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प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी का विश्लेषण : अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं लालू

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर लालू प्रसाद यादव अपने जीवन के ऊषा काल में सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं. वह चक्रव्यूह में घिर गये हैं और तीन-तीन सरकारी एजेंसियां सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और इनकम टैक्स विभाग उनके पीछे पड़ी हैं. इस बार मुश्किल अकेले नहीं आयी है. लालू प्रसाद ने पूरे […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
लालू प्रसाद यादव अपने जीवन के ऊषा काल में सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं. वह चक्रव्यूह में घिर गये हैं और तीन-तीन सरकारी एजेंसियां सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और इनकम टैक्स विभाग उनके पीछे पड़ी हैं. इस बार मुश्किल अकेले नहीं आयी है. लालू प्रसाद ने पूरे परिवार को परेशानी में फंसा दिया है. राबड़ी देवी, बेटे, बेटियां, दामाद सब मुश्किल में घिरे हुए हैं.
इस मामले में साम्य देखिये. एक ओर जब सीबीआई की अदालत में वे चारा घोटाले के मामले में रांची में पेश हो रहे थे तो दूसरी ओर सीबीआई रेलवे घोटाले में उनके 12 ठिकानों पर छापेमारी कर रही थी. चारा घोटाला सामने लाने वाला सबसे पहला अखबार प्रभात खबर ही था और इस मामले में कार्रवाई करने वाले अधिकारी राकेश अस्थाना थे. राकेश अस्थाना एक बार फिर सीबीआई में अतिरिक्त निदेशक की रूप में प्रतिनियुक्ति पर हैं और लालू पर छापेमारी उन्हीं के निर्देशन में चली. लालू पर आरोप है कि उन्होंने रेलवे के होटल टेंडर निजी कंपनी को दिए थे और रेल मंत्री के तौर पर निजी कंपनी को फायदा पहुंचाया था.
लालू प्रसाद का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह हमें मिटाना चाहते हैं. लेकिन ऐसे चिल्लर और खटमल का इलाज वह जनता की दवा से इलाज करेंगे. झूठे आरोपों से हमें घेरने का प्रयास कर रहे हैं. हम पर केस किया तो किया बच्चों और बीवी तक को फंसा दिया है. लेकिन कोर्ट और जनता पर हमें पूरा भरोसा है. वैसे देखा जाये तो लालू पिछले 20 साल से कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं. सामाजिक बदलाव के काम में जो ताकत लग सकती थी, वह कोर्ट कचहरी में नष्ट हो गयी. एक पुरानी कहावत है कि दूसरों को चोर कहकर आप अपनी चोरी ज्यादा समय तक नहीं छुपा सकते.
याद करें जब 1990 में लालू पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने शपथ लोकनायक जयप्रकाश नारायण की मूर्ति के नीचे गांधी मैदान में ली थी. उन्होंने शपथ ग्रहण समारोह को राजभवन से बाहर निकाला था और कार्यक्रम को जनता के बीच ले गये थे. उस समय उन्होंने घोषणा की थी कि पैसा को हाथ नहीं लगायेंगे और भ्रष्टाचार को घोर पाप के समान माना था. 1996 आते-आते चारा घोटाले के रूप में सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की लूट सामने आ गयी. अक्टूबर, 2013 में चारा घोटाले में उन्हें पांच साल की कैद की सजा सुना दी गयी. उनकी संसद की सदस्यता भी चली गयी.
1991 का दौर याद करें जब देश में नई अर्थव्यवस्था की शुरुआत हो रही थी, नया परिदृश्य सामने आ रहा था. अनेक राज्य इसका लाभ उठाना चाह रहे थे. उनमें इसको लेकर प्रतिस्पर्धा थी. लेकिन लालू के नेतृत्व में बिहार इसका लाभ नहीं उठा सका. उद्योगपतियों के कई सम्मेलन हुए लेकिन कोई पूंजी निवेश नहीं हुआ, कोई कल कारखाने नहीं खुले. उस समय राज्य कुशासन और भ्रष्टाचार का शिकार था. जबकि कई अन्य राज्यों, खासकर दक्षिण के राज्यों ने नये परिदृश्य का लाभ उठाया और वे विकास और समृद्धि की राह में आगे निकल गये. यह सच है कि लालू के नेतृत्व में बिहार में सामाजिक न्याय का राजनीतिक सपना तो परवान चढ़ा, लेकिन आर्थिक समृद्धि के मामले में राज्य बेहद पीछे छूट गया. जिन पिछड़ों के बलबूते वह जीते थे, उनको आर्थिक रूप से सशक्त करने की कोई बुनियाद उन्होंने खड़ी नहीं की. कांग्रेस के खिलाफ सांस्कृतिक और वैचारिक लड़ाई का कोई पुख्ता मॉडल वह नहीं खड़ा कर पाये.
