”साहित्यिक सक्रियता” का सवाल
रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ‘वागर्थ’ (कोलकाता से प्रकाशित भारतीय भाषा परिषद् की मासिक पत्रिका) के जुलाई 2017 के अंक में शंभुनाथ ने अपने पहले संपादकीय- ‘घायल शब्द’ में ‘साहित्यिक सक्रियतावाद को अपनाने की जरूरत’ बतायी है. ‘वाद’ को छोड़ दें, क्योंकि वह एक निश्चित रूपाकार ग्रहण कर अपना एक रूप-पक्ष प्रस्तुत करता है. ‘साहित्यिक सक्रियता’ से […]
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
‘वागर्थ’ (कोलकाता से प्रकाशित भारतीय भाषा परिषद् की मासिक पत्रिका) के जुलाई 2017 के अंक में शंभुनाथ ने अपने पहले संपादकीय- ‘घायल शब्द’ में ‘साहित्यिक सक्रियतावाद को अपनाने की जरूरत’ बतायी है. ‘वाद’ को छोड़ दें, क्योंकि वह एक निश्चित रूपाकार ग्रहण कर अपना एक रूप-पक्ष प्रस्तुत करता है. ‘साहित्यिक सक्रियता’ से हमारा आशय क्या है? शंभुनाथ की चिंता एक सर्जक आलोचक की चिंता है. क्या यही चिंता शब्दों के घायल, लहू-लुहान होने की उसकी गरिमा के नष्ट होते जाने की, भाषा की सत्ता के खतरे में पड़ने की, साहित्य की हस्तक्षेपकारी भूमिका की सबको है? आज ‘सृजन’ कम, ‘लेखन’ ज्यादा हो रहा है.
लगभग एक दशक पहले हिंदी-मैथिली के कवि हरेकृष्ण झा ने मैथिली में प्रकाशित अपनी कविता-पुस्तक ‘एना त नहि जे’ (ऐसा तो नहीं कि) की भूमिका ‘अहं जनाय समदं कृणोमि’ में वाग्देवी का स्मरण किया था. ऋग्वेद के दसवें मंडल के 125वें सूक्त की ऋचा संस्था 6 में वाग्देवी जनसामान्य की रक्षा और कल्याण के लिए शत्रुओं से युद्ध करती हैं व एक साथ पृथ्वी और आकाश में व्याप्त हैं. जनसामान्य की रक्षा से भाषा की रक्षा जुड़ी है. भाषा को विकृत और भ्रष्ट करने के सबसे अधिक जिम्मेवार हमारे समय के नेतागण हैं. शब्द एक ही है, पर कवि के लिखने और नेताओं-अभिनेताओं के बोलने से उसके अर्थ बदल जाते हैं.
कोशों में लगभग निर्जीवावस्था में पड़े रहनेवाले शब्द अपने और प्रयोक्ताओं के यहां सजीव हो जाते हैं और प्रयोक्ता ही उसकी सार्थकता, जीवंतता का उत्तरदायी है. ‘गरीबी हटाओ’ और ‘अच्छे दिन’ अपने प्रयोक्ताओं के कारण ही विपरित अर्थ देने लगते हैं.
आज के उफनते, कुहरीले, जहरीले और बनैले समय में साहित्यकारों की भूमिका कहीं अधिक है. कथाभूमि होया काव्यभूमि, यह सब सृजनभूमि है. शब्द की गरिमा और महिमा मनुष्य की गरिमा और महिमा से जुड़ी है. एक प्रमुख आलोचक ने वर्षाें पहले शब्दों की सक्रियता की बात की थी- ‘शब्द जहां सक्रिय हैं’. प्रश्न यह है कि शब्द कहां सक्रिय हैं?
