यह हौसला न टूटे

सच सत्ता के लिए असुविधाजनक हो, तो क्या कोई अपनी जबान बंद रखे, भले ही उसे यही जिम्मेवारी दी गयी हो? कर्नाटक की घटना से लगता है राज्यसत्ता की मर्जी शायद यही है. सूबे में डीआइजी (कारा) के पद पर तैनात रूपा डी मौद्गिल ने सत्ता के लिए असुविधा पैदा करनेवाला सच बोलने का साहस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 19, 2017 6:26 AM

सच सत्ता के लिए असुविधाजनक हो, तो क्या कोई अपनी जबान बंद रखे, भले ही उसे यही जिम्मेवारी दी गयी हो? कर्नाटक की घटना से लगता है राज्यसत्ता की मर्जी शायद यही है. सूबे में डीआइजी (कारा) के पद पर तैनात रूपा डी मौद्गिल ने सत्ता के लिए असुविधा पैदा करनेवाला सच बोलने का साहस किया.

उन्होंने पुलिस महकमे में शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंगुली रखते हुए रिपोर्ट लिखी कि बेंगलुरु सेंट्रल जेल में सजा काट रही एआइएडीएमके की नेता शशिकला नटराजन को नियमों का उल्लंघन करते हुए अतिरिक्त सुविधाएं मुहैया करायी गयीं. उनका एक आरोप यह भी था कि सुविधाओं के एवज में दो करोड़ रुपये की रिश्वत ली गयी और सीसीटीवी फुटेज से शशिकला के विशेष रसोईघर के वीडियो हटा दिये गये. इस खुलासे के चंद दिनों के भीतर उनका तबादला करने का आदेश दे दिया गया है. तबादला बेशक कोई सजा नहीं है, लेकिन इससे यह शंका तो मजबूत होती है कि शशिकला के मामले में राज्य के आला पुलिस अधिकारी कुछ बचाना-छुपाना चाह रहे हैं.

कर्तव्यपरायण पुलिस और अन्य महकमों के प्रशासनिक अधिकारियों को किसी बहाने से सबक सिखाने का मामला किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है. कर्नाटक में जैसा बरताव रूपा के साथ हुआ है, कुछ वैसा ही व्यवहार कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में तैनात डीएसपी श्रेष्ठा ठाकुर के साथ हुआ.

उन्होंने भाजपा के एक स्थानीय नेता पर परिवहन के नियमों के उल्लंघन के लिए जुर्माना लगाया और पुलिस के काम में बाधा डालने के लिए हिरासत में लिया, तो उन्हें सरेआम धमकी दी गयी. घटना के एक पखवाड़े के भीतर उनका तबादला कर दिया गया. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थानीय सांसद को सांप्रदायिक विद्वेष वाले इलाके में जुलूस निकालने पर एसएसपी लव कुमार ने टोका और कुछ नेताओं की गिरफ्तारी की. कर्तव्यपरायणता का पुरस्कार उन्हें भी तबादले के रूप में मिला. ऐसे अधिकारियों की सूची बहुत लंबी हो सकती है.

सरकार चला रहे राजनीतिक दल को जब भी लगता है कि किसी अधिकारी की कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी से उसके और उसके नेताओं को चुनौती मिल रही है, वह बहाने की ओट लेकर ऐसे अधिकारी को परेशान करता है. इससे अधिकारियों का हौसला तो टूटता ही है, लोगों में भी संदेश जाता है कि विधि का शासन ताकत का खेल है.

इसका एक नतीजा लचर, लापरवाह और भ्रष्ट प्रशासन के रूप में भी हमारे सामने आता है. अगर सरकारें सचमुच सुशासन के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो उन्हें ईमानदार और मुस्तैद अधिकारियों के साथ खड़ा होना चाहिए, न कि उन्हें परोक्ष रूप से प्रताड़ित करना चाहिए.

Next Article

Exit mobile version