मजा नतीजों में नहीं अटकलों में है

।। राजीव चौबे।। (प्रभात खबर, रांची) हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, हमारी कश्ती वहीं डूबी जहां पानी कम था. अगर मैं कहूं कि ये पक्तियां गुजरे जमाने में चाहे जिस किसी ने भी लिखी हों, लेकिन आज लोकसभा के चुनावी समर के संदर्भ में बिलकुल सटीक बैठती हैं. इस पर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 29, 2014 6:02 AM

।। राजीव चौबे।।

(प्रभात खबर, रांची)

हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, हमारी कश्ती वहीं डूबी जहां पानी कम था. अगर मैं कहूं कि ये पक्तियां गुजरे जमाने में चाहे जिस किसी ने भी लिखी हों, लेकिन आज लोकसभा के चुनावी समर के संदर्भ में बिलकुल सटीक बैठती हैं. इस पर आप कहेंगे कि यह कहने में मैंने जल्दबाजी कर दी, क्योंकि इन चुनावों के परिणाम तो 16 मई को आयेंगे, जिसके लिए अभी डेढ. महीने से ज्यादा का समय बाकी है.

और किसकी नैया डूबती है और किसकी पार लगती है, यह तो तब ही पता चलेगा. लेकिन अब देखिए ना, राजनीति ऐसा विषय है जिस पर राजनीतिशास्त्र के दिग्गज और अनपढ. तक, हर कोई जहां देखो तहां, इस पर अपनी विशेषज्ञता झाड.ता रहता है. चाय की दुकान हो या पान की गुमटी, पार्क हो या ऑफिस, हर जगह यही चर्चा चल रही है कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा – नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी. या फिर अरविंद केजरीवाल या मुलायम सिंह यादव? प्रत्यक्ष तौर पर हमें इससे कुछ मिलनेवाला नहीं है और परोक्ष रूप से मिलने की परवाह कौन करे?

हमें तो बस अपने घर और ऑफिस से मतलब है. घर से ऑफिस और ऑफिस से घर. फिर भी हमें न जाने क्यों राजनीति और राजनीतिज्ञों के बारे में चटखारे के साथ बातें करने में बड.ा मजा आता है? इस बात से अनजान कि यह राजनीति ऐसी बुरी चीज है जो अच्छे अच्छों को पी गयी, जो जानने में जितनी आसान है समझने में उतनी ही जटिल. अगर ऐसा न होता तो मतदाताओं का मूड भांपने में बड.े-बड.े चुनावी विशेषज्ञ और सर्वेक्षण धराशायी कैसे हो जाते? दिल्ली के विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी सर्वेक्षणों के मुताबिक आम आदमी पार्टी को पांच से ज्यादा सीटें नहीं मिलनी थीं, लेकिन नतीजों के बाद इस पार्टी के कर्ता-धर्ता दिल्ली के मुख्यमंत्री बन बैठे.

यह बात दीगर है कि उन्हें इससे संतोष नहीं हुआ और वे दिल्ली की असली कुरसी (प्रधानमंत्री वाली) पाने के उत्साह में अपनी चिर-परिचित खांसी के साथ काशी की गंगा में उतर गये. वैसे यहां बात हो रही थी राजनीति में अपनों के दगा देने की. तो यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि इस बार के चुनावों में ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ यानी आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के साथ-साथ ‘डी’ यानी दलबदलू फैक्टर भी बहुत ज्यादा कारगर रहेगा.

बरसों से अपनी पार्टी के नीति-नियमों की पैरोकारी करनेवाले छुटभैये से लेकर दिग्गज नेता तक तथाकथित हवा या लहर को अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार भांप कर दूसरे दलों में छलांग लगा रहे हैं. किसी को अपनी पार्टी में तवज्जो नहीं मिलने से रोष है, तो कोई अपनी मनपसंद जगह से उम्मीदवारी का टिकट नहीं मिलने से असंतुष्ट. वैसे कहा भी गया है न कि तरक्की के रास्ते में संतोष सबसे बड.ी बाधा है. बढ.िया है, जिसे जहां इज्जत की रोटी मिले, वहां जाये. आखिर हम एक स्वतंत्र देश के परिंदे हैं!

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