शब्दों की सक्रियता उसके प्रयोगकर्ता की सक्रियता पर निर्भर है. सृजनात्मक लेखन और व्यवहार जगत में भाषा की भूमिका समान नहीं है. कवि-साहित्यकार अधिक व्यावहारिक, सांसारिक बन कर भाषा का अहित करता है. उसकी भौतिक समृद्धि का भाषिक समृद्धि से कोई संबंध नहीं है. बेहतर तो यही होगा कि कवियों ने शब्दाें के संबंध में जो कविताएं लिखी हैं, भाषा पर जो विचार व्यक्त किये हैं, आज एक बार पुन: उन सबको ध्यान में रख कर विचार करने के बाद हम भाषा की सक्रियता पर ध्यान दें. सर्जनात्मक सक्रियता सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता है. आज ‘साहित्य’ के वास्तविक अर्थ को समझने की जरूरत है, न कि उसे या साहित्यिक कर्म को ‘पुनर्परिभाषित’ करने की. ‘साहित्य’ में ‘सहित’ का भाव है और यह ‘हितेन सह सहितम’ है. प्रश्न स्वहित और परहित का है.
स्वहित में धंसा-फंसा लेखक साहित्य का सर्वाधिक नुकसान करता है. कवि-साहित्यकार, लेखक-आलोचक, छात्र-अध्यापक, सब कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में भाषा की अधोगति के लिए जिम्मेदार हैं. शब्द कर्म से जुड़कर सार्थक होता है, भाषा अपनी जड़ों से विस्थापित रहकर हवा में झूलती रहती है.
प्रत्येक शब्द की अपनी सांस होती है. आज अगर वह उखड़ रही है, तो हम सब दोषी हैं. उन शक्तियों की पहचान और उनसे संघर्ष आवश्यक है, जो भाषा को इस मुकाम तक पहुंचा देते हैं.
नेताओं-अभिनेताओं, बाजीगरों और मुहावरेबाजों को ही दोष न देकर हमें अपने को भी देखना होगा. आत्म चिंतन करना होगा. भाषा की शक्ति और सत्ता राजनीतिक शक्ति और सत्ता से कहीं बड़ी है. शासक वर्ग इससे घबराता है, थरथराता है. राज्य सत्ता और शब्द सत्ता से संघर्ष स्वाभाविक है. नेरुदा ने अपनी कविता ‘शब्द’ (वर्ड्स) में शब्दों के रक्त में जन्म लेने की बात लिखी है. उन्होंने शब्दों के ‘महाप्रपात के झरते और झरते जाने’ की बात कही. लिखा- ‘शब्दकांच को कांच का गुण प्रदान करते हैं/ रक्त को रक्त/ और स्वयं जीवन को जीवन.’ शब्द और भाषा की रक्षा जीवन की रक्षा है.
शब्दहंता भी शब्द का प्रयोग करते हैं. राष्ट्रद्रोही भी राष्ट्र प्रेम की बात करते हैं. साहित्यकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह धुंध और कुहासे को छांटे. उसकी दुनिया स्वायत्त नहीं है.
अपनी मति ठीक रख कर ही हम शब्दों को गति दे सकते हैं. जरूरी है शब्द और कर्म में समानता, सच कहने का साहस, भाषा को संघर्षशील इलाकों में ले जाने की हिम्मत, चेतना और भाषा की संवेदना और भाषा के विचार, दृष्टि और मूल्य के साथ भाषा के अंत:संबंध को बचाये-बनाये रखना. यहीं पर हम सांस्कृतिक कर्म से जुड़ जाते हैं. छपना और प्रचारित होना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है. अधिक महत्वपूर्ण है शब्द और भाषा को सदैव जीवंत रख कर स्वयं को जीवित रखना. क्या यह संभव है? असंभव तो एकदम नहीं है.
शब्द और भाषा को आज अधिक जीवंत और सक्रिय करने का दायित्व केवल साहित्यकारों पर ही नहीं, साहित्य के छात्रों और अध्यापकों पर भी है. तिकड़मी राजनीति समाज का कल्याण नहीं करती.