लोक सभा में 2013 में लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान उस विधेयक का विरोध करते हुए लालू प्रसाद ने कहा था कि यदि राजनीतिक दलों ने व्हीप जारी नहीं किया होता तो लोकपाल बिल के पक्ष में पांच प्रतिशत सांसद भी वोट नहीं देते. संभवतः लालू प्रसाद ने अनेक सांसदों से व्यक्तिगत बातचीत के आधार पर ही ऐसा कहा था. इसीलिए तब सदन में उपस्थित किसी सदस्य ने खड़ा होकर लालू की बात का खंडन नहीं किया. लोकपाल विधेयक के खिलाफ लालू प्रसाद जब बोल रहे थे तो सदन में उपस्थित अधिकतर सांसदों के हावभाव व प्रतिक्रियाओं से भी यह लग रहा था कि लालू प्रसाद को उन लोगों का भीतरी समर्थन प्राप्त है.
उससे 21 साल पहले यानी 1992 में तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में कहा था कि भ्रष्ट और माफिया तत्वों के ऊपर मैंने प्रहार किया है. वे तत्व चूं भी नहीं कर सके. वे मेरे सामने भी नहीं आए. कोई पैरवी भी नहीं आयी. पहले के राज में मजाल था कि किसी पर आप एक्शन कर लेते? वे तत्व पिछले मुख्य मंत्रियों की छाती पर चढ़ जाते थे. जब चीफ मिनस्टिर ही उसमें संलग्न रहेगा तो वह आंख कैसे तरेरेगा?
अपने मुख्यमंत्रित्वकाल के प्रारंभिक दिनों में लालू प्रसाद न सिर्फ सामाजिक अन्याय के मामले में ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के मामले में भी कठोर दिखाई पड़ते थे. 1990 के आरक्षण आंदोलन के दौरान तो लालू ‘मंडल मसीहा’ भी कहलाए. तब बिहार के पिछड़ा वर्ग के अधिकतर लोग उन्हें अपना नेता मानने लगे थे. पर आज क्या हो रहा है? आज लालू प्रसाद करीब- करीब हर मामले में यथास्थितिवादी नजर आ रहे हैं. लगता है कि मसीहा भटक गया. उस भटकाव की सजा उन्हें मिल रही है. उनकी यथास्थितिवादिता लोकपाल विधेयक पर उनकी टप्पिणी से साफ हो गयी थी. कई कारणों से समय के साथ लालू के पूरे पिछड़ोंं के नेता भी नहीं रहे. आज जो कुछ उनके साथ हो रहा है, उसके लिए कोई और जिम्मेवार नहीं है. खुद और पूरे परिवार के चारों ओर येन केन प्रकारेण आर्थिक सुरक्षा की ऊंची दिवाल खड़ी करने के लोभ में उनका राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ गया है. इससे उनके अनेक समर्थकों में भी उदासी है.
लालू प्रसाद कभी कहा करते थे कि विषमताओं और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ कोई आंदोलन इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि पोथी -पतरा उसमें बाधक है. पोथी-पतरा वाले गरीबोंं को समझा देते हैं कि भगवान की वजह से ही तुम गरीब हो.पर, अब लालू प्रसाद ही नहीं, बल्कि उनके परिजन भी जब मुकदमों में फंसे तो मंदिरों के चक्कर लगाने लगे हैं.
पर उन्हें न तो कोर्ट से राहत मिल रही है और न ही मंदिरों से. खुद लालू प्रसाद नब्बे के दशक में कहा करते थे कि लाख करो चतुराई करम गति टारत नाहीं टरै यह सब अब चलने वाला नहीं है. पर अब खुद लालू परिवार पर यह कहावत लागू हो रही है.
लालू प्रसाद ने 1990 में मंडल आरक्षण के विरोधियों के खिलाफ बड़ी हिम्मत से संघर्ष किया था. याद रहे कि आरक्षण एक संवैधानिक प्रावधान था जिसका नाहक विरोध हो रहा था. उस संघर्ष में जीत के बाद पूरे पिछड़े वर्ग में लालू प्रसाद की प्रतिष्ठ काफी बढ़ी थी. उतना समर्थन किसी अन्य नेता को नहीं मिला था. अनेक लोंगों का यह मानना है कि बाद के वर्षों में यदि लालू प्रसाद अपने परिवार की ‘आर्थिक सुरक्षा के इंतजाम’ में नहीं लग गए होते तो गांव-गांव में उनकी मूर्तियां लगतीं. हालांकि अब भी उनके समर्थकों की कमी नहीं हैं, पर पहले जैसी बात नहीं है. भ्रष्टाचार के मामले में किसी नेता के खिलाफ जब कोई कानूनी कार्रवाई होती है तो वह आरोप लगा देता है कि बदले की भावना से ऐसा हो रहा है. लालू प्रसाद इसके साथ यह भी कह रहे हैं कि यह पिछड़ों पर हमला है.
पर यह तर्क शायद ही चले. पहले भी नहीं चला था. चारा घोटाले में जब 1997 में पहली बार लालू प्रसाद जेल गए तो भी यही तर्क दिया गया था. पर 2000 के विधान सभा चुनाव में लालू के दल का विधान सभा में बहुमत समाप्त हो गया था. अब तो उन्हें कोर्ट का ही सहारा होगा. देखना होगा कि वहां से लालू प्रसाद और उनके परिजनों को किस तरह का न्याय मिलता है. वैसे लालू परिवार पर आरोपों की लंबी सूची देख कर यह जरूर कहा जा सकता है कि परिवार का राजनीतिक भवष्यि अनश्चिति नजर आ रहा है. हां, यदि इसी तरह के आरोपों से घिरे देश के किन्हीं भाजपा नेताओं पर भी जब केंद्रीय एजेंसियां इसी तरह की कार्रवाई नहीं करेंगी तो वह दोहरा मापदंड भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से जरूर महंगा पड़ सकता है.
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक