कृषि में सहकारिता को मजबूत बनायें

बिहार, झारखंड के राजनेता व अफसर अपनी प्राथमिकता में कृषि को जरूर गिनाते हैं. इसके बावजूद दोनों ही राज्यों में खेती-किसानी की हालत खराब होती जा रही है. अभी तक किसान धान खरीद की आस लगाये बैठे हैं. इधर, खेतों में गेहूं की फसल लगभग तैयार है. बिहार में पैक्स और झारखंड में पैक्स व […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 29, 2014 5:58 AM

बिहार, झारखंड के राजनेता व अफसर अपनी प्राथमिकता में कृषि को जरूर गिनाते हैं. इसके बावजूद दोनों ही राज्यों में खेती-किसानी की हालत खराब होती जा रही है. अभी तक किसान धान खरीद की आस लगाये बैठे हैं. इधर, खेतों में गेहूं की फसल लगभग तैयार है. बिहार में पैक्स और झारखंड में पैक्स व लैंपस के जरिये धान की सरकारी खरीद होती है. दोनों के पास आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं.

धान अगर खरीद भी लें, तो उसे रखे कहां, यह दुविधा हर साल होती है. खेती को लेकर दोनों ही राज्यों में जो नीति तय करनेवाले हैं, वे ही इस मामले को लेकर कन्फ्यूज हैं. इस कन्फ्यूजन के कारण बिहार-झारखंड में न तो सहकारी खेती पर काम हो रहा है और न ही कारपोरेट खेती को लेकर स्पष्ट नीतियां तय हो पा रही हैं. अफसरों से लेकर बीज, खाद और कृषि उपकरण तैयार करनेवाली कंपनियों के मालिकों का सारा जोर सब्सिडी पर रहता है. सब्सिडी के इस खेल में किसानों का भला नहीं हो पा रहा है.

न ही कृषि आधारित उद्योग-धंधा करनेवाले उद्यमियों को ही लाभ मिल पाता है. दोनों ही राज्यों में सहकारिता के आधार पर खेती को बढ.ावा देनवाली संस्थाएं हैं, मगर इन संस्थाओं की भूमिका अब बस नाम की रह गयी हैं. आप इन्हें सफेद हाथी भी कह सकते हैं. इन संस्थाओं को प्रभावी बनाने की अगर दिली कोशिश हो, तो बात बन सकती है. एक साल पहले संसद में सहकारिता की नयी नीति की मंजूरी मिलने से उम्मीद जगी थी. लगा था कि बिहार-झारखंड की खेती में सहकारिता से बदलाव आयेगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. सहकारी संगठन पुराने र्ढे पर चल रहे हैं, जबकि खेती-किसानी के सामने अब दूसरी तरह की समस्याएं हैं. ऐसा भी नहीं है कि इनका समाधान सहकारी समितियों के पास नहीं है.

जरूरत इस बात की है कि इन सहकारी संगठनों की कमान ठस्स अफसरों और राजनेताओं के बदले बिल्कुल पेशेवर लोगों के हाथों में दी जाए. पेशेवर रवैया अपनाने से ही सहकारी संगठनों का भला हो सकता है. इसके सैकडों उदाहरण हैं. इन उदाहरणों से सीख लेने की जरूरत है. खेती-किसानी को खुशहाल बनाने की जिम्मेवारी सहकारी संगठनों के हाथों सौंप देनी चाहिए. तभी बात बन सकती है. अन्यथा शोर ज्यादा होगा और काम कम होगा.

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