क्रांतिदर्शी पित्ती जी की परि‘कल्पना’
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) कल यानी 28 मार्च को बदरी विशाल पित्ती का 87वां जन्मदिन था. जो मसिजीवी उनके पराक्रमों से थोड.ा बहुत भी परिचित हैं, उन्हें कल वे बहुत याद आये होंगे. मुङो भी बहुत याद आये, मगर अब वे मेरे लिए भी कथावशेष ही हैं. एक ऐसी परी-कथा, जिस पर सहज […]
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
कल यानी 28 मार्च को बदरी विशाल पित्ती का 87वां जन्मदिन था. जो मसिजीवी उनके पराक्रमों से थोड.ा बहुत भी परिचित हैं, उन्हें कल वे बहुत याद आये होंगे. मुङो भी बहुत याद आये, मगर अब वे मेरे लिए भी कथावशेष ही हैं. एक ऐसी परी-कथा, जिस पर सहज विश्वास न हो. हैदराबाद के बदरी विशाल पित्ती कई संदर्भो में अपने जीवन-काल में चर्चित थे. वे क्रांतिकारी थे, उद्योगपति थे, ‘कल्पना’ जैसी मूर्धन्य साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे, लोहियावादी विचारधारा के निष्ठावान प्रचारक थे और इन सब विशेषणों के बीच वे एक मस्तमौला, बेपरवाह इंसान थे.
वे पारस पत्थर थे; जो उनके संपर्क में आया, लोहे से सोना बन गया. मकबूल फिदा हुसैन को भी उन्होंने प्रोत्साहित किया था. मैंने बनारस में मोतीझील वाली पुरानी हवेली में पित्ती जी के साथ ही पहली बार हुसैन को देखा था, उनकी पेंटिंग देखी थी, जिनमें ज्यादातर हनुमान के या दौड.ते हुए घोड.ों की थीं. सत्तर के दशक की शुरुआत थी. हुसैन तब तक उद्योगपतियों की कलाप्रेमी प-ियों के चहेते नहीं बने थे और इसलिए कला जगत के सुपर स्टार भी नहीं थे.
मोतीझील की उस हवेली में काशी के नामी रईस राजा मोतीचंद के वंशज रहते थे. इस परिवार से पित्ती जी का गहरा संबंध था. वे जब भी बनारस आते, उसी पुरानी हवेली में ठहरते. तब तक मैं एक कवि और संपादक के रूप में काशी के विद्वत-समाज में लोकप्रिय हो गया था. इसलिए पित्ती जी जब आये, तब उनकी साहित्यिक रुचि को ध्यान में रख कर एक शाम कविता-पाठ के लिए वहां मुङो आमंत्रित किया गया था. और वहीं से पित्ती जी मेरे अनन्य हो गये. वे उम्र में मुझसे बहुत बड.े थे, मगर जब भी मिले, समवयस्क मित्र की भांति. कभी उन्होंने मेरी रुचि से भिन्न विषयों पर चरचा भी नहीं की. न जाने कितनी खूबसूरत शामें मैंने उस भव्य हवेली के चबूतरे पर पित्ती जी के साथ बितायी होंगी.
याद आती है बनारस की वह फागुनी भोर. पित्ती जी काशी आये थे. उनका आग्रह था कि गंगा के उस पार चल कर नहाया जाये. साथ में थे समाजवादी राजनारायण जी और अध्यात्म त्रिपाठी, जिन्होंने पित्ती जी के आग्रह पर विशाल ‘लोहिया ग्रंथावली’ का विद्वत्ता-पूर्वक संपादन किया था. ग्रंथावली का संपादन-कार्य संपन्न होने के कारण त्रिपाठी जी हैदराबाद से बनारस आ गये थे और ‘आज’ के संपादकीय विभाग से जुड. गये थे. पित्ती जी की राजशाही भी कम नहीं थी. दशश्वमेध घाट पर (जिसे स्थानीय लोग घोडाघाट कहते हैं) पर बजरा लगा हुआ था, जिस पर चांदनी बिछी हुई थी. चारों लोग उस पार गये. देर तक तेल मालिश हुई, फिर गंगा जी में दिव्य स्नान और उसके बाद शुद्ध घी का मधुर जलपान. बातों ही बातों में उन्होंने पूछा था-आप कल्पना में अपने गीत क्यों नहीं भेजते हैं? उस समय तक ‘धर्मयुग’ में मेरे गीत धड.ल्ले से छप रहे थे और धर्मवीर भारती जी समय-समय पर स्वयं पुर्जी भेज कर गीत भेजने का तगादा करते थे. ‘धर्मयुग’ की पहचान सार्वजनिक पहचान थी, क्योंकि सुसंस्कृत धनाढ्य वर्ग भी अपने ड्राइंगरूम में धर्मयुग रखने में शान समझते थे. ‘कल्पना’ ज्यादा बौद्धिक पत्रिका है; इसलिए गीतों की उसमें कम ही गुंजाइश रहती है. मुङो कल्पना में छपने की कोई ललक भी नहीं थी, मगर जब पित्ती जी ने स्वयं आग्रह किया, तो मैंने उन्हें तीन गीत भेज दिया. यह पित्ती जी की सदाशयता थी कि उन्होंने उन तीनों गीतों को कल्पना में अलग से गुलाबी रंग के पन्नों पर छापा था.
