देश को सशक्त विपक्ष चाहिए

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com सत्तर साल के हमारे लोकतांत्रिक इतिहास में विरोधी दलों ने कई बार अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है. नेहरू के शासनकाल में, जब कांग्रेस के मुकाबिल कोई सशक्त विपक्षी दल नहीं था, तब भी लोहिया जैसे प्रखर नेता ने ताकतवर विपक्ष की भूमिका बखूबी निभायी. लोहिया ने 1960 के दशक में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 13, 2017 6:28 AM
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
सत्तर साल के हमारे लोकतांत्रिक इतिहास में विरोधी दलों ने कई बार अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है. नेहरू के शासनकाल में, जब कांग्रेस के मुकाबिल कोई सशक्त विपक्षी दल नहीं था, तब भी लोहिया जैसे प्रखर नेता ने ताकतवर विपक्ष की भूमिका बखूबी निभायी. लोहिया ने 1960 के दशक में ‘गैर-कांग्रेसवाद का नारा बुलंद किया, जिसने 1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को कमजोर किया और नौ राज्यों में कांग्रेस के पैर उखाड़ कर संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें बनवायीं. 1975 में इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी विरोधी दल एक हुए और 1977 में बनी जनता पार्टी ने बड़ा सबक सिखाया. 1984 में लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें जीतनेवाले राजीव गांधी को भी 1988-89 के जनता दल ने सत्ता से बाहर किया.
‘संविद’ कई विरोधी दलों के विधायकों का मोर्चा था. जनता पार्टी और जनता दल कई दलों से मिल कर बनी राजनीतिक पार्टियां थीं. भारतीय राजनीति के ये प्रयोग दीर्घजीवी साबित नहीं हुए, लेकिन इन्होंने उस समय आवश्यक हस्तक्षेप करके स्थितियां बदल दीं, जब कांग्रेस सरकारें निरंकुश या अराजक हो गयी थीं.
आज 2017 में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्त्व वाली भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जगह ले चुकी है. केंद्र में उसकी भारी बहुमत वाली सरकार है. चंद बड़े राज्यों को छोड़ कर ज्यादातर प्रदेशों में वह सत्तारूढ़ है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के चुनावों में जीत के बाद ओड़िशा और कर्नाटक जैसे राज्यों को विजय करने का उसका आक्रामक अभियान अभी से दिख रहा है. अगले वर्ष तक राज्यसभा में भी उसका बहुमत हो जायेगा. कुल मिला कर भाजपा इस समय अविजेय स्थिति में दिखती है. नरेंद्र मोदी का नारा ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का था, जो अब ‘विपक्ष-मुक्त भारत’ में बदलता लग रहा है.
इधर, कश्मीर में आतंकवादियों के बचाव में भीड़ पुलिस और सेना के सामने खड़ी हो जा रही है.मारे गये आतंकवादियों के जनाजे में हुजूम उमड़ रहा है. अमरनाथ तीर्थयात्रियों से भरी बस पर हुआ आतंकी हमला गवाह है कि कश्मीर के हालात बहुत खतरनाक मोड़ पर पहुंच गये हैं और भाजपा-पीडीपी सराकर निरुपाय है. सीमा पर पाकिस्तान से झड़पें जारी थीं ही, चीन से तनातनी और वहां से आयी युद्ध की धमकी नयी चुनौती है. आंकड़े बता रहे हैं कि देश में बेरोजगारी बढ़ी है. रोजगार-सृजन के वादे छलावा साबित हुए हैं. कई राज्यों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है. गोरक्षा के नाम पर जिस तरह निर्दोष लोगों की हत्याएं हो रही हैं, वह राष्ट्रीय चिंता की वजह है. देशभर में किसान आंदोलित हैं. ऐसा नहीं कि मोदी सरकार अलोकप्रिय हो गयी है; लेकिन ये कुछ बड़ी वजहें एक सशक्त विपक्ष की भूमिका की मांग करती हैं.