बिहार की जनता ने 1995 में उन्हें फिर मौका दिया. वह और ज्यादा मजबूत होकर सत्ता में लौटे. लेकिन 1996 आते आते पशुपालन घोटाला सामने आ गया. 2013 आते-आते वह सजा पा गये. इसके पहले जब उन्हें भ्रष्टाचार के इन मामलों का सामना करना पड़ा था, उस दौरान केंद्र में कोई एनडीए की सरकार नहीं थी. वह आज भी पुराना संदेश दोहरा रहे हैं कि जो बड़े लोग हैं वे पिछड़ों को दबा रहे हैं. लेकिन लालू जोरदार शब्दों में भ्रष्टाचार के आरोपों का खंडन करने नजर नहीं आ रहे हैं.
देश में मजबूत अदालती व्यवस्था है, जहां किसी भी एकतरफा कार्रवाई को चुनौती दी जा सकती है. जब वित्त मंत्री अरुण जेटली पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने डीडीसीए में भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. जेटली ने उसके बाद केजरीवाल के खिलाफ केस कर दिया था और उसके बाद से केजरीवाल अपना बचाव का रास्ता तलाशते घूम रहे हैं. लालूजी राजनीतिक बयान तो दे रहे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों पर कोई पुख्ता बात नहीं कह रहे हैं. इसके विपरीत देखें तो नीतीश कुमार ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में सुशासन और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का एक मॉडल पेश किया है.
सवाल उठता है कि लालू कैसी विरासत अपने बेटे-बेटियों को देकर जा रहे हैं. 1977 में आपातकाल के बाद हुए लोक सभा चुनाव में लालू भारी मतों से जीतकर सांसद बने थे और 1996 में आकर उन पर गंभीर आरोप लगने लगे थे.
लालू के बेटे तो राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में ही सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स के चक्कर में आ गये हैं. नीतीश कुमार के नेतृत्व से बेहतर उनकी राजनीतिक ट्रेनिंग नहीं हो सकती थी. लेकिन वे तो लालूजी की बोयी फसल काटने के चक्कर में फंस गये लगते हैं. अभी तक तेजस्वी और तेज प्रताप लालू प्रसाद की छत्रछाया में ही आगे बढ़ रहे थे और स्वतंत्र रूप से राजनीति करने में सक्षम नहीं हुए हैं. उत्तर प्रदेश से तुलना करें तो अखिलेश यादव मुलायम सिंह के प्रभामंडल से बाहर आ गये हैं और स्वतंत्र रूप से राजनीति करने में सक्षम हो गये हैं.
उन्हें मुलायम के सहारे की जरूरत नहीं है लेकिन तेजस्वी और तेज प्रताप के साथ ऐसा नहीं है. वे लालू की विरासत को अभी पूरी तरह संभाल नहीं पाये हैं.
लालू प्रसाद कर्पूरी ठाकुर के बाद पिछड़ों के बड़े नेता के रूप में उभरे थे. लेकिन परिवारवाद से उठकर जनकल्याण पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया, अन्यथा वे भी आज जननायकों की कतार में खड़े होते. कर्पूरी ठाकुर ने अपना जीवन जनसेवा की भावना के साथ जिया.
वह सदा गरीबों के हक के लिए लड़ते रहे. मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पिछड़ों को 26 प्रतिशत आरक्षण दिलवाया. जन कल्याणकारी भाव के कारण ही इतिहास उन्हें जननायक के रूप में याद करता है. लेकिन लालू प्रसाद ने सारे मौके गंवा दिये. यही वजह है कि जीवन के ऊषाकाल में वे अस्तित्व के लिए संघर्षरत एक नेता के रूप में नजर आ रहे हैं.

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