर रहे हैं. विपरीत परिस्थितियों में यह राग और तेज हो गया है.

प्रेस कान्फ्रेन्स क्यों, अदालत क्यों नहीं जाते?

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के खिलाफ भी सीबीआई का नुस्खा आजमाया जा चुका है. बावजूद इसके कोई बड़ा खुलासा या बड़ी राजनीतिक उपलब्धि बीजेपी सरकार को नहीं मिली है. लालू प्रसाद के ठिकानों पर छापेमारी से जो कुछ बरामद होने का दावा किया जा रहा है अगर वह सच भी है तो उसे साबित होने में अभी वक्त लगेगा. लेकिन, राजनीतिक संदेश देने की पहल और उसके नतीजे मिलने लगे हैं. यह अजीब नहीं लगता कि सत्ताधारी दल के नेता सबूत लेकर सीबीआई को देने या अदालत में जाने के बजाए प्रेस कॉन्फ्रेन्स करते हैं. वे केस क्यों नहीं करते? साफ है कि सज़ा दिलाने में उनकी रुचि कम है, माहौल बनाने और संदेश देने में उनकी रुचि ज्यादा है.

(21 साल से प्रिंट व टीवी पत्रकारिता में सक्रिय, prempu.kumar@gmail.com )

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