पित्ती जी का जन्म कलकत्ता में 28 मार्च, 1928 हुआ था, लेकिन उनकी सारी शिक्षा-दीक्षा हैदराबाद में ही हुई. और शिक्षा भी क्या, जब 14 साल के थे, 1942 के भारत छोडो आंदोलन में कूद पडे थे और जेल चले गये. उन्होंने हैदराबाद के निजाम शासन का डट कर विरोध किया था. निजाम के विरोध का सीधा मतलब उन दिनों फांसी हुआ करता था. जान बचाने के लिए वे भूमिगत हो गये और लुक-छिप कर ही रेडियो प्रसारण केंद्र स्थापित कर दिया, ताकि आवाज मुक्त रह सके. कम लोगों को मालूम होगा कि निजाम को भारत में विलय कराने में पित्ती जी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. उन्हीं दिनों उनकी भेंट डॉ राम मनोहर लोहिया से हुई और लोहिया के विचारों ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे आजन्म उस विचारधारा से जुडे रहे. वे संसोपा के टिकट पर (बरगद चुनाव चिह्न्) हैदराबाद के महाराजगंज विधानसभा क्षेत्र से खडे हुए और भारी मतों से विजयी हुए.
समाजवादी पार्टी की कार्यकारिणी समिति के वे आजीवन सदस्य रहे. चरण सिंह, चंद्रशेखर, कृष्णकांत, नीलम संजीव रेड्डी, कर्पूरी ठाकुर, जनेश्वर मिश्र जैसे कद्दावर नेता उनके परम मित्रों में थे. लेकिन राजनीति उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का एक पहलू थी. वे एक साथ उद्योगपति, संगीत और चित्रकला के पोषक, साहित्य के मर्मज्ञ, प्रखर संपादक और निर्भीक श्रमिक नेता थे. और अप्रतिम स्वप्नद्रष्टा थे. कल्पना पत्रिका का प्रकाशन उन्होंने 15 अगस्त, 1949 को द्विमासिक रूप में शुरू किया था, जो पहले अंक से ही राष्ट्रीय स्तर का रचनात्मक और वैचारिक मंच बन गयी. पाठकों की जबर्दस्त मांग पर उसे तीन साल बाद 1952 में मासिक करना पडा. प्रो आर्येद्र शर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, प्रयाग शुक्ल, मणि मधुकर जैसे साहित्यकारों ने इसके संपादन से पत्रकारिता में हाथ मांजा था. उस समय के सभी शीर्षस्थ कवि, कथाकार, विद्वान इसके नियमित रचनाकार थे. नवलेखन आंदोलन को इसी पत्रिका ने वैचारिक धरातल दिया था. लगभग तीन दशकों तक पित्ती जी ने इसके माध्यम से देश के नये से नये रचनाकार को अपने हाथों तराशा.
कल्पना का 1978 में बंद होना हिंदी जगत के लिए एक अशुभ घटना थी. उसके बाद तो उस समय की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं- धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, ज्ञानोदय आदि एक-एक कर धराशायी होती गयीं. पित्ती जी भी देश-काल की प्रतिकूल परिस्थितियों से लड.ते-लड.ते थक चुके थे. अक्सर बीमार रहने लगे थे. 1991 में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा हैदराबाद में आयोजित विश्व हिंदी कवि सम्मेलन में मेरा जाने का एकमात्र प्रयोजन पित्ती जी से मिलना था, मगर उनकी अस्वस्थता के कारण भेंट नहीं हो सकी. अंतत: 6 दिसंबर, 2003 को उनका निधन हो गया और इसी के साथ राष्ट्रीय जीवन के लगभग हर क्षेत्र को झकझोर देनेवाला एक बड.ा शख्स हमारे बीच से तिरोहित हो गया. लोहिया की पूंछ पकड. कर सत्ता के शिखर तक पहुंच जानेवाले महानुभाव आज पित्ती जी को जानते तक नहीं. शायद वे साहित्यकार भी उन्हें भूल गये, जिन्हें ‘कल्पना’ ने तराश कर देवता बनाया था.