दिल्ली में ‘आप’ की भारी विजय के बाद बिहार में महागठबंधन की जीत से यह संदेश निकला था कि मोदी का तिलिस्म टूट रहा है. मोदी-अमित शाह का विजय-रथ रोकने के लिए ही बेहतर छवि वाले नीतीश कुमार ने अपने धुर-विरोधी और कई घोटालों के दागी लालू यादव से हाथ मिलाया था. कांग्रेस भी इस मुहिम का हिस्सा बनी. बिहार में यह महागठबंधन कामयाब रहा, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसे दोहराने की कोशिश सफल नहीं हुई. वहां समीकरण भी दूसरे थे. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने हाथ मिलाया ताे जरूर, लेकिन भाजपा की नयी जातीय गोलबंदी ने उत्तर प्रदेश में पूरे विपक्ष को साफ कर दिया.
राष्ट्रपति-चुनाव विपक्षी एकता के लिए बढ़िया मौका था.सोनिया गांधी की पहल पर 17 दलों के नेता एक साथ बैठे तो, लेकिन संयुक्त विपक्ष का प्रत्याशी तय करने में इतनी अगर-मगर हुई कि मौका हाथ से निकल गया. दलित प्रत्याशी की घोषणा करके भाजपा ने विरोधी दलों की पहल की हवा निकाल दी. भाजपा के दांव से नीतीश कुमार को ही, जो विरोधी दलों की एकता-पहल के संयोजक थे, भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में खड़े होना पड़ा है. विपक्ष को एक करने की कोशिश में लगी सोनिया गांधी, शरद पवार, और दूसरे विपक्षी नेता भाजपा को घेर सकनेवाला या प्रत्याशी नहीं ढूंढ सके. राष्ट्रपति का चुनाव एक तरफ हो गया है. भाजपा की नजर अब सीधे 2019 के लोकसभा चुनाव पर है.
विपक्षी एकता का कोई सर्वमान्य सूत्रधार आज दिखायी नहीं देता. लोहिया और जेपी जैसा कोई नेता है नहीं. क्षेत्रीय दलों के विभिन्न क्षत्रप अपनी राजनीतिक विरासत बचाने के जतन से ही नहीं निकल पा रहे.
कांग्रेस की स्थिति दयनीय है. सोनिया की अपनी बीमारी एवं सीमाएं हैं, तो राहुल ने बेहद निराश किया है. नीतीश कुमार एक चेहरा हैं, मगर लालू की संगत से वे सांसत में हैं. लालू और उनका परिवार जिस तरह घोटालों की जांच की जद में घिरता जा रहा है, उसे देखते हुए नीतीश को उनसे पिंड छुड़ाने की ज्यादा जरूरत लग रही होगी. लालू को साथ रखें या भाजपा का समर्थन? उनकी गति ‘सांप-छछूंदर केरी’ है. खुद लालू यादव ने विरोधी दलों को एक करने के लिए पटना में बड़ी रैली करने की घोषणा की है, लेकिन फिलहाल उनके सामने दूसरी बड़ी चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं. विपक्षी एकता की पहल करनेवालों को भाजपा उनके ही फंदे में फंसाने का मौका क्यों छोड़ने लगी!
उत्तर प्रदेश में मुलायम अपनी पार्टी के हाशिये पर हैं. इधर वे मोदी के प्रति नरम भी दिख रहे हैं. लालू प्रकरण के बाद उन्हें ही नहीं, मायावती को भी सीबीआइ का डर सताने लगा हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं. तमिलनाडु और आंध्र का राजनीतिक परिदृश्य आज बहुत बदला हुआ है. ममता बनर्जी को भाजपा के अलावा वाम दलों से भी लड़ना होता है. खुद वाम दल बहुत कमजोर स्थिति में हैं और हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा कोई नेता भी उनके पास नहीं है, जो सभी क्षत्रपों को जोड़े रखते थे.
सबसे बड़ी बात यह कि केंद्र की भाजपा सरकार अलोकप्रिय नहीं हुई है. जनता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादुई असर बरकरार लगता है. विरोधी दलों को जोड़नेवाले गौंद यानी जन-असंतोष या सत्ता-विरोधी लहर की अनुपलब्धता के बावजूद देश को इस समय सशक्त विपक्ष की बहुत जरूरत है. फिलहाल तो विपक्षी दलों को खुद अपना अस्तित्त्व बचाये रखने के लिए एकता दिखाने की आवश्यकता है.

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